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दशहरा: क्षात्रतेज जागृत करने का पर्व

दशहरा: क्षात्रतेज जागृत करने का पर्व

by pallavi anwekar
in अक्टूबर २०२०, संस्कृति, सामाजिक
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दशहरे के दिन शस्त्र पूजन का एक और उद्देश्य है जनमानस में क्षात्रतेज को जागृत करना। यह क्षात्रतेज ही संकट की घडी में व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय अस्मिता को बचाने का कार्य करता है।

शारदीय नवरात्र के अंतिम दिन सम्पूर्ण देश में दशहरा धूम-धाम से मनाया जाता है। बचपन से दशहरे से सम्बंधित कई पौराणिक कथाएं तथा आख्यायिकाएं हम सभी ने सुनी हैं। भगवान श्रीराम के द्वारा रावण का वध, देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर का वध इसी दिन किया गया था। असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक दशहरे को सम्पूर्ण देश में कई विधियों से मनाया जाता है। विविध विधि-विधानों से पूजा अर्चना की जाती है। इन सभी विधि-विधानों में  सबसे महत्वपूर्ण होता है शस्त्रपूजन। भारतीय संस्कृति में विभिन्न सजीव-निर्जीव वस्तुओं की पूजा करने के पीछे का प्रमुख उद्देश्य है, उन सभी के प्रति कृतज्ञता अर्पित करना। इससे जनमानस में विनम्रता का भाव उत्पन्न होता है। दशहरे के दिन शस्त्र पूजन का एक और उद्देश्य है जनमानस में क्षात्रतेज को जागृत करना। यह क्षात्रतेज ही संकट की घडी में व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय अस्मिता को बचाने का कार्य करता है।

अगर व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो हम दिन भर में कितने शस्त्रों का उपयोग करते हैं? या कितनी वस्तुओं का शस्त्र की तरह उपयोग करते हैं? घर में रखा डंडा, रास्ते पर पड़ा पत्थर, चाकू, कैंची और आवश्यकता पड़ने पर जो कुछ भी हाथ लगे वह। कई बार अपनी रक्षा के लिए की गई चालाकी या कूटनीतिक बात भी बौद्धिक शस्त्र का काम कर जाती है। वस्तुत: अपनी रक्षा करने के उद्देश्य से हाथ में उठाई गई हर एक वस्तु या हर एक कदम उस कालखंड के लिए शस्त्र है और किस शस्त्र का उस परिस्थिति में उपयोग किया जा सकता है यह संज्ञान होना तथा उसका उपयोग किया जाना ही क्षात्रतेज है।

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के शुरू होने से पूर्व भगवद्गीता का उपदेश देकर अर्जुन के इसी क्षात्रतेज को जागृत किया था। सम्पूर्ण भारतवर्ष का सबसे उत्तम धनुर्धर, वीर पराक्रमी योद्धा जब अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्ध में शस्त्र डालकर निष्क्रिय होकर बैठ गया तब भगवान को भी अपना विराट रूप दिखाकर उसे जागृत करना पडा। पौराणिक काल से लेकर वर्तमान काल तक जब-जब समाज निष्क्रिय होता हुआ दिखाई दिया, जब-जब अत्याचारियों, दमनकारियों, नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव बढ़ता हुआ दिखाई दिया तब-तब समाज में से ही किसी ऐसे व्यक्ति का उदय हुआ जिसने पूरे समाज के क्षात्रतेज को जागृत करने का कार्य किया। आचार्य चाणक्य, रामदास स्वामी, लोकमान्य तिलक, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. हेडगेवार इत्यादि कई ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने समाज को तत्कालीन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाने की प्रेरणा दी। इन सभी लोगों ने पहले अपने अंदर के क्षात्रतेज को जागृत किया और फिर समाज के क्षात्रतेज को जागृत किया।

क्षात्रतेज भाव है और शस्त्र चलाना उस भाव से उत्पन्न क्रिया है। इन दोनों का ही नियमित अभ्यास अत्यंत आवश्यक है। जब तक क्षात्रतेज जागृत नहीं होता, हाथ में शस्त्र होने का कोई लाभ नहीं होगा और क्षात्रतेज तो जागृत है परंतु शस्त्र चलाने का अभ्यास नहीं है तो भी कोई लाभ नहीं होता।

आचार्य चाणक्य ने अपने शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य तथा तत्कालीन समाज का क्षात्रतेज जागृत कर उन्हें नंद वंश का खात्मा करने के लिए तैयार किया था। रामदास स्वामी ने भी समाज के सामान्य लोगों को जागृत किया, शिवाजी महाराज जैसा नेतृत्व दिया और हिंदूपदपादशाही की स्थापना की। डॉ. हेडगेवार ने जब यह देखा कि आंदोलनों और अन्य प्रयासों से हमें देर सवेर स्वतंत्रता तो मिल जाएगी परंतु इतने वर्षों की परतंत्रता के कारण भारतीय समाज का अध:पतन हुआ है उसके कारण स्वतंत्रता के बाद भी तेजस्वी हिंदू राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने की नितांत आवश्यकता होगी। इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। लगभग एक शतक पूर्व स्थापित इस संगठन ने नियमित रूप से हर प्रकार से समाज को जागृत करने का कार्य किया है।

ऊपर दिए गए सभी उदाहरणों में शत्रु या नकारात्मक शक्तियां दृश्य थीं। रावण, कौरवों से लेकर मुगलों और अंग्रेजों तक सभी शत्रु दिखाई देते थे। उनके विरुद्ध विभिन्न शस्त्रों से लड़ा जा सकता था। आज सामान्य भारतीय समाज का शत्रु दिखाई नहीं देता। लड़ाई युद्धभूमि पर शस्त्रों से नहीं लड़ी जाती। आज भाला, धनुष या अन्य शस्त्रों का उपयोग सामान्य रूप से नहीं होता। तो क्या अब क्षात्रतेज जागृत करने की आवश्यकता नहीं है? क्या अब किसी को शस्त्रविद्या की आवश्यकता नहीं है? जरूर है क्योंकि वास्तव में शस्त्र हमारे अंदर आत्मविश्वास और साहस उत्पन्न करते हैं। अगर हम कोई शस्त्र चलाना जानते हैं, नियुद्ध (कराटे) सीखते हैं, आत्मरक्षा के कुछ अन्य पैंतरे सीखते हैं, या शरीर को बलिष्ठ बनाने के लिए नियमित रूप से कसरत भी करते हैं तो संकट की घड़ी में हमें डर नहीं लगता। भले ही कभी हमें शस्त्र चलाने की आवश्यकता न पड़े परंतु हमें यह विश्वास होता है कि आवश्यकता पड़ने पर हम शस्त्र चला सकते हैं और अपनी रक्षा कर सकते हैं।

वर्तमान में युद्ध का स्वरूप वैचारिक अधिक हो गया है। समाज में देशविरोधी विचारधाराओं का प्रचार-प्रसार अधिक हो रहा है। बौद्धिक आतंकवाद से समाज अधिक ग्रसित है। अगर युद्ध का स्वरूप नया है तो शस्त्र भी नए होंगे और वो हैं भी। अखबार, मनोरंजन के साधन, मीडिया, सोशल मीडिया और वो सभी माध्यम जो सामान्य व्यक्ति के मन को प्रभावित करते हैं, ये सभी आज के शस्त्र हैं। इन शस्त्रों को पहले समझना आवश्यक है और फिर इनका अभ्यास करना आवश्यक है। सामान्य जनमास को अपनी बौद्धिक और तार्किक क्षमता का विकास करना होगा। हमारे मोबाइल पर आने वाले वीडियो, फोटो, संदेश पर विश्वास करने से पहले उसकी सत्यता की जांच करनी चाहिए। इनमें से हमारे निर्णयों, हमारे विचारों को बदलने के लिए प्रयत्नपूर्वक भेजे गए संदेश और फोटो कौन से हैं, यह ध्यान देना आवश्यक है। ये सभी किस तरह से हमारी सोच को प्रभावित करेंगे यह ध्यान देना भी आवश्यक है।

बुराई तथा नकारात्मक बातें बहुत जल्दी फैलती हैं यह हम पौराणिक काल से देखते आ रहे हैं। अभी भी यही सामने आ रहा है। आतंकवादियों के पक्ष में आवाज उठाने वाले लोग हों या शाहीन बाग के, नक्सलवादियों के या टुकडे-टुकडे गैंग के, इन लोगों की बातें, इनके विचार इनके लोगों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक अधिक से अधिक फैलाए जाते हैं। और एक विस्तृत समाज पर अपना प्रभाव डालते हैं। इन लोगों की विचारधारा को समझकर उनका विरोध करने वाले और उनके ही शस्त्रों से उनका जवाब देने वाले लोगों को अब तैयार होना होगा। वर्तमान का क्षात्रतेज इसी प्रकार जागृत हो जो सदसदविवेक बुद्धि से सही और गलत के बीच फर्क समझ सके और भविष्य के भारत के लिए आज के वर्तमान को तैयार कर सके।

इस नवरात्र में देवी दुर्गा से हम यही आशीष मांगे कि हमारे देश में फिर वही क्षात्रतेज जागृत हो जो भारत को विश्व के सर्वोच्च शिखर पर ले जा सके।

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