इस्लामिक कट्टरपंथ विश्व-मानवता के लिए ख़तरा

आज सचमुच इसकी महती आवश्यकता है कि इस्लाम को मानने वाले अमनपसंद लोग आगे आएं और खुलकर कहें कि सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं, अपने-अपने विश्वासों के साथ जीने की सबको आज़ादी है और अल्लाह के नाम पर किया जाने वाला खून-ख़राबा अधार्मिक है, अपवित्र है।

आज पूरी दुनिया युद्ध के मोड़ पर खड़ी है। फ्रांस आतंकवाद की आग में जल रहा है। वहां हो रही आतंकवादी वारदातों और उनके विरुद्ध फ्रांसीसी सरकार की कार्रवाई एवं रुख़ को लेकर इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें पूरी दुनिया में अमन और भाईचारे का माहौल बिगाड़ने का काम कर रही हैं। भारत में भी भोपाल, बरेली, अलीगढ़, मुंबई, दिल्ली आदि में मज़हबी प्रदर्शन हुए हैं। शहर-शहर, गली-गली ऐसे प्रदर्शनों की बाढ़ अत्यंत चिंताजनक है। होना यह चाहिए था कि इस्लाम के नाम पर फ्रांस, ऑस्ट्रिया या दुनिया के हर कोने में हो रहे आतंकवादी वारदातों के विरुद्ध इस्लाम के अनुयायियों के बीच से ही आवाज़ उठनी चाहिए थी।

उन्हें मज़हब के नाम पर हो रहे ख़ून-खराबे का खंडन करना चाहिए था। उसे सच्चा इस्लाम न मानकर कुछ विकृत मानसिकता का प्रदर्शन माना-बतलाया जाना चाहिए था। पर हो उलटा रहा है। गला रेतने वालों के समर्थन में जुलुस-जलसे आयोजित किए जा रहे हैं। सैमुअल मैक्रो की तस्वीरों पर पांव रखकर कट्टरपंथी इस्लामिक ताक़तें अपनी घृणा का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही हैं। मलेशिया जैसे देशों के पूर्व प्रधानमंत्री सरेआम उसके समर्थन में बेहद शर्मनाक बयान ज़ारी कर रहे हैं। तुर्की, पाकिस्तान से लेकर तमाम इस्लामिक मुल्कों में फ्रांस के विरोध को लेकर एक होड़-सी मची है। इन आतंकी घटनाओं को मिल रहे व्यापक समर्थन का ही परिणाम है कि आतंकवादियों के हौसले बुलंद हैं। आज लगभग पूरा यूरोप ही आतंकवाद की चपेट में आता दिख रहा है। फ्रांस में हो रहे आतंकवादी हमले अभी थमे भी नहीं थे कि कनाडा से भी ऐसे हमलों की पुष्टि हुई और ऑस्ट्रिया के वियना शहर में भी आतंकवादियों ने छह जगहों पर हमले बोल दिए, जिसमें चार की मौत और चौदह नागरिक घायल हो गए। ऐसे हमले संपूर्ण विश्व में प्रायः होते रहते हैं, हमले की प्रकृति एवं प्रभाव भले भिन्न-भिन्न हो, पर हर हमले के पीछे इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें ही अलग-अलग नामों से संलिप्त एवं सक्रिय होती हैं। भारत तो ऐसे हमलों एवं उनके घावों को बीते कई दशकों से झेल रहा है।

अब समय आ गया है कि इसका सही-सही मूल्यांकन हो कि इन कट्टरपंथी ताक़तों की जड़ में कौन-सी विचारधारा या मानसिकता काम कर रही है। वह कौन-सी विचारधारा है जो चर्च में प्रार्थना कर रही 70 साल की बुज़ुर्ग महिला को अपना दुश्मन मानती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो एक अध्यापक को उसके कर्त्तव्य-पालन के लिए मौत के घाट उतार देती है और उसका समर्थन भी करती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो विद्यालयों-पुस्तकालयों-प्रार्थनाघरों पर हमला करने में बहादुरी देखती है और हज़ारों निर्दोषों का ख़ून बहाने वालों पर गर्व करती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो दूर देश में हुए किसी घटना-निर्णय के विरोध में अपने देश के अल्पसंख्यकों के घर जलाने, उन पर हिंसक हमले करने में सुख या संतोष पाती हैं? फ्रांस में हुई घटना के विरोध में बांग्लादेश के हिंदुओं के घर जलाने या म्यांमार में मुसलमानों के कथित उत्पीड़न के विरोध में मुंबई के आजाद मैदान स्थित अमर जवान ज्योति स्मारक में व्यापक पैमाने पर हिंसा एवं तोड़-फोड़ को कौन-सी विचारधारा खाद-पानी देती है? दुनिया के किसी कोने में मुसलमानों के साथ हुई किसी मामूली या बड़ी घटना को लेकर अपने ही देश के ग़ैर इस्लामिक बंधु-बांधवों, पास-पड़ोस का अंधा विरोध, अपनी ही सरकार एवं स्थानीय समाज के विरुद्ध हिंसक प्रदर्शन, अराजक रैलियां, उत्तेजक नारे, मज़हबी मजलिसें समझ से परे हैं? ऐसी मानसिकता को किस तर्क से सही ठहराया जा सकता है? सवाल यह भी है कि क्या ऐसा यदा-कदा होता है या पहली बार हो रहा है?

पंथ-विशेष की चली आ रही मान्यताओं, विश्वासों, रिवाजों के विरुद्ध कुछ बोले जाने पर सिर काट लेने की जिद्द और सनक सभ्य समाज में कभी नहीं स्वीकार की जा सकती। आधुनिक समाज संवाद और सहमति के रास्ते पर चलता है। समय के साथ तालमेल बिठाता है। किसी काल विशेष में लिखे गए ग्रंथों, दिए गए उपदेशों, अपनाए गए तौर-तरीकों को आधार बनाकर तर्क या सत्य का गला नहीं घोंटता। चांद और मंगल पर पहुंचते क़दमों के बीच कट्टरता की ऐसी ज़िद व जुनून प्रतिगामी एवं क़बीलाई मानसिकता की परिचायक है। इस्लाम का कट्टरपंथी धड़ा आज भी इस क़बीलाई एवं मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर आने को तैयार नहीं। नतीजतन वह विश्व मानवता के लिए एक ख़तरा बनकर खड़ा है। आस्था के नाम पर यह उचित नहीं कि जो-जो हमसे सहमत नहीं हैं, उन्हें दुनिया में रहने व जीने का अधिकार ही नहीं। यह घोर अलोकतांत्रिक एवं अवैज्ञानिक सोच होगी। अराजकता का व्याकरण और मूर्खताओं का तर्कशास्त्र गढ़ने में माहिर लोग भी इसकी पैरवी नहीं कर सकते।

सोचने वाली बात है कि ऐसी मानसिकता का उपचार क्या है? याद रखिए बीमारी के मूल का पता लगाए बिना केवल पत्तों-फूलों पर दवा छिड़कने से उसका उपचार कदापि संभव नहीं। शुतुरमुर्गी सोच दृष्टि-पथ से सत्य को कुछ पल के लिए ओझल भले कर दे पर समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं दे सकती। आज नहीं तो कल सभ्यताओं के संघर्ष पर खुलकर विचार करना ही होगा। इस्लाम को अमन और भाईचारे का पैगाम बता-बताकर मज़हब के नाम पर किए जा रहे खून-खराबे पर हम कब तक आवरण डाले रखेंगें? दीन और ईमान के नाम पर देश-दुनिया में तमाम आतंकवादी वारदातों को अंजाम दिया जाता है, सैकड़ों निर्दोष लोग मौत के घाट उतार दिए जाते हैं और मीडिया एवं व्यवस्था उसे कुछ सिरफिरे चरमपंथियों की करतूतें बता अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। क्या यह सवाल पूछा नहीं जाना चाहिए कि आख़िर आतंकवाद या इस्लामिक कट्टरता को वैचारिक पोषण कहां से मिलता है? क्यों सभी आतंकवादी समूहों का संबंध अंततः इस्लाम से ही जाकर जुड़ता है? क्यों अपने उद्भव काल से ही इस्लाम ने अपनी कट्टर और विस्तारवादी नीति के तहत दुनिया की तमाम सभ्यताओं और जीवन-पद्धत्तियों को नेस्तनाबूद किया? क्यों ’इस्लाम ख़तरे में है’ जैसे नारों को सुनते ही पूरा का पूरा समूह भीड़ की तरह व्यवहार करने पर उतारू हो उठता है, क्यों वह ऐसे धर्मांध-उत्तेजक नारों में मुक्ति-गान के आनंद पाता है, दूसरों के आचार-विचार, रीति-नीति पर प्रायः वह क्यों हमलावर रहता है, क्यों वह अल्पसंख्यक रहने पर संविधान की दुहाई देता है और बहुसंख्यक होते ही शरीयत का क़ानून दूसरों पर जबरन थोपता है, क्यों वह संख्या में कम होने पर पहचान के संकट से जूझता रहता है और अधिक होने पर शासक की मनोवृत्ति और अहंकार पाल बैठता है, क्यों किसी अन्य मतावलंबियों के अभाव में वह आपस में ही लड़ता-भिड़ता रहता है, क्यों वह स्वयं को अखिल मानवता से जोड़कर नहीं देख पाता? क्यों कला-सिनेमा-साहित्य पर पहरे बिठाने में उसे अपना भविष्य दिखता है? क्यों किसी की कलाभिव्यक्ति से उसकी आस्था और विश्वास की बुनियाद हिलने लगती है? क्या किसी मज़हब की बुनियाद इतनी कमज़ोर होती है या होनी चाहिए? क्यों कलम और कंप्यूटर चलाने वाला नौजवान हाथ भी मज़हबी कट्टरपंथ का सहज उपकरण बन अचानक बम-बंदूक उठाकर निर्दोषों-निहत्थों का लहू बहाता है? क्यों निरीहों-निर्दोषों-निहत्थों का ख़ून बहाने के बावजूद उनमें किसी प्रकार की ग्लानि या प्रायश्चित की भावना नहीं जगती? जबकि हिंदू-इतिहास में हमें ऐसे दृष्टांत मिलते हैं। कलिंग-युद्ध में हताहत योद्धाओं के लाशों का अंबार देख सम्राट अशोक का हृदय पसीज गया था और उन्होंने शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा कर ली। कहते हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर को जीत के पश्चात ग्लानि-बोध ने आ घेरा कि राज्य के लिए दोनों पक्ष के कितने सारे सैनिक अकारण मारे गए। पर क्या किसी इस्लामिक आततायी में ऐसा कोई ग्लानि या प्रायश्चित-बोध पैदा हुआ? इस्लाम क्यों पूरी दुनिया को एक ही ग्रंथ, एक ही पंथ, एक ही प्रतीक, एक ही पैगंबर तले देखना चाहता है? क्या पूरी दुनिया को एक ही रंग में देखने की उसकी सोच स्वस्थ, सुंदर व संतुलित कही जा सकती है? कम-से-कम इक्कीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग में तो इन सवालों पर खुलकर विमर्श होना ही चाहिए! कट्टरता को पोषण देने वाले सभी विचारों-शास्त्रों-धर्मग्रन्थों की युगीन व्याख्या होनी चाहिए, चाहे वह कितना भी महान, पवित्र और सार्वकालिक क्यों न मानी-समझी-बतलाई जाय। चाहे वह किसी भी पैगंबर-प्रवर्त्तक-मुल्ले-मौलवियों के द्वारा क्यों न प्रचलित किए जाएं? किसी काल-विशेष में लिखी और कही गई बातों पर गंभीर मंथन कर अवैज्ञानिक, अतार्किक और दूसरों के अस्तित्व को नकारने वाली बातों-सूत्रों- आयतों- विचारों- विश्वासों- मान्यताओं- रिवाज़ों को कालबाह्य घोषित करना चाहिए। यही समय की मांग है और यही अखिल मानवता के लिए भी कल्याणकारी होगा। अन्यथा रोज नए-नए लादेन-अज़हर-बग़दादी जैसे आतंकी पैदा होते रहेंगे और मानवता को लहूलुहान करते रहेंगे।

इस्लाम को मानने वालों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्मांधों का कोई धर्म नहीं होता, वे किसी आसमानी-काल्पनिक ख्वाबों में इस कदर अंधे और मदमत्त हो चुके होते हैं कि उनके लिए अपने-पराये का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उनके लिए हरे और लाल रंग में कोई फ़र्क नहीं। क्या यह सत्य नहीं कि इस्लामिक कट्टरता के सर्वाधिक शिकार मुसलमान ही हुए हैं? और इस मज़हबी कट्टरता का कोई संबंध शिक्षा या समृद्धि के स्तर-स्थिति से नहीं। मज़हबी कट्टरता एक प्रकृति है, विकृति है, कुछ लोगों या समूहों के लिए यह एक संस्कृति है और इसका उपचार मूलगामी सुधार के बिना संभव ही नहीं। क्यों अमेरिका और यूरोप जैसे समृद्ध देशों के नौजवान आइसिस या अन्य कट्टरपंथी ताक़तों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं? वहां तो अशिक्षा और ग़रीबी अपेक्षाकृत बहुत कम है। अशिक्षा और बेरोजगारी को इनकी वज़ह मानने वाले बुद्धिवादियों को यह याद रहे कि ज़्यादातर आतंकवादी संगठनों के प्रमुख खूब पढ़े-लिखे व्यक्ति रहे हैं। पेट्रो-डॉलर को इन सबके पीछे प्रमुख वज़ह मानने वालों को भी याद रहे कि जब अरब-देशों के लोगों को अपनी धरती के नीचे छिपे अकूत तेल-संपदा का अता-पता भी नहीं था, तब भी वहां मज़हब के नाम पर कम लहू नहीं बहाया गया था।

आज सचमुच इसकी महती आवश्यकता है कि इस्लाम को मानने वाले अमनपसंद लोग आगे आएं और खुलकर कहें कि सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं, अपने-अपने विश्वासों के साथ जीने की सबको आज़ादी है और अल्लाह के नाम पर किया जाने वाला खून-ख़राबा अधार्मिक है, अपवित्र है। और मज़हब के नाम पर अब तक इतना लहू बहाया जा चुका है कि कहने मात्र से शायद ही काम चले, बल्कि इसके लिए उन्हें सक्रिय और सामूहिक रूप से काम करना पड़ेगा। इस्लाम के भीतर सुधारात्मक आंदोलन चलाने पड़ेंगें। वहाबी इस्लाम पर अविलंब अंकुश लगाना होगा। मदरसे और मस्ज़िदों की तक़रीरों में अखिल मानवता एवं सर्वधर्म समभाव के संदेश देने पड़ेगें। कदाचित यह प्रयास वैश्विक युद्ध एवं मनुष्यता पर आसन्न संकट को टालने में सहायक सिद्ध हो और मज़हब के नाम पर किए जा रहे नृशंस एवं भयावह नरसंहार के लिए प्रायश्चित की ठोस और ईमानदार पहल भी! यदि वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें यह खुलकर स्वीकार करना चाहिए कि आधुनिकता और प्रगति के इस वर्तमान दौर में भी उनकी सामुदायिक चेतना मध्ययुगीन छठी शताब्दी में ही अटकी-ठहरी है। वे स्मृतियों के शव को चिपकाए उन खोहों और कंदराओं वाले युग से तिल भर भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं।

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