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हार न मानने वाले भारतीय वैज्ञानिक

हार न मानने वाले भारतीय वैज्ञानिक

by मनीष मोहन गोरे
in अगस्त-२०२१, विशेष, सामाजिक
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अंग्रेजों के मन में भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति उपेक्षा का भाव इतना अधिक गहरा था कि भारत की समृद्ध वैज्ञानिक विरासत और आजादी के संघर्ष काल में जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय और सी.वी. रामन जैसे प्रतिभाशाली विज्ञानियों के वैज्ञानिक शोध व चिंतन को नकारने की उन्होंने पूरी कोशिश की। लेकिन प्रतिभा का दमन भला कब तक किया जा सकता है। ब्रिटिश शासन की उपेक्षा और तिरस्कार ने हमारे वैज्ञानिकों को और ज्यादा कठोर विज्ञान साधना करने को प्रेरित किया और फिर आगे चलकर उनके ज्ञान का लोहा पूरी दुनिया ने माना।

भारत की आजादी का प्रसंग आते ही प्रत्येक देशवासी के मन में एक नए उमंग और उत्साह का संचार हो जाता है। आजादी की लड़ाई में देश के हर नागरिक ने संघर्ष किया था। भारत का स्वाधीनता आन्दोलन यहां के वैज्ञानिकों के लिए भी चुनौतीपूर्ण था। उस दौर में हमारे वैज्ञानिकों ने भी संघर्ष, उपेक्षा, भेदभाव और तिरस्कार झेला था। ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय वैज्ञानिकों की मेधा पर उंगली उठाया और उनके बौद्धिक स्तर को अनुसंधान के काबिल नहीं समझा। देश के अंदर विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान दोनों ही क्षेत्र उस कालखंड में घोर उपेक्षा के शिकार थे। समस्त वैज्ञानिक अनुसंधान का केंद्र बिंदु यूरोप बना हुआ था। भारत सहित एशिया के अन्य देशों में किए जा रहे वैज्ञानिक अनुसंधान को पश्चिम का वैज्ञानिक समुदाय उचित श्रेय नहीं देता था जबकि यदि केवल भारत की बात की जाए तो यहां पर स्वदेशी संसाधनों के सहारे जगदीश चंद्र बसु और सी.वी. रामन जैसे वैज्ञानिक नोबल पुरस्कार के स्तर का अनुसंधान कर रहे थे। अंग्रेजों के मन में भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति उपेक्षा का भाव इतना अधिक गहरा था कि भारत की समृद्ध वैज्ञानिक विरासत और आजादी के संघर्ष काल में जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय और सी.वी. रामन जैसे प्रतिभाशाली विज्ञानियों के वैज्ञानिक शोध व चिंतन को नकारने की उन्होंने पूरी कोशिश की। लेकिन प्रतिभा का दमन भला कब तक किया जा सकता है। ब्रिटिश शासन की उपेक्षा और तिरस्कार ने हमारे वैज्ञानिकों को और ज्यादा कठोर विज्ञान साधना करने को प्रेरित किया और फिर आगे चलकर उनके ज्ञान का लोहा पूरी दुनिया ने माना।

वैज्ञानिकों के संघर्ष की चर्चा का संदर्भ आजादी के अमृत महोत्सव से जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार 12 मार्च 1930 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के नमक पर कर लगाने के विरोध में नमक सत्याग्रह किया था, उसी तर्ज पर आजादी के दौर में वैज्ञानिकों के संघर्ष को वैज्ञानिक सत्याग्रह के रूप में समझा जा सकता है। 15 अगस्त 2022 को देश की आजादी के 75 वर्ष पूरे होंगे और इस अवसर पर स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ से 75 सप्ताह पूर्व आजादी का अमृत महोत्सव शुरू होने जा रहा है। पूरे देश में इसे महोत्सव के रूप में मनाया जाएगा। इसके लिए हर राज्य ने अपने-अपने स्तर पर तैयारियां शुरू कर दी हैं। भारत सरकार के विज्ञान मंत्रालय ने भी आजादी के समय भारतीय वैज्ञानिकों के संघर्ष और उनकी उपलब्धियों को रेखांकित करने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों की रुपरेखा तैयार की है।

आजादी का अमृत महोत्सव हम भारतीयों को उन महान वैज्ञानिकों का स्मरण करने का एक अवसर देता है, जिनके संघर्ष ने हमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी का एक मजबूत आधार प्रदान किया और इस दिशा में आगे बढ़ते हुए हमारा देश अनवरत प्रगति कर रहा है।

देश की आजादी के समय वैज्ञानिकों की संघर्ष गाथा में पहली शख्सियत है  जगदीश चंद्र बसु। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने ब्रिटिश हुकुमत में भारतीय शिक्षा सेवा की प्रतियोगिता में सफलता पाई थी। इस वैज्ञानिक ने भौतिक विज्ञान और जीवविज्ञान जैसी विज्ञान की दो महत्वपूर्ण धाराओं में उल्लेखनीय अनुसंधान कार्य किए थे मगर क्योंकि वे एक भारतीय वैज्ञानिक थे इसलिए ब्रिटिश शासन ने उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा को नजरंदाज किया। और तो और उन्हें शिक्षा विभाग में प्रोफेसर की नौकरी में उनके समकक्ष अंग्रेज प्रोफेसर से आधे वेतन पर नियुक्त किया गया। जब बसु ने इन भेदभाव का विरोध किया तो उस पर कोई सुनवाई नहीं हुई।

बेतार का तार के जरिये संप्रेषण प्रणाली की खोज का प्रथम श्रेय 1890 के दशक में जगदीश चंद्र बसु को जाता है लेकिन उन्हें इस खोज के लिए विश्व में उचित सम्मान नहीं मिला। बसु ने जी. मार्कोनी से पहले उक्त बेतार के तार की खोज कर ली थी और एक व्याख्यान के माध्यम से इसे सार्वजनिक भी किया था, परन्तु वे एक भारतीय वैज्ञानिक थे और उस दौर में भारत ब्रिटिश सत्ता के अधीन एक परतंत्र देश था इसलिए उन्हें उनकी महत्वपूर्ण खोज का वाजिब श्रेय नहीं दिया गया।

बसु के समकालीन रसायन विज्ञान के विद्वान वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय को भी अंग्रेजी शासन काल में भेदभाव का सामना करना पड़ा था। उन्होंने विदेश से रसायन विज्ञान में पीएचडी किया और जब वे 1888 में स्वदेश लौटे उन्हें उनकी काबिलियत के मुताबिक उचित नौकरी नहीं मिली। उन्हें लगभग एक वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ी। एक वर्ष के बाद जब उन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी दी गयी, तो उन्हें अस्थायी पद आफर किया गया जबकि उनके समान योग्यता और अनुभव धारक ब्रिटिश रसायन विज्ञानियों को तत्काल भारतीय शिक्षा सेवा में स्थायी नौकरी दी गयी। प्रफुल्ल चंद्र राय ने जब इसकी शिकायत की तो ब्रिटिश अधिकारी का जवाब मिला कि उन्हें इस नौकरी को स्वीकार करने के लिए कोई विवश नहीं कर रहा और वे कोई दूसरा काम कर सकते हैं। इस भेदभाव ने थोड़े समय के लिए राय को विचलित किया लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने अपने को सम्हाला और देश में विज्ञान का प्रकाश फैलाने के वृहद् लक्ष्य को ध्यान में रखकर विद्यार्थियों को रसायन विज्ञान की शिक्षा और शोध कार्य कराने में जुट गए। आगे चलकर उनके पढाए हुए असंख्य विद्यार्थियों ने समूचे देश में रसायन विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किया। राष्ट्रीय विकास के लिए उन्होंने स्वदेशी उद्योगों की स्थापना का बीड़ा भी उठाया था और काफी हद तक इसमें सफल भी हुए।

वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए उचित वातावरण और संसाधनों के अभाव की समस्या को स्वतंत्रता पूर्व भारत में चंद्रशेखर वेंकट रामन ने भी झेला। भौतिकविद रामन ब्रिटिश शासन के कलकत्ता (अब कोलकाता) स्थित राजस्व विभाग में उच्च अधिकारी की नौकरी कर रहे थे लेकिन उनका मन वैज्ञानिक शोध में लगा रहता था। उनकी नौकरी के रास्ते में इंडियन एसोसिएशन फार दी कल्टीवेशन आफ साइंस का भवन पड़ता था जिसे महेंद्र लाल सिरकर ने देश में वैज्ञानिक विषयों में शोध को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया था। रामन इस संस्था से जुड़ गये और नौकरी से समय निकालकर भौतिकी में यहां पर शोध कार्य करने लगे। प्रकाश प्रकीर्णन के उनके महत्वपूर्ण अनुसंधान पर आगे चलकर 1930 में रामन को दुनिया के सबसे बड़े नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह उदाहरण ब्रिटिश हुकूमत की इस धारणा को निर्मूल सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थी कि भारतीय वैज्ञानिक ब्रिटिश वैज्ञानिकों की अपेक्षा कम प्रतिभाशाल होते थे। रामन ने पराधीन भारत में नोबल पुरस्कार हासिल करने का इतिहास रचने के अलावा एशियाभर में और वो भी विज्ञान की किसी शाखा में नोबल से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय बन गए।

भारतीय गणितज्ञ और सर्वेक्षक राधानाथ सिकदर ने माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई मापने में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन उन्हें इसका श्रेय नहीं दिया गया। ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान को नजरंदाज किया जाता था। इसका एक विशेष उदाहरण किशोरी मोहन बंधोपाध्याय का है जो कि रोनाल्ड रास के शोध दल के एक होनहार सदस्य थे। मलेरिया संबंधी जिस महत्वपूर्ण शोध के लिए रास को 1902 में नोबल के लिए चुना गया, उस शोध कार्य में बंदोपाध्याय ने अहम भूमिका नहीं थी। मगर रास ने न तो अपने नोबल व्याख्यान में ना ही अपने शोध पत्र में किशोरी मोहन बंदोपाध्याय का उल्लेख किया। वैज्ञानिक शोध और अकादमिक क्षेत्र की यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी।

इस प्रकार के अन्याय व उपेक्षा की प्रतिक्रिया में स्वतंत्रता पूर्व भारत के वैज्ञानिकों ने ब्रिटिश हुकूमत की भेदभावपूर्ण नीति का विरोध किया और इंडियन एसोसिएशन फार दी कल्टीवेशन आफ साइंस तथा इंडियन साइंस कांग्रेस जैसे स्वदेशी प्रयास शुरू किए। भारतीय वैज्ञानिकों को एक सूत्र में जोड़कर देश में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और उद्योग के विकास से संबंधित शोध कार्य में ये समस्त वैज्ञानिक देश के अलग-अलग प्रान्तों में जुट गये। यह भी अपने आप में देश सेवा का एक स्वरूप था जिसे विज्ञान के उन्नयन के जरिये भारत के वैज्ञानिकों ने स्वतंत्रता पूर्व भारत में अंजाम दिया।

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