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पौराणिक और ऐतिहासिक उत्तर प्रदेश

पौराणिक और ऐतिहासिक उत्तर प्रदेश

by मार्कण्डेय त्रिपाठी
in संस्कृति, सामाजिक, सितम्बर २०१३
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जिसकी गौरवमय झांकी से,
शोभित है इतिहास-पुराण ।
है पावन उत्तर प्रदेश की धरती,
जो करती भव-त्राण ॥
राम-कृष्ण की धरती है यह,
ऋषि‡मनीषियों की वाणी।
भरी हुई है जाने कितनी,
इसमें प्रतिभा कल्याणी ॥
काशी, मथुरा और अयोध्या,
शोभित तीरथराज प्रयाग ।
तुलसी, सूर, कबीर आदि की,
रचनाओं में बजते राग ॥

पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश की गौरवपूर्ण पहचान रही है। अधिकांश पुराणों की रचनाएं उत्तर प्रदेश की आध्यात्मिक और ऊर्जास्वित पावन भूमि पर ही हुई हैं। पुराण का शाब्दिक अर्थ है प्राचीन। अत: पुराण साहित्य के अन्तर्गत वह समस्त प्राचीन साहित्य आ जाता है, जिसमें प्राचीन भारत के इतिहास, धर्म, आख्यान, विज्ञान आदि का वर्णन हो। कौटिल्य ने इतिहास के अन्तर्गत पुराण और इतिवृत्त दोनों को ही रखा है। ‘अष्टादश पुराणानां कर्त्ता सत्यवती सुत:’, अर्थात अट्ठारहों पुराणों के रचयिता सत्यवती पुत्र व्यास जी हैं। ‘छान्दोग्योपनिषद’ में इतिहास और पुराण को पंचम वेद कहा गया है । हमारा संस्कृतवाङ्गमय वैदिक और लौकिक, दो रूपों में विभाजित है। वैदिक संस्कृत के अन्तर्गत संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद और वेदांङ्ग समाहित हैं, जबकि लौकिक संस्कृत के अन्तर्गत काव्य, नाटक, कथा, अलंकार और वैज्ञानिक साहित्य आते हैं। रामायण, महाभारत और पुराण दोनों के मिलन‡बिन्दु हैं। पुराणों की संख्या अट्ठारह है जो ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण, भागवत पुराण, नारद पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, लिंग पुराण, वराह पुराण, स्कन्द पुराण, वामन पुराण, कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण के रूप में जाने जाते हैं। साधारणतया इन पुराणों के विषय सर्ग, सृष्टि, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित हैं । भागवत पुराण के विषय में कहा जाता है कि ‘विद्वता भागवते परीक्षा’ अर्थात विद्वानों की परीक्षा भागवत पुराण में होती है। इसमें 12 स्कन्ध, 335 अध्याय, 18000 श्लोक और 5,76000 अक्षर हैं। सारे पुराणों में परोपकार की महिमा बतायी गई है।

अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥

मानव‡जीवन बड़ा ही दुर्लभ है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात जीव को इसकी प्राप्ति होती है।

स्थावर विशतिर्लक्ष जलजं नवलक्षकम् ।
कृमिश्च रुद्रलक्षं चं, दशलक्षं च पक्षिणाम् ॥
त्रिंशल्लक्ष पशूनामच, चतुर्लक्षं च वानरा:,
ततो मनुष्यता प्राप्ति: तत: कर्माणि साधयेत॥

अर्थात संसार में 20 लाख वृक्ष, 9 लाख जलजे, 11 लाख कीड़े, 10 लाख पक्षी, 30 लाख पशु और 4 लाख वानर हैं। इसके बाद मनुष्य योनि है।
उत्तर‡प्रदेश की धरती मोक्षदायिनी गंगा की पावन धारा से सुशोभित है, जिसके विषय में कहा जाता है कि सैकड़ों योजन दूर रहकर भी गंगा‡गंगा बोलने वालों के सभी पाप दूर हो जाते हैं और वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है।

गंगा गंगेति यो ब्रूयात्
योजनाना शतैरपि ।
मुंच्यते सर्वपापेभ्यो
विष्णुलोकं स गच्छति ॥

स्कन्द पुराण में कहा गया है कि जब माघ मास में सूर्य मकर राशि में होता है और गुरु जब मेष राशि में आ जाते हैं तो तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ योग उपस्थित होता है।

माघ मास गतै जीव, मकरे चन्द्रभास्करौ ।
अमावस्या तदा योग कुम्भाख्यस्तीर्थ नायके ॥

अयोध्या, मथुरा, काशी और तीर्थराज प्रयाग मोक्षदायिनी नगरियों के रूप में आदर की पात्र हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और योगेश्वर कृष्ण ने उत्तर प्रदेश की धरती पर अवतार लेकर धर्म पिपासु आत्माओं को जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य का पाठ सिखाया। पण्डितों की नगरी काशी में रहकर पण्डितों का उपहास करने वाला कबीर, जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भाषा का डिक्टेटर कहा है, यहीं का था। रामचरित मानस जैसी अमर‡कृति की रचना करने वाले तुलसीदास की विनम्रता ‘कवि न होउ, नहिं कुसल प्रबीनू। सबहिं कला सब विद्या हीनू॥’ भला और कहां देखने को मिलेगी। आज तो हम अपनी रचना से अधिक अपने ‘बायो डाटा’ पर ध्यान देने लगे हैं। कृष्ण की बाल‡लीला का जितना मनोरम वर्णन सूरदास ने नेत्रहीन होकर किया है, उतना आजकल कोई नेत्रधारी कवि भी नहीं कर सका है। भक्ति आन्दोलन का उदय भले ही दक्षिण में हुआ पर उत्तर में रामानंद जैसी महान आत्माओं के प्रभाव से काफी पल्लवित और पुष्पित हुआ। आज उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखण्ड प्रान्त के बद्रीनाथ और केदारनाथ चारों धाम में प्रमुख हैं। पौराणिक दृष्टि से नैमिषारण्य और चित्रकूट को भला कैसे भुलाया जा सकता है। आज भी वहां पौराणिक कथा की पावन पयस्विनी प्रवाहित होती है। नाथ पंथियों की विचारधारा गोरखनाथ के रूप यहीं प्रवाहित रही। शास्त्रकार ने कहा है कि ‘तारयितुं समर्थ: इति तीर्थ:’ अर्थात जो तार देने, पार कर देने में समर्थ हो, वह तीर्थ कहलाता है।

तीर्थ दो प्रकार के हैं‡ स्थावर और जंगम। हमारे देवालय और पावन स्थली स्थावर तीर्थ हैं जबकि साधु‡महात्मा जंगम तीर्थ हैं, जिनका दर्शन मनुष्यों की पाप‡राशि को जला देने के लिए अग्नि के समान है। हमारा दर्शनशास्त्रीय चिन्तन मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित है‡ ज्ञान मीमांसा और तत्व मीमांसा। ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत ज्ञान क्यों है, उसकी सीमा क्या है तथा उसकी प्रमाणिकता क्या है? का समावेश है, जबकि तत्त्व मीमांसा के अन्तर्गत जीव, जगत और ईश्वर का चिन्तन किया जाता है। हमारे ऋषि‡मुनि और मनीषियों ने धर्म को जीवन का अनुशासन बताते हुए उसी के अनुसार जीवन‡यापन करना सिखाया है। हमारी धार्मिक मान्यताएं न तो अवैज्ञानिक हैं और न ही काल्पनिक वे हमारी श्रद्धा और विश्वास पर टिकी हैं। उनकी प्रवृत्ति हृदय से होती है। सर्वप्रथम गणेश की पूजा क्यों होती है। उन्हें मोदक क्यों चढ़ाया जाता है। हनुमान जी को सिन्दूर क्यों चढ़ाते हैं, गंगा को विशेष नदी का दर्जा क्यों प्राप्त है, विवाह पवित्र संस्कार क्यों है, गुरु को महत्त्व क्यों दिया जाता है, तुलसी का पौधा लगाना शुभ क्यों है, पीपल वृक्ष की पूजा क्यों की जाती है, सत्यनारायण की पूजा का महत्त्व क्यों है, माला में 109 दाने ही क्यों होते हैं, गौ‡सेवा महत्त्वपूर्ण क्यों है, अतिथि का विशेष महत्त्व क्यों है तथा माता‡पिता की सेवा सबसे बड़ा धर्म क्यों है; जैसी अनेक धार्मिक मान्यताओं की पुष्टि हमारे पौराणिक ग्रन्थों में वैज्ञानिक आधार पर की गयी है। उत्तर प्रदेश वासियों के रीति‡रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं में पुराणों की छाप स्पष्ट रूप से दिखायी देती है। पुरातन काल में उत्तर प्रदेश को मध्य देश के रूप में जाना जाता था। भारत का केन्द्रीयकरण चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ। वर्तमान उत्तर प्रदेश का पूरा क्षेत्र चन्द्रगुप्त मौर्य, उसके पुत्र बिन्दुसार और पोते अशोक के शासन काल में सुख‡शान्ति का अनुभव करता रहा। अशोक की मृत्यु होते ही मगध राज्य का ह्रास होने लगा। इसी बीच शुंग वंश के स्थान पर कण्व वंश और बाद में कुषाण राजवंश की स्थापना हुई । ईसा पूर्व चौथी सदी में गुप्त वंश का प्रादुर्भाव होने पर पुन: राजनीतिक एकता स्थापित हुई । आठवीं शती के प्रथम चतुर्थांश में यशोवर्मन ने कन्नौज में अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। 1206 में कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और गुलाम वंश की स्थापना हुई।

गुलाम वंश के राजाओं तथा उसके बाद खिलजियों तथा तुगलक वंश के बादशाहों ने धीरे-धीरे दिल्ली बादशाहत की सीमा बढ़ायी। वर्तमान उत्तर प्रदेश का क्षेत्र लगभग प्रारम्भ से ही इन लोगों के साम्राज्य का अंग रहा। तैमूर के आक्रमण ने तुगलक वंश को समाप्त कर दिया। 1526 में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में लोधियों के अन्तिम बादशाह इब्राहिम लोदी को परास्त कर आगरा पर अधिकार कर लिया। इस तरह बाबर ने मुगल वंश की नींव रखी। 1857 में राष्ट्र की आजादी में उत्तर प्रदेश के लोगों की शानदार भूमिका रही। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हजरत महल, बख्त खां, नाना साहब, मौलवी अहमदउल्ला शाह, राणा बेनी माधव सिंह, अजीमउल्ला खां तथा नुसरत जंग, राम बख्श सिंह, शम्भू प्रसाद शुक्ल, बाबा रामचरण लालता प्रताप सिंह, सुप्रसिद्ध विद्रोही श्री मंगल पांडे जी के सगे भतीजे बुझावन पांडे और राजा बलभद्र सिंह जैसे न जाने कितनी विभूतियां देश की आजादी की बलिवेदी पर स्वाहा हो गयीं। इस परम वैभवशाली राष्ट्र के लिए कटिबद्ध होने की प्रतिज्ञा लेने वाले सपूतों से भारत की धरती सदा से ही अलंकृत रही है।

गोरखपुर के अमर शहीद बंधू सिंह की फांसी पर एक बिरहा भी प्रसिद्ध है‡

‘सात बार टूटल जब फांसी के रसरिया,
गोरवन के अकिल गईल चकराय।
असमय परल माई गाढ़े में परनवा,
अपने ही गोदिया में माई लेतू तू सुलाय।
बंद भईल बोली, रुकि गइली संसिया,
नीर गोदी में बहावे लेके बेटा के लशिया।

युगों की प्राचीन परम्परा के इस प्रदेश में बहुत से ऐसे स्थल हैं जो तीर्थ होने के साथ ही साथ ऐतिहासिक व पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। कनखल, सारनाथ, सोंरो, देवबंद, कौशाम्बी, विन्ध्याचल, देवीपाटन, मगहर, श्रावस्ती, वृंदावन, गोवर्धन, बरसाना, चित्रकूट, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ और देवाशेरीफ उनमें प्रसिद्ध हैं ।

लेकिन अफसोस इस बात का है कि पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण हमें अपनी समृद्ध परम्पराओं से अनभिज्ञ बनाता जा रहा है। किसी ने लिखा है‡

एम. ए. पर्यन्त शिक्षायां,
इतिहासे प्रचक्षण:।
छात्रा न वक्तुं शक्नोति,
भीष्मो कस्य सुतोभवत्॥
आंग्लानां च को राजा,
कातिबार व्यतिर्पयत्।
एतद् सर्व विजानाति,
न जानाति स्वकं गृहम्॥

अर्थात एम. ए. तक की शिक्षा के बाद भी आज इतिहास का विद्यार्थी यह नहीं बता पाता कि भीष्म किसके पुत्र थे, उनको इस बात की जानकारी अच्छी तरह है कि अंग्रेजों में कब, कौन गद्दी पर बैठा पर अपने घर क्या हो रहा है, इस बात से वे अनभिज्ञ हैं।
इस प्रकार पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश की इस देश में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। देश को सबसे अधिक प्रधानमन्त्री इसी प्रदेश ने दिये हैं।

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