जीवन में संगीत संस्कार

सं स्कृत में प्रसिद्ध कहावत है, ‘संगीताद् भवति संस्कार :। ’ केवल मानवी जीवन में ही नहीं अपितु पशु -पक्षी, वनस्पति सहित संपूर्ण सृष्टि जीवन में संगीत का महत्व है। संगीत में रुचि न होनेवाले व्यक्ति को ’साक्षात् पशु : पुच्छविषाणहीन : ‘ ऐसा कहा जाता है। संगीत अर्थात् संवादी स्वरलहरियों का मेल। नाद की ऐसी दिव्य अनुभूति की मानो ईश् वर का साक्षात् दर्शन। वैसे भी हमारे स्वर -व्यंजन हमें नटराज के तांडव संगीत से प्राप्त हुए हैं। उनमें अनोखी सुसंवादिता है। ताल -लय है। मानव की विविध भावनाओं को प्रकट करनेवाला नवरसात्मक संगीत हम जानते हैं। प्रेरणा, आनंद, शांति -संतोष उनसे प्राप्त करते हैं। समयानुसार नवरसों की हृद्य अनुभूति भी लेते हैं। संगीत का यह अनुपम महत्व हमारे ऋषि -मुनियों के ध्यान में आया था। चतुर्थ वेद -सामवेद गांधर्ववेद कहलाता है। स्वरों में जीवंतता है और सजीव मानवी शरीर से मेल बैठाकर अनेक प्रकार के परिवर्तन में स्वरों का उपयोग किया है। वह संपूर्ण सृष्टि के हित का विज्ञान है, यह आज सिद्ध हुआ है।

सामान्यत : कला को विज्ञान से श्रेष्ठ क्या, समकक्ष भी नहींे मानते, परंतु हमारे भारत में कला में विज्ञान, विज्ञान में कला का दर्शन होने के कारण दोनों में सामंजस्य है। सुसंवादिता ही हमारी संस्कृति है।

ध्वनि शक्ति

विज्ञान की दृष्टि से जल, विद्युत, हवा जैसे ध्वनि भी एक ऊर्जा मानी जाती है। उसका उपयोग करनेवालों पर निर्भर है कि वह विकासशील हो या विनाशकारी। नाद -ध्वनि अर्थात् वातावरण में स्पंदन। वे भी मन पर अपेक्षित सकारात्मक प्रभाव निर्माण कर सकते हैं। यह स्पंदन नष्ट नहीं होते हैंे। कहीं जाकर स्थिर होते हैं। रूपातंरित होते हैं। पहले तो विज्ञान मानता था कि पदार्थ नष्ट होते हैं। परंतु बाद में उन्होंने रूपातंरण का सिद्धांत मान्य किया। पदार्थ का ऊर्जा में और ऊर्जा का पदार्थ में रूपांतरण होता है। गायन द्वारा पर्जन्यवृष्टि, दीपप्रज्वलन यह तो हमारे इतिहास में प्रसिद्ध है। श्रीमद् भगवद्गीता के ‘देहान्तरप्राप्ति ‘ (यथा देहान्तरपत्रपित : धीर ) के तत्व को ही मानो स्वीकार किया। किसी भी पदार्थ का कुछ समय के पश् चात् निसर्गत : रूपांतरण होता है जैसे कि एक देह दूसरे देह का आकार ग्रहण करता है। भौतिक विज्ञान को आध्यात्मिक आधार एवं आध्यात्मिकता को विज्ञान का आधार यह पारस्पारिता का सिद्धांत प्रचलित हुआ। जिससे मृत्यु की भयावहता कम हुई।

भारतीय जीवन दर्शन मानता है कि हर निर्मिति में ईश् वर का अंश है अत : उसे पवित्र मानना है। इसीलिए स्वर भी ईश् वर निर्मित होने के कारण वे भी ईश् वर का अंश हैं। अत : उनको पवित्र मानना है। शुद्ध स्वर ईश् वर निर्मित होने के कारण शुद्ध पवित्र होते हैं एवं संवादी होते हैंे। अत : विविध भावनाओं के प्रकटीकरण या प्रचोदन के लिए संगीत के अलग अलग प्रकार रुढ़ हैं। भक्तिभाव के लिए भजन, यज्ञीय पवित्रता हेतु स्तोत्र -मंत्र, बच्चों को सुलाने हेतु लोरी, भगवान को जगाने वाले जागरण गीत, (सब के राग भी निश् चित हैं -लोरी के अलग, जागरण के अलग ) वीरभाव हेतु पोवाडेे, देशप्रेम प्रेरणा हेतु देशभक्ति पर गीत, सैनिकी भाव के लिए संचलन गीत एवं उनका साथ देनेवाले आनक -पणव -शंख आदि के वादन की साथ।

शुद्ध उच्चारण में अद्भुत शक्ति

’स्तोत्रमंत्र का विज्ञान ‘ इस पुस्तक में पू . स्वामी सवितानंद जी द्वारा किया हुआ विवेचन बहुत महत्वफूर्ण है, मार्गदर्शक है।

स्तोत्र के शुद्ध एवं मनोभाव से किये गए उच्चारण में ऐसी शक्ति है कि उस देवता की आकृति अपनेे सामने साकार हो जाती है, ऐसा उनका अनुभव है। इसी सिद्धांत के अनुसार सभी प्रार्थनाओं में और विशेष रूप से समिति तथा संघ की प्रार्थना के स्वर भारतमाता के दर्शन से जीवनलक्ष्य स्पष्ट करते हैं। श्रद्धायुक्त प्रतिबद्धता निर्माण करते हैं। समर्पण भावना दृढ़ करते हैं।

स्वरों की विज्ञानयुक्तता

बहुत वर्ष पूर्व सुनी हुई कहानी मुझे याद आ रहीं है -एक राजा था। उसके दरबार में तत्वज्ञान पर गहन चर्चा करनेवाले बहुत विद्वज्जन तथा विविध प्रकार की प्रेरक भावनाओं को जगानेवाला गायक वादक वर्ग भी था। राजा का गायक वादक गणों को सम्मान देना विद्वज्जनों को रास नहीं आता था। एक बार राजा के राज्य पर आक्रमण हुआ। राजा की सेना का आत्मविश् वास टूटा। सेना हारने की स्थिति निर्माण हुई। तब इन गायक वादकों ने विजिगीषु पौरुषत्व जगानेवाले गीत मनोभाव से गायें -बजायें। उन्हें सुनकर सेना में उत्साह का संचार हुआ और उन्होंने विजय प्राप्त की।

विद्वज्जन संगीत का महत्व समझ गए। आज भी अपनी सेना में घोषगण का कितना महत्व है यह हम १५ अगस्त, २६ जनवरी का सघोष संचलन से पता चलता है। इसे देखते ही एक अलग स्फूर्ति की लहर दौड़ती है और रोएं खड़े हो जाते हैं – बैठै बैठे भी क्यों न हो ? स्वरों की यह विज्ञानयुक्तता है। उनमें गणितीय अचूकता भी है। संगीत के स्वरों में आरोह, अवरोह, आलाप, यती, सम आदि प्रकार हैं।

आरोह में स्वरों को धीरे धीरे अधिक ऊंचाई तक ले जाना और अवरोह में उसी क्रम से नीचे उतरना, उतरते समय जहां से प्रारंभ किया था उसी स्तर पर सामंजस्य रखकर उतरना। ’सम -साधना ‘ यह भी स्वरों की एक साधना है। उसके बिना किसी भी प्रकार से चढ़ना उतरना स्थिर होना यह विशेष है। वास्तविक रूप से अपने जीवन में भी ऐसे उतार -चढावों में कैसा सामंजस्य रखना आवश्यक होता है – यह एक संस्कार अंकित होता है। झूला जैसे विशिष्ट गति से परंतु सहज रूप से ऊपर जाता है, नीचे आता है वैसा ही यह एक संस्कार अंकित होता है। कभी कभी अपनी प्रस्तुति को निहारते हुए अधिक रंगत लाने हेतु क्षणमात्र रुकना अर्थात् यति। जीवन में भी अपने जीवन की समीक्षा हेतु ऐसा रुक कर परीक्षण करना आवश्यक है। कुशल ज्ञानयोगी का दर्शन हम सामान्य जनों को भी अनुकरणीय है।

उच्चारण महत्वपूर्ण

एक कार्यक्रम में गई तो गीत तो वहां गाया जा रहा था।

’गौरवमय समरस जीवन यहीं एक साधना ‘ इस पंक्ति का उच्चारण हो रहा था। ‘गौरवमय समरस जनजीवन ’ कुछ अर्थ नही रहा। शब्द का उच्चारण भी सही होने का महत्व है। ’पथ का अंतिम लक्ष्य नहीं है सिंहासन चढते जाना ‘ के बदले ’पथ का अंतिम लक्ष्य यही है ‘ – ऐसा कहना या ’चेतना नई बनो राष्ट्र की पुकार पर ‘ के स्थान पर ’चेतना नहीं बनो राष्ट्र की पुकार पर ‘ ऐसा कहा गया तो क्या होगा ?

गीतों के शब्दों में मंत्र जैसे शक्ति होती है। अत : गीत विभाग का दायित्व भी कितना गुरुतर है यह ध्यान में आता है, आना भी चाहिए। शब्दों का सही चयन, उच्चारण, स्वर, ताल, लय पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।

भावनाओं के उद्दीपन से ही कार्य प्रेरणा जगती है। संगीत का और एक वैशिष्टपूर्ण शास्त्रीय प्रयोग वर्तमान काल में लोकप्रिय हो रहा है। वैसे तो हमारे वेद पुराणों में इन प्रयोगों का वर्णन है। खेतों में लहलहाती फसल के बीच खड़े होकर ओंकार मंत्र के उच्चारण से फसल पुष्ट करना, मानसिक स्थिरता निर्माण करना। अग्निहोत्र के मंत्रोच्चारण से घरों में, खेतों में, कार्य स्थल में, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ा कर पर्यावरण शुद्ध करना और रखना या विशिष्ट राग रागिनी के शुद्ध स्वरों के गायन से शारीरिक मानसिक व्याधियां दूर करना यह आस्था का विषय बन रहा है। यह तो आयुर्वेद में हजारों वर्ष पूर्व उल्लेखित है।

मधुर है भारतीय संगीत

भारतीय संगीत में बहुत माधुर्य है। अपनी भौतिक चिंताएं भुलाकर दिव्य सात्विक भावनाओं की अनुभूति होती है। इससे विपरीत डी .जे . का कठोर कर्णकर्कश संगीत सुनकर बेताल होकर उन्मत्त नृत्य करने में आज लोग रूचि ले रहे हैं और वह प्रतिष्ठा का संकेत भी माना जाता है। भौतिकताप्रधान देशों के चिकित्सक भी कहते हैं कि इस संगीत के कारण कानों की तीव्र आवाज सुनने की क्षमता सीमा पार हो जाती है। उसके कारण केवल कानों पर या मस्तिष्क पर ही नहीं अपितु संपूर्ण शरीर रचना पर विपरीत परिणाम होता है। समाज के विचारशील लोगों को इसके बारे में सोचना चाहिए।

अर्थात् संगीत, वादन, नृत्य आदि कलाएं केवल स्वान्तसुखाय फूहड़ मनोरंजन हेतु नहीं ; अपितु समाज जीवन सुख, शांति, समृद्धिमय बनाने हेतु विकसित होने की आवश्यकता है।

स्वर संवादी हो

एक और बात। आज कल अपना जीवन संगीत बेताल, बेसूरा बनता जा रहा है। सुसंवाद काफी मात्रा में कम हो रहा है। पर्यावरणीय बीमारी जैसी पारिवारिक विसंवादिता की बीमारी भी बहुत बढ़ रही है। यह हमारे लिए बड़ी सामाजिक चिंता की बात है। स्वरों की विसंवादिता से राग रोगग्रस्त होते हैं तब शुद्ध संवादी स्वर प्रकट करने की साधना की जाती है। वैसे ही जीवन संगीत में निर्माण होनेवाली विसंवादिता दूर करने हेतु आनंददायी, संवादी, स्वरमेल ताल, लय साधने हेतु प्रयत्न करना हमारा दायित्व है। यहीं हमारे जीवन की साधना बने, उसमें हम सफलता प्राप्त करें यही तीव्र आंतरिक इच्छा है।

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  1. Anonymous

    What a beautiful write up,

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