मनोवांछित फलदायी वट सावित्री व्रत

भारत एक धर्मप्राण देश है। यहां के जनजीवन में व्रत-पर्वोत्सव का बड़ा महत्व है। वर्ष के आद्य मास चैत्र से शुरू होकर अंतिम मास फाल्गुन तक अनेक व्रत आते हैं, जिन्हें पूरा परिवार-समाज निष्ठा और आस्था के साथ मनाता है। इन्हीं व्रतों में महत्वपूर्ण व्रत है- वटसावित्री व्रत।

यह व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण अमावस्या को सुहागिन स्त्रियों द्वारा मनाया जाता है। सौभाग्य सूचक वट सावित्री व्रत पूरे देश में थोड़े से स्थान भेद, काल भेद और उपचार भेद के साथ मनाते हैं।

व्रत की कथा

पुराणों के अनुसार मद्र देश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा तथा प्रतापी राजा हुए। उन्हें बहुत दिनों तक संतान नहीं हुई, तो उन्होंने ऋषियों के कथनानुसार संतान प्राप्ति हेतु यज्ञ करवाया। यज्ञ के पुण्य से उन्हें कन्या की प्राप्ति हुई। जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।

सावित्री के विवाह योग्य होने पर राजा अश्वपति ने उससे वर चुनने के लिए कहा तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण कर लिया। यह बात जब देवर्षि नारद को ज्ञात हुई, तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि सावित्री से वर चुनने में बड़ी भूल हुई है। सत्यवान गुणवान है, शीलवान है, धर्मात्मा है, किंतु वह अल्पायु है। उसका जीवन मात्र एक वर्ष बचा है। एक वर्ष के उपरांत उसकी मृत्यु हो जायेगी।

देवर्षि नारद की भविष्यवाणी सुनकर राजा अश्वपति निराश हो गये। उन्होंने सावित्री को समझाया कि अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है- वह कोई और वर चुन ले। किंतु सावित्री बोली, ‘‘ पिताश्री! भारतीय कन्यायें जीवन में पति का वरण एक बार ही करती हैं, अत: अब चाहे, जो हो, वररूप में मैं सत्यवान को ही स्वीकार करूंगी।’’ सावित्री की दृढ़ता देखकर महाराज अश्वजीत ने सचिव को साथ लेकर गृहस्थी के लिए आवश्यक सामग्री सहित वन में गये। उनके साथ सावित्री भी थी। वन में राजश्री से नष्ट राजा द्यूतत्सेन अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रहते थे। वहां पर पूरे विधि-विधान से सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया गया।

वन में रहते हुए सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। देवर्षि नारदजी की भविष्यवाणी के अनुसार जब सत्यवान का मरणकाल निकट आया, तो वह उपवास करने लगी। देवर्षि नारद जी ने मृत्यु का जो दिन बतलाया था, उस दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन में लकड़ी लाने चली गयी। जाते समय उन्होंने सास-ससुर की अनुमति और आशीर्वाद ले लिया। वन में सत्यवान ज्योंही पेड़ पर चढ़ने लगे, उनके सिर में असह्य पीड़ा होने लगी। लौटकर वे सावित्री की गोंद में सिर रखकर लेट गये। थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में मृत्युपाश लिए यमराज खड़े हैं। यमराज सत्यवान के अंगुष्ठप्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सत्यवान की मृत-देह वहीं पर रखकर सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी। सावित्री को आते हुए देखकर यमराज ने कहा,‘‘ हे पति परायणे! जहां तक मनुष्य मनुष्य का साथ दे सकता है, वहां तक तुमने अपने पति का साथ दिया। अब तुम वापस लौट जाओ।’’

यह सुनकर सावित्री बोली,‘‘ जहां तक मेरे पति जायेंगे, वहां तक मुझे भी जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है।

यमराज सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा,‘‘ मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र ज्योति दे दीजिए।’’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर सावित्री को लौट जीने को कहा, किंतु सावित्री उसी प्रकार यमराज के पीछे-पीछे चलती रही। यमराज ने उनका हठ देखकर पुन: वर मांगने को कहा। तब सावित्री ने पुन: वर मांगा, मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाये।’’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कह कर उसे लौट जाने को कहा,परंतु सावित्री अडिग रही।’’

सावित्री की पति भक्ति और निष्ठा देख कर यमराज अत्यंत द्रवीभूत हो गये।

उन्होंने सावित्री से एक और वर माँगने के लिए कहा। सावित्री ने वर मांगा,‘‘ मैं अपने पति सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। कृपा करके आप मुझे यह वरदान दें।’’ सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न होकर यमराज ने इस अंतिम वर को देते हुए सत्यवान के प्राण को अपने पास से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गये। सावित्री उस वट-वृक्ष के पास लौट आयी। वहां पड़े सत्यवान की मृत-देह में जीव का संचार हुआ और उठ कर बैठ गये। सावित्री के सास-ससुर की आंखें ठीक हो गयीं और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल गया।

धीरे-धीरे सावित्री के इस अनुपम व्रत की कथा संपूर्ण देश में फैल गयी और यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्य कथा को सुनने तथा पति-भक्ति रखने पर स्त्रियों के संपूर्ण मनोरथ पूरे होंगे और विपत्तियां दूर होंगी।

वट वृक्ष का महत्व

वट वृक्ष को देव वृक्ष कहा जाता है। इसमें प्रदूषित वायु शुद्ध करने की अद्भुत क्षमता है। औषधि के रूप में इसका विशेष महत्व है। इस वृक्ष की उम्र भी काफी लंबी होती है। इसीलिए दीर्घायु, अक्षय सौभाग्य और निरंतर अभ्युदय की प्राप्ति के लिए वट वृक्ष की आराधना की जाती है। वट-वृक्षों के कारण ही तीर्थों में पंचवटी का विशेष स्थान है। कुंभज मुनि के परामर्श से भगवान श्रीराम ने सीता जी एवं लक्ष्मण के साथ वनवासकाल में यहां पर निवास किया था। वट वृक्ष का महात्म्य वर्णन करते हुए कहा गया है :-

वट मूले स्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जनार्दन:।
वटाग्रे तु शिवो देव: सावित्री वट संश्रिता॥

वट वृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन विष्णु तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैं। देवी सावित्री भी वट-वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं।

प्रयागराज में गंगाजी के तट पर वेणीमाधव के निकट स्थित अक्षयवट के विषय में कहा जाता है: वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि।
अक्षय वट के पत्र पुटक पर प्रलय के अंतिम चरण में भगवान् श्री कृष्ण ने बाल रूप में ऋषि मार्कंडेय को सर्वप्रथम दर्शन दिया था।
भक्त-शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरित मानस में संगम स्थित वट-वृक्ष को तीर्थराज प्रयाग का छत्र कहा है:-

संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मन मोहा।

इसी वट वृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को पुन: जीवित किया था। इसीलिए वट के महात्म्य के कारण ही यह वट ‘वट सावित्री व्रत’ कहा जाता है।

व्रत का विधान

ज्येष्ठ मास के व्रतों में सबसे प्रभावी व्रत ‘वट सावित्री व्रत’ माना जाता है। महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य और कल्याण के लिए यह व्रत रखती हैं।
सौभाग्यवती स्त्रियां श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों का उपवास रखती हैं। त्रयोदशी के दिन व्रत प्रारंभ के समय वट वृक्ष के नीचे व्रत का इस प्रकार संकल्प लेना चाहिए।

मम वैधव्यादि सकल दोष परिहारार्थं ब्रह्म सावित्रीप्रीत्यर्थं
सत्यवटसावित्रीप्रीत्यर्थं च वट सावित्री व्रतमहं करिष्ये।

( अपने वैधव्य आदि सकल दोषों के परिहार के लिए ब्रह्मसावित्री और सत्यव्रत्सावित्री की प्रीति के लिए मैं वट सावित्री धारण कर रही हूं)

इस प्रकार संकल्प करके यदि तीन दिन तक उपवास करने की सामर्थ्य न हो, तो त्रयोदशी को रात्रिभोजन, चतुर्दशी को अयाचित तथा अमावस्या को उपवास करके प्रतिपदा को पारण करना चाहिए। अमावस्या को एक बांस की टोकरी में सप्त धान्य के ऊपर ब्रह्मा और ब्रह्म-सावित्री तथा दूसरी टोकरी में सत्यवान एवं सावित्री की प्रतिमा स्थापित करके वट वृक्ष के समीप धूप, दीप,नैवेद्य, अगरू, कुंकू, तुलसी दल, पान, हल्दी, पुष्प, राजमुद्र से यथाविधि पूजन करना चाहिए। पूजन के पश्चात वटवृक्ष की पूजा तथा जल से उसके मूल का सिंचन करना चाहिए। तदुपरांत वट की परिक्रमा करते हुए 108 बार कच्चा सूत लपेटना चाहिए। वट-वृक्ष की प्रदक्षिणा करते समय ‘नमो वैवस्ताय’ मंत्र का उच्चारण करते रहना चाहिए। ‘अवैधम्यं च सौभाग्यं देहि त्वम् मम् सुव्रते।’ पुत्रान पौत्रांश्च सौरण्यं च गृहाणार्ध्यं नमोस्तुते॥’ मंत्र के साथ सावित्री को अर्घ्य देना चाहिए और वट वृक्ष्य पर जल चढ़ाते हुए

निम्नलिखित प्रार्थना करनी चाहिए :-

वट सिंचामि ते मूलं सलिलैर मृतोपमै:।
यथा शाखा प्रशाखा भिर्वद्वाडसि त्वं महीतले॥
तथा पुत्रैश्च पौत्रेश्च सम्पनं कुरु मां सदा॥

चने पर राजमुद्रा (रुपया) रख कर बायने के रूप में अपनी सास को देकर आशीर्वाद लिया जाता है। सौभाग्य-पिटारी और पूजा सामग्री किसी योग्य ब्राह्मण को दी जाती है। सिंदूर, दर्पण, मौली, काजल, मेहंदी, चूड़ी, बिंदी, हिंगुल, साड़ी, स्वर्णाभूषण एक बांस की पिटारी में रखी जाती है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। इस पर्व पर सौभाग्यवती स्त्रियों की भी पूजा की जाती है। कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को ही उपवास करती हैं। इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का स्मरण भी करना चाहिए।

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