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शिक्षा का भविष्य और भविष्य की शिक्षा

शिक्षा का भविष्य और भविष्य की शिक्षा

by डॉ. करूणाशंकर उपाध्याय
in आत्मनिर्भर भारत विशेषांक २०२०, शिक्षा
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नई शिक्षा नीति का उद्देश्य ज्ञान आधारित जीवंत समाज का विकास रखा गया है जिसे प्राप्त करने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को पर्याप्त लचीला बनाया जाएगा। यह भारतीय शिक्षा पद्धति को राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाने के प्रयास की अभिव्यक्ति है।

भारत सरकार द्वारा 21वीं सदी की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आने के बाद सबसे पहले उसके सम्यक् मूल्यांकन की चुनौती है। इस शिक्षा नीति में जो अंतिम बात है वह हमारे लिए सर्वाधिक उपयोगी है। इसके अंतर्गत भारतीय भाषाओं की जानकारी, योग्यता और प्रवीणता को भी रोजगार की अर्हता में जोड़ा जाएगा। यदि यही मुद्दा ठीक से लागू किया जाए तो भारतीय भाषाएं लहलहा उठेंगी। उनके विकास की गति को पंख लग जाएंगे।
इस शिक्षा नीति के प्रारूप को अंतिम रूप देने के पूर्व इसमें 2 लाख सुझावों का समावेश किया गया है जिसे 2.5 लाख ग्राम पंचायतों, 6600 ब्लाकों और 676 जिलों से प्राप्त किया गया था। इसे वर्तमान सदी की आशा एवं आकांक्षा के अनुरूप तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य ज्ञान आधारित जीवंत समाज का विकास रखा गया है जिसे प्राप्त करने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को पर्याप्त लचीला बनाया जाएगा। यह भारतीय शिक्षा पद्धति को राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाने के प्रयास की अभिव्यक्ति है।
अब छात्रों को बीच में ही नामांकन और पाठ्यक्रम बदलने की छूट दे दी गई है। फलतः यदि कोई छात्र अपनी योग्यता के विपरीत किसी गलत विषय का चयन कर लेता है तो वह अपनी गलती सुधार सकता है। इसमें पहली बार शिक्षा के माध्यम के रूप में पांचवीं तक मातृभाषा को रखा गया है और यदि संभव हो तो उसे आठवीं तक जारी रखने का आग्रह किया गया है। इससे भारतीय बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा हो सकेगी। साथ ही, आगे की कक्षाओं के लिए भारतीय भाषाओं पर आनंददायक परियोजना का विकल्प भी रखा गया है।

भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति को लोकोपयोगी बनाते हुए छठी कक्षा से ही व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिया है। चूंकि शिक्षा और रोजगार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं अतः नई शिक्षा नीति में अच्छी शिक्षा के साथ बेहतर भविष्य की कल्पना को भी साकार करने का प्रयास किया गया है। हमारे प्रधानमंत्री भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जिस कौशल विकास की चर्चा करते हैं वह इसका प्राण है। इसमें छात्रों के मूल्यांकन की प्रक्रिया में भी आमूल-चूल परिवर्तन किया गया है। अब उनके योग्यात्मक आकलन के बजाय रचनात्मक आकलन पर जोर दिया जाएगा जिससे उनमें निहित संभावनाओं को सही दिशा दी जा सके। इसमें उच्चस्तरीय शोध को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की व्यवस्था की गई है। साथ ही, शिक्षण क्षेत्र में नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग पर जोर दिया जा रहा है। इसके लिए राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी मंच की स्थापना की जाएगी।
आज कोरोना संकट ने प्रौद्योगिकी एवं डिजिटल आधारित शिक्षा पद्धति अपनाने के लिए विवश कर दिया है। हम भलीभांति जानते हैं कि कोरोना कहर से शिक्षा क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित हुआ है, जिसके चलते करोड़ों छात्रों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। हमें अधिकांश सत्रों की परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैं और शेष के विकल्प ढूंढने पड़ रहे हैं। बावजूद इसके एक प्राध्यापक होने के नाते हम अपने उत्तरदायित्वों का पूरी निष्ठा से पालन करते हुए तकनीक की सहायता से छात्रों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, सिसको वेब एक्स, गूगल मीट, गूगल क्लासरूम, जूम, ई-पाठशाला, यूट्यूब, रिकॉर्डिंग, टी.सी.एस. आयन क्लासरूम एवं स्मार्ट फोन आदि माध्यमों से हम विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। उनकी कक्षाएं ले रहे हैं। हम आंतरिक मूल्यांकन का कार्य भी ऑनलाइन ही कर रहे हैं। हम ई-कंटेंट अथवा अध्ययन सामग्री उन तक पहुंचा रहे हैं। इसके अलावा पीएच. डी. के विद्यार्थियों को ऑनलाइन मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं। आगामी समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

ऑनलाइन शिक्षण सामग्री अधिक मात्रा में कैसे उपलब्ध हो, ऑनलाइन परीक्षाएं कैसे हों, ऑनलाइन पाठ्यक्रम कैसे पढ़ाए जाएं, इस दृष्टि से बड़े परिवर्तन होने की उम्मीद है। लॉकडाउन की स्थिति में हम सभी अपने घरों में बैठे हुए हैं। लेकिन हम निष्क्रिय नहीं बैठे हैं बल्कि पहले की ही तरह सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपने कार्यों में लगे हुए हैं। हमने हाल ही में दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें छात्रों सहित विश्व के विभिन्न देशों के विद्वानों को इससे जोड़ा गया था। हमने इस दौरान शोध प्रक्रिया और शिक्षण प्रक्रिया के बदलावों पर भी चर्चा की थी। वर्तमान विश्व- व्यवस्था की जो स्थिति है उस पर भी विचार-विमर्श किया गया। इसके अलावा आलोचना की जो नई पद्धतियां हैं, समकालीन विमर्श हैं उस पर भी विस्तार से बातचीत हुई। वर्तमान विश्व में ज्ञान – विज्ञान के जो नवीनतम साधन और उपलब्धियां हैं, उस संदर्भ में छात्रों कोे अद्यतन रखना बेहद आवश्यक है। इसलिए हम सब तकनीकी साधनों के माध्यम से कार्य कर रहे हैं। हमारे मार्ग में चाहे किसी भी प्रकार की बाधा आए लेकिन हमें रुकना नहीं है, थकना नहीं है बस राष्ट्र- विजय की कामना लेकर आगे ही बढ़ते जाना है।

आगामी समय तकनीक आधारित शिक्षा व्यवस्था और तकनीक केंद्रित विश्व – व्यवस्था का साक्षी बनने जा रहा है। अब ऑनलाइन शिक्षा हमारी विवशता और दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनती जा रही है। इसलिए सरकार से हमारा निवेदन है कि शिक्षा जगत में आधारभूत सुविधा के लिए तकनीक आधारित शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा दे। वह इस दिशा में योग्य कदम उठाए; ताकि किसी भी स्थिति में छात्रों को शिक्षा से वंचित न रहना पड़े। किसी भी देश की प्रगति और आर्थिक उन्नति शिक्षा पर ही अवलंबित होती है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में जो भी आवश्यक कदम उठाने चाहिए वे जल्द से जल्द उठाए जाने चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में समय की मांग के अनुरूप सरकार को नई शिक्षा नीति भी लागू करनी चाहिए। चूंकि हिंदी और भारतीय भाषाओं के छात्रों को ई-सामग्री की कमी पड़ती है अतः इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए जाने चाहिए। हमें अपनी भाषा अर्थात हिंदी और भारतीय भाषाओं में तकनीकी समझ का विकास करना होगा। साथ ही, ज्ञान एवं नवाचार को सक्षम हथियार के रूप में प्रयुक्त करना होगा। तभी हम प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना को साकार कर सकेंगे।

भारत जैसे विपुल जनसंख्या वाले देश में हमें गरीब, उपेक्षित एवं दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में बसे छात्रों तक इंटरनेट, उसके अनुप्रयोग और उसकी सतत उपलब्धता की भी चुनौती है। देश के शहरी इलाकों में मोबाइल की उपलब्धता 78% और ग्रामीण क्षेत्रों में 57% है। आज भी देश के 59% युवाओं को कम्प्यूटर का ज्ञान नहीं है और 64% युवाओं को इंटरनेट के इस्तेमाल की प्रक्रिया का ज्ञान नहीं है। ऐसी स्थिति में हम भले ही ई-लर्निंग की ओर बढ़ रहे हों परंतु हमारी सरकारों के समक्ष अंतिम छात्र तक मूलभूत सुविधाएं पहुंचाने की भी चुनौती है। इसके अलावा भारत में इंटरनेट की गति भी एक बड़ी समस्या है। ब्राडबैंड स्पीड का विश्लेषण करने वाली कंपनी ऊकला के अनुसार सितंबर 2019 तक भारत मोबाइल स्पीड के मामले में संपूर्ण विश्व में 128 वें स्थान पर था। साथ ही, यह भी देखा गया है कि ऑनलाइन कक्षाओं का विद्यार्थियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। उनमें मानसिक व्याधियां बढ़ रही हैं।

अतः हमारे समक्ष डिजिटल विश्व में आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनने के साथ – साथ उसके खतरों की भी गहरी समझ विकसित करने की चुनौती है। ऑनलाइन शिक्षा के कारण छात्रों की सामाजिकता बाधित हो रही है। उनमें प्रतियोगिता का अभाव पैदा हो रहा है। अतः प्राध्यापकों के समक्ष पाठ-सामग्री, प्रश्न-बैंक एवं नोट्स प्रेषित करने के अलावा छात्रों को प्रेरित, प्रभावित और उनके व्यक्तित्व निर्माण की भी चुनौती है। चूंकि शिक्षा पर सभी का समान अधिकार है अतः शिक्षकों का भी प्रशिक्षण होते रहना चाहिए। यह दायित्व योग्य, कर्तव्यनिष्ठ और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत जब तक स्वदेशी गुरुकुल शिक्षा पद्धति पर आश्रित था तब तक उसका विश्व गुरु का पद सुरक्षित था। हमारा इतिहास साक्षी है कि राम, कृष्ण, भीष्म, अर्जुन, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसी अप्रतिम विभूतियां गुरुकुल शिक्षा पद्धति की ही देन हैं। आज भी विश्व के दस सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में भारत का नई दिल्ली स्थित मुनि इंटरनेशनल स्कूल है जो विशुद्ध रूप से गुरुकुल पद्धति पर आधारित है। हमें नवीनतम प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों के साथ अपने परंपरागत ज्ञान भंडार तथा नए एवं संभावित ज्ञान की दिशाओं के साथ एक सामंजस्य स्थापित करके अपनी शिक्षा व्यवस्था को परिमार्जित करने की जरूरत है। अतः एक विवेकपूर्ण संस्थागत संरचना में भारतीय शिक्षा दृष्टि और पाश्चात्य शैक्षणिक ढंग के बीच संतुलन बनाना होगा जिससे हम न केवल युवा पीढ़ी का सर्वांगीण विकास कर सकें अपितु उन्हें विश्व की आगामी चुनौतियों के निष्पादन हेतु समर्थ बना सकें।

हमारी नई शिक्षा नीति में जड़ता को तोड़ने का प्रयास तो किया गया है लेकिन शिक्षा व्यवस्था को भारतीय पद्धति के अनुरूप जितना जोर देना चाहिए था उतना जोर नहीं दिया गया है। हमारा मानना है कि विश्व के जितने भी विकसित राष्ट्र हैं उन सबने अपनी भाषा में विकास किया है। यहां तक कि इजरायल जैसे छोटे से राष्ट्र ने हिब्रू में उत्कृष्ट तथा मौलिक शोधकार्य करके अबतक 12 नोबेल पुरस्कार प्राप्त किए हैं। संपूर्ण यूरोपीय देशों की अपनी भाषाएं हैं। रूस ने रूसी, जापान ने जापानी और चीन ने मंदारिन में विकास किया है। दूसरी ओर अफ्रीकी देशों के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण विदेशी भाषाएं हैं। चूंकि वे यूरोपीय देशों के उपनिवेश रहे हैं अतः वहां यूरोपीय देशों की भाषाएं और अरबी प्रचलन में है। इन देशों की अपनी भाषाएं न होने के कारण इनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई स्वतंत्र तथा सांस्कृतिक व्यक्तित्व नहीं निर्मित हो सका है और न ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई बड़ा हस्तक्षेप निर्धारित हो पा रहा है। यदि भारत को विश्वगुरु की स्वाभाविक हैसियत प्राप्त करनी है तो उसे यह सम्मान हिंदी एवं भारतीय भाषाओं में ही मिल सकता है।

अंत में, मैं यही कहना चाहूंगा कि भविष्य की शिक्षा में तकनीक का हस्तक्षेप बढ़ेगा और अनेक अनजाने तथा अनदेखे विषय अध्ययन के क्षेत्र में आएंगे। बावजूद इसके हमें भारतीय और पाश्चात्य, परंपरागत एवं तकनीक आधारित शिक्षा पद्धति के बीच संतुलन बनाकर अपनी शिक्षा व्यवस्था को लगातार परिष्कृत करना होगा। वर्तमान सदी इतिहास की सबसे अनिश्चित तथा चुनौतीपूर्ण परिवर्तनों की सदी है अतः भविष्य की अनजानी चुनौतियों को ध्यान में रखकर हमें स्वयं को तैयार करना होगा। आने वाले समय में केवल एक विषय के ज्ञान से हमारा भला नहीं हो सकता है अतः हमें हर विषय की अद्यतन जानकारी को शिक्षा का अविच्छिन्न अंग बनाना होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारी वर्तमान सरकार ने इस दिशा में भविष्यवादी दृष्टि के अनुरूप सुधार तथा बदलाव करती रहेगी। ऐसा करके ही हम शिक्षा के भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं। साथ ही, भविष्य की शिक्षा को समयानुरूप बना सकते हैं।

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