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संख्या बल बढ़ाने का पर्व : वासंतिक नवरात्र

संख्या बल बढ़ाने का पर्व : वासंतिक नवरात्र

by विजय कुमार
in अप्रैल -२०१३, संस्कृति
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नवरात्र का पर्व वर्ष में दो बार आता है। आश्विन शुक्ल 1 से प्रारम्भ होने वाले शारदीय नवरात्र की समाप्ति आ. शु. 6 के दिन होती है। इसका अगला दिन विजय दशमी भगवान राम का रावण पर विजय का पर्व है। इसी प्रकार वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल 1 को होकर श्री राम के जन्म दिवस (नवमी) को समापन होता है। दोनों का सम्बन्ध एक ओर श्री राम से तो दूसरी ओर मां दुर्गा से है। इसके साथ-साथ शारदीय नवरात्र जहां हमें शस्त्र-शक्ति के संचय के लिए, तो वासंतिक नवरात्र हमें संख्या बल बढ़ाने को प्रेरित करता है।
नवरात्र के पीछे की धार्मिक कहानी चाहे कुछ भी हो, पर आज उसे दूसरे सन्दर्भों में समझने की आवश्यकता है। चैत्र शुक्ल 1 से भारतीय परम्परा के अधिकांश नव वर्षों का प्रारम्भ होता है। यद्यपि भारत इतनी विविधताओं वाला देश है कि यहां उत्तर-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम में पर्वों की तिथियों में भेद हो जाना स्वाभाविक है। इसके बावजूद दोनों नवरात्रों में मां दुर्गा की विशेष पूजा सभी हिंदू करते हैं। इस समय मौसम भी बदलता है। अत: व्रत या उपवास द्वारा पेट को कुछ विश्राम देना स्वास्थ्य के लिए भी ठीक रहता है। इसलिए अपने शरीर एवं स्वास्थ्य के अनुसार प्राय: सभी लोग उपवास करते ही हैं। हां, व्रत के नाम पर जो लोग दिन भर पेट में गरिष्ठ पदार्थ डालते रहते हैं, उनके पाखण्ड की बात दूसरी है।

पर केवल व्यक्तिगत रूप से कुछ नियम या व्रतों का पालन कर लेने से ही नवरात्रों की भावना पूरी नहीं हो जाती। वासंतिक नवरात्र को मनाते समय हमें भगवान राम के जीवन के दो प्रसंगों का स्मरण करना होगा। पहली घटना है अहिल्या के उद्धार की। अहिल्या प्रकरण में दोषी इन्द्र ही था; पर तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज और उनके पति ऋषि गौतम ने उन्हें निर्वासन का दण्ड दिया। अहिल्या घने जंगल में कुटिया बनाकर, कंदमूल फल खाकर, पशु-पक्षियों के बीच रहने लगी। उससे न कोई मिलने आता था और न ही वह कहीं जाती थी। अहिल्या के पत्थर होने का यही अर्थ है।

पर मुनि विश्वामित्र के साथ उनके यज्ञ की रक्षा के लिए जाते समय श्री राम को जब इस घटना का पता लगा, तो वे अहिल्या के आश्रम में गये और उन्हें वहां से लाकर समाज में उनका सम्मानजनक स्थान फिर से दिलाया। मानो पत्थर बनी नारी को फिर उसके मूल रूप में जीवित कर दिया। श्री राम चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के बड़े पुत्र थे, अत: उनके द्वारा मुक्ति दी गयी थी। वे स्वयं भी पत्नी-वियोग से पीड़ित थे; पर सामाजिक कुरीतियों से टकराने का साहस उनमें नहीं था; पर जब श्री राम ने अहिल्या का उद्धार कर दिया, तो उन्होंने भी उसे स्वीकार कर लिया।

श्री राम के जीवन की दूसरी घटना सीता की खोज के समय की है। उस दौरान वे जब दण्डकारण्य में स्थित शबरी के आश्रम में पहुंचे, तो वह इतनी भाव-विभोर हो गयी कि चख-चखकर मीठे बेर उन्हें देने लगी। श्री राम भी अपने भक्त के प्रेम में डूबकर बेर खाने लगे। फिर शबरी ने ही उन्हें सुग्रीव से मित्रता करने को कहा। इसी से आगे चलकर सीता की खोज और फिर रावण का वध सम्भव हुआ।

ये दोनों प्रसंग हमें बताते हैं कि श्री राम का दृष्टिकोण दुर्बल, असहाय, निर्धन और अन्याय से पीड़ितों के प्रति क्या था? स्पष्टत: वे इनके प्रति उदारता और सहृदयता रखते थे। उन्होंने जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र आदि का विचार किये बिना सबको गले लगाया। ये प्रसंग हमें आज भी कुछ संकेत देते हैं। भारत में आज करोड़ों लोग हिंदू समाज से दूर खड़े दिखायी देते हैं। उनमें से बड़ी संख्या उनकी है, जिनकी पूर्वजों ने मुस्लिम आक्रमण के समय प्राण रक्षा के लिए धर्म बदल लिया था। ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो छुआछूत और ऊंच-नीच जैसी कुरीति से नाराज होकर उधर चले गये। अंग्रेजों के अत्याचार और उनके द्वारा दिये गए धन, शिक्षा या चिकित्सा के बदले लाखों लोग ईसाई भी बने हैं। आज इन विदेशी मजहबों को मानने वालों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि देश पर फिर से विभाजन के बादल मंडराने लगे हैं।
इस समस्या का समाधान यही है कि हिंदू समाज से अब कोई व्यक्ति दूसरी ओर न जाये। साथ ही जो लोग चले गये हैं, उन्हें वापस लायें। पानी की टंकी को खाली होने से रोकने के लिए उसके रिसाव को रोकने के साथ-साथ उसमें ताजा जल आता रहे, यह प्रबन्ध भी करना होता है। इसलिए वासंतिक नवरात्र में हमें अपने आस-पास के सभी निर्धन, निर्बल, हरिजन, दलित, वंचित आदि वर्ग के लोगों को सपरिवार अपने घर पर भोजन पर आमन्त्रित करना चाहिए। उन्हें साथ बैठाकर भोजन कराने और घर के बुजुर्ग द्वारा उन्हें वस्त्रादि भेंट देने से सबको ऐसा लगेगा कि जाति, पंथ और आर्थिक स्थिति भिन्न होने के बाद भी सब एक विशाल हिंदू परिवार के अंग हैं।

दूसरी ओर जो लोग विधर्मी बन गये हैं, उनसे सम्पर्क कर बड़े स्तर पर परावर्तन के समारोह आयोजित किये जाएं। जैन समाज में प्रचलित क्षमावाणी पर्व इस दृष्टि से बहुत अनुकरणीय है। हिंदुओं के बड़े धर्माचार्यों तथा समाज के प्रमुखों को ऐसे लोगों से अपनी या अपने पूर्वजों की भूलों के लिए क्षमा मांगते हुए उन्हें हिंदू धर्म में लौट आने का आग्रह करना चाहिए। उन्हें यह आश्वासन भी देना होगा कि उन्हें उसी जाति,, वंश तथा गोत्र में सम्मानजनक स्थान दिया जाएगा, जिसमें वे पहले थे। उनके साथ पहले जैसे रोटी-बेटी के सम्बन्ध भी स्थापित किये जाएंगे। यदि गांव-गांव में इस प्रकार के क्षमावाणी पर्व और घर वापसी समारोह आयोजित किये जाएं, तो आगामी कुछ वर्षों में भारत का चित्र बदल सकता है।
वर्ष 2006 में गुजरात के डांग क्षेत्र में आयोजित ‘शबरी कुंभ’ से यह कार्य प्रारम्भ हो चुका है। उस वनवासी क्षेत्र में ईसाइयों का प्रभाव बहुत अधिक है। स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने वहां करबद्ध होकर सभी लोगों से कहा कि यदि मेरे पूर्वजों ने कोई भूल की है, तो मैं उसके लिए क्षमा याचना करता हूं। मोरारी बापू ने तो ‘‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं…’’ वाला फिल्मी गीत गाकर परावर्तन की मार्मिक अपील की। फरवरी, 2011 का ‘नर्मदा कुंभ’ भी इस अभियान की अगली कड़ी के रूप में सम्पन्न हो चुका है। अब जबकि साधु, संत तथा कथावाचकों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है, तो फिर सभी स्तर पर परावर्तन समारोह आयोजित होने ही चाहिए। यह काम सरल नहीं है। आज यदि प्रयास प्रारम्भ करेंगे, तो पांच-सात साल में जाकर परिणाम निकलेगा।

कौन नहीं जानता कि भारत में बढ़ रहे आतंकवाद तथा अशान्ति का मुख्य कारण भारत में इन विदेशी मजहबों के अनुयायियों की संख्या बढ़ना ही है। इससे निपटने के लिए जहां एक ओर हिंदुओं को संगठित होना होगा, वहीं दूसरी ओर इन्हें समझाकर, गले लगाकर फिर से वापस हिंदू धर्म में लाया जाये। होली के अवसर पर सब परस्पर गले मिलते ही हैं। इसी की पूर्णाहुति वासंतिक नवरात्रों के परावर्तन समारोहों में दिखायी देनी चाहिए।

श्री राम द्वारा अहिल्या के उद्धार एवं शबरी के झूठे बेर खाने के प्रसंग का स्मरण रखते हुए गांव के मन्दिरों में बड़े-बड़े सह भोज कार्यक्रम हों। महिला हो या पुरुष, बच्चा हो या बूढ़ा, सब उसमें आयें। समाज के निर्धन, निर्बल और दलित वर्ग के लोगों को आग्रहपूर्वक बुलाया जाये। अच्छा हो, वे ही भोजन बनायें और सबको वितरण करें। इससे समरसता की जो गंगा बहेगी, वह सब कलुष बहा देगी। तब ही हम श्री राम के सच्चे अनुयायी कहलायेंगे। यह कौन नहीं जानता कि भारत के मन्दिर और तीर्थ ही नहीं, तो भारतीय संविधान और लोकतंत्र भी तब तक ही सुरक्षित है, जब तक यहां हिंदू बहुमत में हैं। 14-15 प्रतिशत विधर्मियों के कारण ही देश का वातावरण कितना विषाक्त हो गया है। इसलिए वासंतिक नवरात्र में परावर्तन समारोहों का आयोजन कर भारत को सुरक्षित रखने का प्रयास बड़े स्तर पर होना आवश्यक है।
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