क्यों बंगाल में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली

हालांकि पश्चिम बंगाल में भाजपा सत्ता में नहीं थी, विधानसभा में भी उसकी संख्या केवल तीन थी, लेकिन 200 पार का नारा देने का अर्थ था कि वह सरकार बनाने की निश्चित उम्मीद सं चुनाव लड़ रही थी। उसे भी मालूम था कि 200 तक वह नहीं पहुंच सकती, पर बहुमत की उम्मीद उसे थी। उसका आधा सीट भी न मिलना भाजपा के लिए सामान्य आघात नहीं है। कोरोना प्रकोप के भयावह होने के पहले पांच चरणों तक भाजपा ने पूरी ताकत पश्चिम बंगाल में लगाई। 2019 लोक सभा चुनाव परिणाम के बाद से ही भाजपा ने प. बंगाल विधानसभा चुनाव में विजय का लक्ष्य बनाकर काम करना आरंभ कर दिया था। अमित शाह ने सबसे ज्यादा किसी राज्य में समय दिया तो वह प. बंगाल ही था। कैलाश विजयवर्गीय उन्होंने लगा दिया था। बंगाल में राजनीतिक परिवर्तनों के इतिहास का ध्यान रखते हुए भाजपा ने हर उस पहलू पर काम किया जो जनाधार विस्तार के लिए आवश्यक था। बावजूद परिणाम उसके अपेक्षा अनुरूप नहीं आए तो इसके कारणों की गहराई से पड़ताल करनी होगी। भाजपा के लिए चिंता का कारण यह भी है कि लोकसभा चुनाव में उसे 121 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी। विधानसभा में सीटों की संख्या के आधार पर कम से कम उसकी पांच लोकसभा सीटें हाथ से निकल जाती है जाती है। लोकसभा चुनाव की तुलना में उसके मत में भी 3 प्रतिशत से ज्यादा की कमी आई है। आज तृणमूल और उसके बीच मतों का अंतर 10.5 प्रतिशत से ज्यादा हो गया। इतना बड़ा अंतर साधारण नहीं होता।

 भाजपा के लिए ये सब निश्चित रूप से चिंता के कारण होंगे। जब चुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं मिलती या विरोधी को अपेक्षा से ज्यादा सफलता मिल जाती है तो अनेक प्रकार से उसके विश्लेषण होते हैं। नेताओं द्वारा ममता बनर्जी के लिए प्रयोग की गई भाषा को एक बड़ा कारण बताया जा रहा है। उदाहरण के लिए कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ममता को व्यंगात्मक लहजे में दीदी ओ दीदी कहना लोगों ने पसंद नहीं किया। प्रधानमंत्री का उस तरह दीदी ओ दीदी कहना वाकई असुंदर दृश्य उत्पन्न करता था। पर क्या बंगाल के लोगों ने ममता द्वारा प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री को गुंडा, आतंकवादी, अपराधी कहना पसंद किया? इसे मान लेने पर प्रदेश के लोगों की मानसिकता ही प्रश्नों के घेरे में आ जाएगी। इसी तरह ममता को लगी चोट पर भाजपा नेताओं की बयानबाजियों के भी उल्टा संदेश को भी कारक माना जा रहा है। ममता ने चोट को सहानुभूति और समर्थन पाने के रूप, में जिस तरह उपयोग करना शुरु किया उसकी बुद्धिमतापूर्ण काट भाजपा नहीं तलाश पाई। मीडिया ने भी जो तथ्य सामने लाए थे उनसे साबित होता था कि ममता लगी चोट न बड़ी थी न गंभीर और हमले का आरोप बिल्कुल गलत था। क्या बंगाल के मतदाताओं के पास इसे समझने का विवेक नहीं था?

वस्तुतः यह स्वीकार करने में न पहले समस्या थी न आज कि बंगाल में ममता की लोकप्रियता के आमने-सामने टिकने वाला किसी पार्टी में कोई नेता नहीं है। नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हैं लेकिन बंगाल में ममता के पासंग भी कोई नेता सामने नहीं दिखा। 2016 में भाजपा ने असम में सर्वानंद सोनोवाल को सामने किया और तरुण गोगोई जैसे अनुभवी व लोकप्रिय नेता वाली वाली कांग्रेस को पराजित करने में सफल हुई। बंगाल में उसने किसी नेता को सामने नहीं लाया। मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में ममता अकेली मतदाताओं के सामने थीं। उन्होंने बंगला स्वाभिमान, बांग्ला अस्तित्व का नारा दिया और यह भाजपा के सोनार बांग्ला से ज्यादा अपील किया क्योंकि ममता बंगाल की बेटी और दीदी के रूप में जानी जाती हैं। ममता ने पहले कांग्रेस में रहते हुए और बाद में कांग्रेस से निकलकर वाममोर्चा से जिस ढंग से लोहा लिया, हिंसा का शिकार हुई ठीक वही भूमिका भाजपा ने भी निभाई है। इसमें भाजपा के कार्यकर्ता काफी संख्या में मारे गए, हिंसा के शिकार हुए। अगर कोई एक-दो चेहरा सामने होता तो लोगों को लगता कि इनके नेतृत्व में हम सत्तारूढ़ पार्टी से लड़ रहे हैं और ये हमारे संरक्षक हैं। दूसरे, भाजपा अपने को तृणमूल, वाममोर्चा तथा कांग्रेस से अलग पार्टी तो बताती थी, लेकिन जितनी बड़ी संख्या में तृणमूल और कुछ वामपंथी पार्टियों तथा कांग्रेस के लोगों को शामिल कर उन्हें स्थानीय से लेकर प्रदेश स्तर तक मुख्य चेहरा बनाया उससे अलग पार्टी की उसकी छवि कमजोर पड़ी। ममता जब कहती थी हमारे यहां के धोखेबाज, निकम्मे वहां गए हैं तो इसका असर हो रहा था। लोगों को भी लगा कि भाजपा जिससे लड़ रही थी वो लोग आज इनके चेहरे हैं। तो बाहर से इतनी संख्या में नेताओं को लाना, उन्हें उम्मीदवार बनाना नंदीग्राम जैसे कुछ क्षेत्रों में कारगर साबित हुआ होगा लेकिन प्रदेश स्तर पर ये भाजपा के विरुद्ध गया है। इसी तरह अपने सांसदो, मंत्रियों को विधानसभा चुनाव में उतारने का हेतु किसी की समझ नहीं आया। आप एक माहौल बनाने की कोशिश करते हैं, पर यह ऐसी रणनीति थी जिसमें न कोई वाजिब तर्क भी नहीं था। आप देख लीजिए, सब धाराशायी।

हालांकि एक और बड़े कारण की ओर ध्यान नहीं जा रहा है। जिस तरह वाममोर्चा ने अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं के जीवन यापन और स्वार्थों तक को सत्ता से जोड़ दिया था ठीक वही काम ममता ने अपने नेताओं- कार्यकर्ताओं के लिए किया है। गांव मोहल्लों से लेकर ऊपर तक के विकास कार्य,कल्याणकारी कार्यक्रम, जन वितरण की दुकान या फिर पुलिस प्रशासन को आदेशित-नियंत्रित करना हो… सब में तृणमूल के नेताओं-कार्यकर्ताओं को महत्व मिला है। जब सत्ता के साथ आपका जीवन जुड़ गया है तो आप उसे जीत दिलाने के लिए किसी सीमा तक जा सकते हैं। सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा हिंसा के वातावरण की जो अपसंस्कृति प. बंगाल में लंबे समय से विकसित हुई उसमें किसी भी विरोधी पार्टी के लिए सफल होना आसान नहीं है। भाजपा ने लोगों के अंदर से भय दूर करने की भरपूर कोशिश की, उसका असर भी हुआ लेकिन वह पर्याप्त नहीं था। यह कहना भी उचित नहीं है कि बंगाल के लोगों ने भाजपा के धर्म की राजनीति या हिंदुत्व को स्वीकार नहीं किया। लोकसभा चुनाव की 18 सीटें तथा वर्तमान चुनाव के 77 सीटें किस बात के परिचायक हैं? नंदीग्राम में ममता की शुभेंदु अधिकारी से पराजय को क्या कहेंगे? सच यह है कि हिंदुत्व हिंदुत्व आधारित राष्ट्रीयता ने पश्चिम बंगाल को व्यापक पैमाने पर आलोड़ित किया है अन्यथा ममता चुनावी मंचों से स्वयं को निष्ठावान हिंदू ,प्रतिदिन पूजा करने वाली शांडिल्य गोत्र की ब्राह्मण बताते हुए दुर्गा सप्तशती के श्लोकों का पाठ करते हुए नहीं दिखती। भाजपा ममता द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए हिंदुत्व को अपनाने की काट नहीं ढूंढ सकी। भाजपा ने इस स्थिति से का सामना करने की तैयारी की थी नहीं की थी। इसमें ममता पर केवल वोटों के लिए हिंदुत्व कार्ड खेलने के आरोप से लोगों का प्रभावित होना कठिन था। आम जनता ने सोचा कि ममता श्लोक पढ़ रही है तो इसका मतलब वह पूजा पाठ करती हैं, दुर्गा जी की भक्त हैं और राम का नाम लेती हैं। जय श्री राम से ममता को जगह-जगह चिढ़ाने का भी नकारात्मक संदेश गया। इस नारे में लोगों को आकर्षित करने की ताकत है लेकिन जब आप नकारात्मक रूप से चिढ़ाने में प्रयोग करेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया  होगी।

लेकिन सबके बावजूद अगर प. बंगाल मैं मुस्लिम मत निर्णायक नहीं होते तो परिणाम ऐसा नहीं आता। 46 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मतदाता  50 प्रतिशत से अधिक, 16 सीटों पर 40 प्रतिशत से अधिक तथा 33 सीटों पर 30 प्रतिशत से अधिक हैं। करीब 100 सीटें ऐसी हैं जिनमें आधे पर मुसलमान जिसे चाहे जीता सकते हैं और आधे पर भी वे निर्णायक भूमिका में हैं। आप नजर दौरा लीजिए इसमें से ज्यादातर सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते गई हैं। बंगाल में जब भी परिवर्तन हुआ, चाहे वह कांग्रेस को पराजित कर वाम मोर्चे की सत्ता लाने में हो या वाम के विरुद्ध ममता की विजय …मुस्लिम मतों की निर्णायक भूमिका रही है। बगैर उनके कोई पार्टी तभी सत्ता में आ सकती है जब हिंदुओं का व्यापक पैमाने पर उसके पक्ष में एकत्रीकरण हो। कांग्रेस, वाम मोर्चा और आईएसएफ गठबंधन प्रभावहीन रहा तो इसका सर्वप्रमुख कारण यही है कि मुस्लिम मतदाता एकमुश्म तृणमूल के साथ चले गए। मालदा और मुर्शिदाबाद जैसे कांग्रेस के परंपरागत स्थानों से भी तृणमूल की विजय इसका प्रमाण है। ममता ने हिंदुत्व कार्ड खेलते हुए भी बार-बार संदेश दिया कि मुसलमानों का वोट बंटने न पाए अन्यथा भाजपा आ जाएगी। इसका असर होना ही था।

वास्तव में गैर भाजपा मतों में बटवारा न होना इस चुनाव परिणाम का ऐसा प्रमुख कारक है जिसे नजरअंदाज कर आप सही विश्लेषण नहीं कर सकते। केवल मुसलमान ही नहीं शहरी मतदाता भी तृणमूल के साथ बने रहे। भद्रलोक कहलाने वाला शहरी मध्यम वर्ग का एलिट सोच से तो वामपंथी है लेकिन भाजपा  को सत्ता में आने से रोकने के लिए तृणमूल को समर्थन दिया और चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तृणमूल का प्रचार वही नहीं था जो मंचों से और मीडिया में दिख रहा था । देश का बहुत बड़ा वर्ग जिसमें एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवी, एनजीओ चलाने वाल, थिंक टैंक के लोग अपने-अपने तरीके से जगह-जगह मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश करते रहे। ममता कहतीं थी कि मैं अकली और प्रधानमंत्री, गृहमंत्री ,पूरी केंद्रीय सत्ता, चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई सब मेरे खिलाफ हैं। इसका भी असर था। हालांकि दूसरी ओर जितनी बड़ी संख्या में ममता को मुफ्त और प्रभावी प्रचारक लिए गए थे वह अभूतपूर्व था। बहरहाल, परिणाम के कई तरीके से विश्लेषण होते रहेंगे। ममता द्वारा तीसरी बार इतना भारी बहुमत पाना असाधारण है। पर यह भी सच है कि भाजपा वहां दूसरी प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित हो गई है। वामपंथ और कांग्रेस का सफाया और उनकी जगह भाजपा का उत्थान ऐसी बड़ी परिघटना है जिसे बंगाल की राजनीति में एक युगांतकारी मोड़ की शुरुआत मानी जाएगी। जाहिर है, तृणमूल और भाजपा का राजनीतिक संघर्ष चलेगा और 2024 के  आम चुनाव में पता चलेगा कि तब तक कौन पार्टी जनता के बीच कितनी गहराई से पहुंची है।

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