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बदलती परंपराओं और त्यौहारों का नया स्वाद

बदलती परंपराओं और त्यौहारों का नया स्वाद

by डॉ. सुषमा श्रीराव
in प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७, संस्कृति, सामाजिक
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आज की युवा पीढ़ी, परंपराओं के साथ भले ही हाथों में हाथ डाल कर ना चल रही हो परंतु उन्हें जिंदा रखने की हसरत उनमें है। बस उनका देखने का नजरिया बदल गया है। बदलाव और नयापन हमेशा अच्छा होता है। इससे समाज उन्नति की ओर बढ़ता है।
ट्रिंग… ट्रिंग… ट्रिंग… कॉलबेल बजी। उत्साह से नेहा ने दरवाजा खोला। अपनी चारों सहेलियों को देख नेहा का चेहरा खिल उठा। ‘‘कौन आया है बेटी?’’ मां भी कमरे से बाहर आ गई। नेहा ने गांव से आई अपनी मां का सभी सहेलियों से परिचय कराया। बातचीत चल निकली तो त्यौहारों पर आकर अटक गई कि त्यौहारों की रचना क्यों की गई होगी? मां ने समझाया, ‘‘हम सब जानते हैं कि इंसान सुखद घटनाओं को तो जल्दी भूल जाता है, परंतु दु:खद घटनाओं को नहीं भूल पाता, जिससे मन निराश हो जाता है। एकरस सी जिंदगी जीते-जीते नीरसता छा जाती है। इसी नीरसता को दूर करने के लिए ऋषियों ने धर्म के साथ त्यौहारों को जोड़ दिया, जिससे मन खुश हो जाए। अगर ये त्यौहार ना होते तो जीवन में उत्साह नहीं होता।’’
‘‘मांजी… सही कह रही हैं,’’ रश्मि बोल उठी, ‘‘पहले औरतों का काम सिर्ङ्ग चूल्हा- चौका संभालना होता था। बाहर जाने के मौके कम ही होते थे, क्योंकि बाहर का सारा काम पुरुष देखते थे। त्यौहारों के बहाने वे अपनी सखियों से, रिश्तेदारों से मिल पाती थीं और प्रसन्न हो जाती थीं।’’
‘‘अरे… हमारे जमाने में हम मंगलागौरी बिठाते थे, रात भर जागते थे, ङ्गुगड़ी, झिम्मा न जाने कितने खेल खेलते थे। कब सुबह होती थी पता ही नहीं चलता था। अगले वर्ष ङ्गिर मिलने का वादा कर रग रग में उत्साह भरकर घर जाते थे।’’
‘‘तुम आजकल की लड़कियों को त्यौहार मनाने में कोई रुचि ही नहीं है,’’ मांजी उदास होकर बोली।
‘‘ऐसा नहीं है, मांजी’’ नुपुर बोल उठी, ‘‘त्यौहार हम सब मनाते हैं, मगर उनका स्वरूप बदल गया है। हम भी मंगलागौरी बिठाते हैं, परंतु रात भर जाग नहीं सकते क्योंकि दूसरे दिन आङ्गिस जाना होता है। इस लिए १२ बजे तक नाच गाना कर लेते हैं। महानगरों में जगह की कमी है, इसलिए बड़ा आयोजन नहीं हो पाता।’’ मांजी के चेहरे पर स्वीकारोक्ति दिख रही थी। ‘‘पता है मांजी,’’ नुपुर बोली, ‘‘मेरी मां ने मेरी पहली मंगलागौरी के लिए छोटा सा हॉल बुक कराया था। सबको निमंत्रण दिया था और मांजी… मुंबई में मंगलागौरी के खेल करने वाले अनेक ग्रुप हैं, उसमें से १ ग्रुप को बुला कर कार्यक्रम करवाया था। उस ग्रुप की विशेष बात यह थी, कि उसमें सारी महिलाएं ६० से ७० की उम्र की थीं और मंगलागौरी के खेल बड़ी ही सहजता से कर रही थीं, जबकि हमें वे खेल करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी।’’ ‘‘अच्छा… ऐसा ग्रुप भी होता है?’’ मांजी चकित थी।
‘‘हां मांजी… हमारे गुजरात में भी डांडिया के अनेक ग्रुप होते हैं, वे आकर अच्छा आयोजन करते हैं।’’ रूपल बोली। ‘‘आजकल तो सब पर पश्चिमी सभ्यता ही छाई है, डांडिया वगैरह। अरे माता की पूजा में भक्तिभाव से घेर लेना, गरबा खेलना ही हमारी परंपरा है’’ मांजी नाराज लग रही थी।
‘‘ऐसा नही है मांजी… कुछ भी वेस्टर्न नहीं हुआ है।’’ भले ही हम वेस्टर्न ड्रेस या सलवार सूट पहनते हैं, परंतु कोई भी महिला नवरात्र में नौ दिनों तक, नौ अलग-अलग रंगों की साड़ी पहनने का मौका नहीं छोड़ती। नवरात्र में कभी मुंबई आइए। बसों, ट्रेनों और रास्तों पर आपको नवरात्र की, उस विशेष दिन की, विशेष रंग की साड़ी पहने इतनी महिलाएं दिखेंगी कि लगेगा मानों रंगों की बाढ़ बह रही है। रही गरबा की बात मांजी, तो गांवों में लोग गरबा खेलते हैं मगर महानगरों के घरों में आंगन तो होते नहीं। परंतु हमें त्यौहार की परंपरा तो निभानी है, तो हम पंडाल कर लेते हैं या अपनी सोसायटी के आंगन में डांडिया का आयोजन कर लेते हैं। आजकल तो डांडिया का आयोजन करने वाले विभिन्न ग्रुप हैं। वे बड़े बड़े ग्राउंड पर आयोजन करते हैं। हम सिर्ङ्ग टिकट लेकर वहां खेलने जाते हैं।’’ रूपल बोली।
‘‘और मांजी… आजकल अधिकतर महिलाएं वर्किंग वुमन हैं। उनके पास समय का अभाव होता है। काम की व्यस्तता के कारण लोगों का आपस में मिलना-जुलना कम हो गया है….डांडिया जैसे आयोजनों में जाने के कारण मित्रों और रिश्तेदारों से मिलना-जुलना हो जाता है और सब रिङ्ग्रेश हो जाती हैं।’’ नुपुर बोली।
‘‘अरे! पर… उसके ङ्गिल्मी गाने’’ मांजी कानों पर हाथ रख कर बोली। ‘‘गानों को छोड़िए मांजी, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में तो सारे भजन ङ्गिल्मी गानों की धुनों पर होते हैं। लोग तभी तो भजन गाते हुए मगन हो जाते हैं… अगर… ये ऐसी धुनों पर ना होते, तो क्या इतना आनंद आता?’’ रश्मि बोली।
‘‘हां… इस बात को तो मैं मानती हूं। हमारे महाराष्ट्र में भी ऐसा होता है’’ हंसते हुए मांजी बोली। ‘‘अच्छा ये सब छोड़ो। तुम लोग दीवाली के बाद आई हो, कैसी बीती दीवाली? घर की पुताई तो करवा ली होगी। नया लगता होगा घर, नहीं?’’
‘‘मां… यहां लोग अपनी सुविधानुसार घर की मरम्मत और रंग रोगन करवाते हैं।’’ नेहा ने समझाना चाहा।
‘‘मुझे पता था।’’ मांजी चिढ़ते हुए बोली, ‘‘मैं ना कहती थी, आज की युवा पीढ़ी को त्यौहार और परंपराएं मनाने में कोई दिलचस्पी नही हैं।’’
‘‘मांजी… ङ्गिर वही बात।’’ अब कनक बोल पड़ी, ‘‘परंपराएं निभाई जा रही हैं। बस उनको निभाने का अंदाज बदल गया है। लोग अपनी सुविधा और जरूरत देखने लगे हैं। ये कोई नई बात नहीं है। पुराने जमाने में भी ऐसा होता था।’’
‘‘नहीं ऐसा नहीं होता था,’’ मांजी जिद पर उतर आई, ‘‘मैं समझाती हूं…’’ नुपुर बोली ‘‘मांजी… आप कह रही थीं ना कि ऋषियों ने त्यौहार को धर्म के साथ जोड़ दिया है।’’ ‘‘हां… तो?’’ मांजी बोली।
‘‘हां तो… उसी तरह उन्होंने त्यौहारों की रचना कुछ इस प्रकार की है, कि वे मौसम के साथ संबंध रखते हैं और इन परंपराओं के पालन करने के पीछे भी कोई उद्देश्य होता है।’’
‘‘मतलब…’’ मांजी बोली।
‘‘देखिए…’’ नुपुर समझाते हुए बोली, ‘‘दीवाली बरसात के बाद आती है। पहले कच्चे मकान होते थे। उनकी छतें-दीवारें खराब हो जाती थीं। सीलन आ जाती थी। ऐसे में घर के सदस्यों के बीमार होने का खतरा था। इसीलिए कहा गया कि दीवाली में साङ्ग सङ्गाई, घर की मरम्मत और लिपाई पुताई करें। समय के साथ कच्चे मकान पक्के होते गए, जिससे बरसात में उनके खराब होने की गुंजाइश ही नहीं रही। इसीलिए आजकल आवश्यकतानुसार घर की मरम्मत और रंग रोगन करवा लेते हैं।’’ नुपुर की बात का गहरा असर मांजी पर हुआ, ‘‘हां बेटा… समय के साथ-साथ रीति-रिवाजों ने भी करवट ले ली है।’’
‘‘और मां लोगों की मानसिकता भी बदली है’’, नेहा ने कहा।
‘‘मां… तुम तो जानती हो कि नागपंचमी को मैं असली नाग की ना तो पूजा करती हूं, ना ही उसे दूध पिलाती हूं, क्योंकि विज्ञान कहता है, सांप दूध नहीं पीता। तो मैं ऐसा ढकोसला कर, उस मूक प्राणी को कष्ट क्यों दूं? परंपरा निभाने के लिए बाजार में मिलने वाले मिट्टी के नाग लाकर, पूजा करके तुलसी के गमले में रख देती हूं। कुछ दिनों बाद वे मिट्टी में मिल जाते हैं।’’ ‘‘हां बेटा… ये एकदम उचित है। परंतु आजकल की लड़कियां हरितालिका और करवा चौथ जैसे निर्जला रखे जाने वाले व्रत भी आजकल खा-पीकर रखती हैं, ये ठीक नहीं है।’’
कनक बोली, ‘‘मांजी… आजकल की दौड़भाग की जिंदगी में घर और आङ्गिस संभालते हुए निर्जला व्रत रखना असंभव है। मैं और मेरे पति एक दूसरे के लिए व्रत रखते हैं परंतु चाय कॉङ्गी और जूस के साथ कई बार छुट्टी नहीं मिलने पर, आङ्गिस में मोबाइल पर बात करके एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हैं। हम इसे ‘प्यार का इवेंट’ के तौर पर मनाते हैं। इससे परंपरा भी बनी रहती है और हमारा रिश्ता भी ङ्गिर से रिचार्ज हो जाता है’’
‘‘रिचार्ज… वाह…’’ सब जोर से हंस पड़े। ‘‘मैंने सुना है, गौरी गणपति में गौरी और महालक्ष्मी के नैवेद्य या भोग की तैयारी में भी शार्टकट अपनाती हो।’’ मांजी बोली।
‘‘मांजी… नैवेद्य में १६ तरह की सब्जियां बनानी पड़ती हैं। पहले संयुक्त परिवार थे और खाने वाले लोग बहुत। लेकिन अब एकल परिवार हैं, तो १६ सब्जियां खाएगा कौन? तो बस इतना शार्टकट करते हैं कि १६ सब्जियां मिला कर १ सब्जी बना लेते हैं। आजकल मार्केट में १६ सब्जियां मिला कर रखी होती हैं, हम बस वही ले आते हैं।’’ नुपुर बोली।
‘‘मांजी… त्यौहार मनाने का अंदाज जरूरत के अनुसार बदल गया है’’, कनक बोली, ‘‘महानगरों में इसी की वजह से सभी घर नहीं आ पाते तो हम हलदी कुकुंम, सहेलियों के जन्मदिन, प्रमोशन का उत्सव आङ्गिस में, ट्रेन में या जहां सब की सुविधा हो वहां मनाते हैं।
‘‘क्या बात है… बढ़िया’’ मांजी हंस पड़ी।
‘‘आजकल तो होली दीवाली पर घर-घर जाकर बधाइयां देने का रिवाज ही नहीं रहा। इससे एक दूसरा का हालचाल नहीं जान पाते’’, मांजी बोली।
‘‘मां… ऐसा बहुत पहले होता था’’ नेहा बोली। ङ्गिर पोस्टकार्ड, ग्रीटिंग कार्ड आ गए ङ्गिर, लैंडलाइन और ङ्गिर मोबाइल पर बधाइयां दी जाने लगीं। आजकल तो व्हाट्सएप ने सब का काम आसान कर दिया है, बस एक क्लिक पर त्यौहार की बधाई के साथ-साथ उसका चित्र और संदेश भी पहुंच जाता है। देश में ही नहीं विदेश में और वो भी मुफ्त में।
‘‘अरे वाह… यह बदलाव तो बेहद सुखद हैं। कामकाजी ही नहीं, घरेलू महिलाओं के लिए भी। इसमें श्रम, पैसा और समय तीनों की बचत हो गई,’’ मांजी ने चहकते हुए कहा।
‘‘मांजी एक और बदलाव के बारे में बताना चाहूंगी। होली में मध्यप्रदेश और उत्तर भारत में घर-घर में गुझिया बनाई जाती है, महाराष्ट्र में पूरनपोली। हम घर में बनाने की बजाय, सोसायटी में हलवाई बिठा कर पूरन पोली बनवाते हैं, पूरनपोली और खर्च आपस में बांट लेते हैं, इससे परंपरा भी बनी रहती हैं और महिलाएं निश्चिंत होकर आङ्गिस जा सकती हैं,’’ रश्मि ने बताया।
‘‘मांजी और भी बदलाव हुए हैं,’’ नुपुर बोली, ‘‘पहले के जमाने में महिलाओं को मायके जाने की इतनी आजादी नहीं थी, इसलिए कुछ त्यौहार मायके में मनाने की परंपरा बना दी गई, ताकि लड़की घरवालों से मिल सके, मन हल्का कर सके। मगर आजकल ऐसा कोई बंधन नहीं है। अब उपहार का स्वरूप भी बदल गया है। पैसे, साड़ी या जेवर की बजाय, सामने वाले की पसंद और जरूरत के मुताबिक उपहार दिए जा रहे हैं। आजकल ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स पर, कपड़ों से लेकर इलेट्रॉनिक आइटम्स और किचन अप्लाएंसेस की लंबी श्रेणी उपलब्ध है। बस एक क्लिक पर अपनों को घर बैठे उपहार भिजवाया जा सकता है,’’ नुपुर ने कहा।
‘‘मां को ये मालूम है। मां के पैरों में तकलीङ्ग रहती है। मामाजी ने भाईदूज पर इन्हें साड़ी के बदले मसाजर गिफ्ट किया। मां सब को बता रही थी। क्यों मां…?’’ नेहा ने चुटकी ली। मां मंद-मंद मुस्कुराने लगी।
‘‘ये सब तो ठीक है, बच्चों… पर छोटी-छोटी परंपराएं तो निभाई जा सकती हैं ना… जैसे नदी देखने पर उसमें सिक्का डालना शुभ होता है। शाम को तुलसी के पास दिया लगाना… ये भी तुम लोगों से नहीं होता।’’
‘‘मांजी…’’ रूपल बोली, ‘‘पहले तांबे के सिक्के होते थे। आज की तरह स्टेनलेस स्टील के नहीं, पहले नदियों का पानी पिया जाता था। तांबा हमारे शरीर के लिए बहुत आवश्यक मेटल है। पीने के पानी द्वारा ये हमारे शरीर में पहुंच सके और तांबे की मात्रा हमारे शरीर में पर्याप्त रहे। इसलिए इसे शुभ से जोड़ा गया। अब इसकी आवश्यकता नहीं है। इसी तरह पुराने जमाने में बिजली नहीं थी। तुलसी वृंद्घावन घर के आंगन में होता था। वहां उजाला रहे ताकि लोगों को आने जाने में आसानी हो और कीड़े मकाड़े. सांप आदि के आने की संभावना ना रहे, इसलिए वहां दिया जलाने की प्रथा थी। अब बिजली आने से, इसकी जरूरत नहीं रही।’’
‘‘बेटियों, तुम लोगों से बात करके पता लगा कि तुम भी हम लोगों की तरह ही सोचती हो कि त्यौहार हमें परिवार और समाज से जोड़ते हैं। जब सभी समुदाय के लोग एक साथ सभी त्यौहार मनाते हैं, तो उमंग और उत्साह तो बढ़ता ही है, आपसी संबंध मजबूत होते हैं। भाइचारे की भावना बढ़ती है। सामाजिक संगठन भी मजबूत होता है। मेरी सारी शंकाएं, शिकायतें दूर हो चुकी हैं। मैं समझ चुकी हूं कि आज की युवा पीढ़ी, परंपराओं के साथ भले ही हाथों में हाथ डाल कर ना चल रही हो परंतु उन्हें जिंदा रखने की हसरत उनमें है। बस उनका देखने का नजरिया बदल गया है। बदलाव और नयापन हमेशा अच्छा होता है। इससे समाज उन्नति की ओर बढ़ता है। इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए….’’

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डॉ. सुषमा श्रीराव

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