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रियल से रील पर

रियल से रील पर

by अतुल गंगवार
in अक्टूबर-२०२१, फिल्म, विशेष, सामाजिक
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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का वक्त अब जा चुका है। अब वक्त उसे ठीक करने का है। इसमें दर्शक वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि वे अच्छे कंटेंट को अपना समर्थन देंगे तो उसी तरह का कंटेंट बनाने के लिए फिल्मकार मजबूर होंगे। आज का दर्शक जागरूक है। अब वे किसी बात को ऐसे ही स्वीकार नहीं करता है। ये बात ‘शेरशाह’ को मिली सफलता और ‘भुज द प्राइड‘ को मिली असफलता से सिद्ध हो जाती है। वहीं जिस तरह से ‘द एम्पायर’ का विरोध हो रहा है, उससे आगे की कड़ियों को बनाने से पहले निर्माताओं को अवश्य सोचना पड़ेगा।

भारतीय सिनेमा में वास्तविक घटनाओं या नायकों पर फिल्म बनाने की परंपरा हमेशा से रही है। हमारे फिल्मकारों ने अपने सिनेमा के विषय चुनते हुए काल्पनिक कहानियों के साथ अपने साहित्य, पौराणिक कथाओं और देश-समाज में घटने वाली घटनाओं के साथ ऐसे पात्रों को भी अपने सिनेमा का हिस्सा बनाया, जिन्होंने देश समाज पर अपना प्रभाव छोड़ा है। कोरोना काल में जब सिनेमा हॉल कुछ राज्यों में खुले हैं और कहीं बंद भी हैं, ऐसे समय में फिल्में जढढ प्लेटफॉर्म पर भी दिखाई जा रही हैं।

ऐसे में दर्शकों का एक बड़ा वर्ग घरों में बैठकर फिल्मों का आनंद उठा रहा है। वहीं फिल्मकार जोखिम उठाकर कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुए अपनी फिल्में सिनेमा हॉल के साथ जढढ पर भी प्रदर्शित कर रहे हैं। आज मैं आपको तीन ऐसी फिल्मों के बारे में बताना चाहता हूं, जिनमें से दो फिल्में हैं और तीसरी एक वेब सीरिज है, जिनकी कहानियों का आधार वास्तविक पात्र या नायक, घटना एवं इतिहास के पन्नों से लिए गए हैं। मैं शेरशाह, भुज-द प्राइड और वेब सीरीज द एम्पायर की बात कर रहा हूं।

शेरशाह युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत

शेरशाह कारगिल युद्ध के नायक कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी है। अपने 25 वें जन्मदिन से दो महीने पहले ही कारगिल युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले कैप्टन बत्रा आज भी लाखों युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं। विक्रम बत्रा को इस असाधारण वीरता के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

फिल्म के शिल्प पर अगर हम बात करेंगे तो शायद सब लोग अपने दृष्टिकोण का इस्तेमाल करते हुए इसमें अच्छाइयां या बुराइयां ढूंढ़ ही लेंगे लेकिन मैं यहां शिल्प से अधिक फिल्म के विषय पर बात करना चाहूंगा। कहानी एक बहादुर फौजी की है। फौज का जीवन युवाओं को हमेशा अपनी ओर आकर्षित करता है। आज यदि देश ने कारगिल की लड़ाई में विजय पायी है, तो उसके पीछे हमारे युवाओं का जोश ही था। साल 1999 में हुई इस लड़ाई में हमारे वीर जवानों विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी बहादुरी से पाकिस्तानी फौज के छक्के छुड़ा दिए थे। कैप्टन बत्रा भी एक ऐसे ही युवा थे, जिन्होंने हांगकांग में मर्चेंट नेवी के प्रस्ताव को ठुकराते हुए फौज में जाना पसंद किया था।

जढढ प्लेटफॉर्म पर है सफल

आज देश के प्रति उनके बलिदान की कहानी दर्शकों को प्रेरित कर रही है, जो जढढ प्लेटफॉर्म पर शेरशाह को मिल रही सफलता बता रही है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि उनके निजी जीवन की कहानी शेरशाह की गति को बाधित करती है लेकिन यदि हम कैप्टन विक्रम बत्रा के निजी जीवन से अनजान रह जाते तो शायद ये कहानी अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती। कैप्टन बत्रा का बोला गया वाक्य, ‘ये दिल मांगे मोर’ उनके उस जोश और देश के प्रति समर्पण को ही प्रदर्शित करता है। यही सच भी है क्योंकि आज युवा चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, मांगता तो मोर ही है। कैप्टन बत्रा जैसे अनेकों रियल लाइफ हीरो हैं, जिनकी कहानी लोगों को प्रोत्साहित कर सकती है।

कैप्टन विक्रम बत्रा की भूमिका में सिद्धार्थ मल्होत्रा और उनकी प्रेयसी डिंपल चीमा की भूमिका में कियारा आडवाणी ने न्याय किया है। शेरशाह की सफलता बॉक्स ऑफिस की धुन पर नाचने वाले निर्माताओं को उनकी कहानियों को पर्दे पर उतारने के लिए प्रेरित करेगी।

भूज दबी अपने बोझ तले

अब बात भुज द प्राइड की करते हैं। ये भी एक रियल वॉर हीरो विजय कार्णिक की कहानी है। भुज हवाई अड्डे के प्रभारी ख-ऋ के विजय कार्णिक ने साल 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध में प्रतिकूल परिस्थितियों में किस तरह से अपने नाम को सार्थक किया यानी विजय पाई, ये ही इस फिल्म का विषय है। भुज उन महिलाओं के शौर्य को भी स्थापित करती है, जिनकी मदद से विजय कार्णिक ने हवाई पट्टी का निर्माण किया और पाकिस्तानी फौज से लड़ाई लड़ी। हालांकि विषय रोचक होते हुए भी भुज द प्राइड अपने ही बोझ के तले दबकर ना तो दर्शकों और ना ही समीक्षकों की कसौटी पर खरी उतर पाई।

ये ठीक है कि देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में दर्शकों को हमेशा से पसंद आती रही हैं लेकिन भुज द प्राइड में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे दर्शक जुड़ सके और महसूस कर सकें। इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी भारी भरकम स्टार कास्ट है, जिसमें अजय देवगन, संजय दत्त, सोनाक्षी सिन्हा, नोरा फतेही, एमी विर्क और शरद केलकर शामिल हैं। सारे बड़े कलाकारों को भारी भरकम संवाद दिए गए हैं, जिसके ओवर डोज ने फिल्म का कबाड़ा कर दिया है। फिल्म के

निर्देशक अभिषेक दुधैया इस स्टार कास्ट को मैनेज करने में कतई सफल नहीं हुए हैं क्योंकि ना तो उनमें दूर दृष्टि दिखाई देती है और ना ही फिल्म के विषय की समझ। ऐसा लगता है कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति ने अपनी चलाई है। वहीं अभिषेक को लगा है कि बड़े सितारों की फौज और देशभक्ति का तड़का उनकी नैय्या को पार लगा देगा लेकिन ऐसा हो नहीं हो पाया है।

हो सकता था बेहतरीन निर्माण

फिल्म की मूल कहानी में विजय कार्णिक ने भुज की 300 महिलाओं के सहयोग से वहां की हवाई पट्टी को फाइटर प्लेन उतारने के लिए तैयार किया था। यदि केवल इसका ही फिल्मांकन सही ढंग से कर लिया जाता तो भी ये एक रोचक फिल्म बन सकती थी कि किस तरह से उन महिलाओं ने अपने जान का जोखिम उठाते हुए उस हवाई पट्टी का निर्माण किया? इसे बड़े पर्दे पर देखना दिलचस्प होता। कहने को वास्तविक घटनाओं से प्रेरित इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वास्तविकता के करीब हो। भारतीय वायु सेना के शौर्य को दिखाने वाली फिल्में वैसे भी देश में कम बनी है। उस पर इतने संसाधनों को व्यर्थ होते देखना दुखद है।

क्या है द एम्पायर बनाने की वजह?

अब बात वेब सीरीज ‘द एम्पायर’की करते हैं। डिज्नी+हॉट स्टार पर रिलीज हुई ये सीरीज एलेक्स रदरफोर्ड की लिखी पुस्तक श्रृंखला,’एम्पायर ऑफ द मुग़ल’ की पहली किताब ’एम्पायर ऑफ द मुगल, रेडर्स फ्रॉम द नॉर्थ’ पर आधारित है। कुल मिलाकर इस सीरीज में 6 किताबें हैं, जिनमें पूरे मुगल साम्राज्य के बारे में बताया गया है। भारत में मुगल साम्राज्य का आरंभ बाबर से हुआ था इसलिए इस वेब सीरीज की शुरुआत भी बाबर से की गई है। अपने लांच से पहले ही ये शो चर्चा में आ गया था। सबसे पहले इसकी तुलना एक विदेशी सीरीज द गेम ऑफ थ्रोन्स से की जा रही थी, जो इसके प्रदर्शन के साथ खत्म हो गई क्योंकि निर्माण के स्तर पर द एम्पायर, गेम ऑफ थ्रोन्स के सामने कहीं नहीं ठहरती।

सबसे पहला सवाल तो इस सीरीज को लेकर ये खड़ा होता है कि इसको बनाने के पीछे क्या सोच है? भारत की हार का जश्न मनाना? कैसे वे पराजित होकर मुगलों का अगले 237 वर्षों तक गुलाम रहा? मुगलों की वीरता, उनकी शान-शौकत का वर्णन करना। एक बार फिर से उस इतिहास को दोहराना जिसको मुगलों को महिमा मंडित करने के लिए लिखा गया था, जिसकी सच्चाई आज देश की जनता के सामने आ रही है। क्या हमारे वीर राजाओं ने मुगलों को कभी चैन से रहने नहीं दिया? उनको पराजित बताकर एक बार फिर देश के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई जाएगी।

क्या मुगलों की क्रूरता, तख्त के लिए आपस में ही रचे गए षड्यंत्र, एक दूसरे के रक्त से अपनी प्यास बुझाते, हवस के लिए रिश्तों की गरिमा को ठेस पहुंचाते मुगलों के हरम की दास्तां इस सीरीज के निर्माता दिखाना चाहेंगे? या एक बार फिर से इतिहास की आड़ में झूठ का ढिंढोरा पीटा जाएगा। ये हमारे देश में ही संभव है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हमें हमारी ही नजरों से गिराने का काम लगातार किया जा रहा है। जब राष्ट्र स्वतंत्रता का 75वां अमृत महोत्सव मना रहा है, वहां इस तरह की सीरीज का निर्माण होना अचरज की बात है।

बढ़ाएं अपने राष्ट्र का गौरव

इस कथानक को जीवंत करने वाले कलाकारों में कुणाल कपूर, डिनो मोरियो, राहुल देव, दृष्टि धामी और शबाना आज़मी प्रमुख हैं। कथानक की बात करें तो उसमें तख्त के लिए संघर्ष के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बाबर के हिस्से में जीत से अधिक पराजय है। पैसे की ताकत से सीरीज को भव्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। इस सीरीज के निर्माण से संजय लीला भंसाली की टीम के सदस्य जुड़े हुए हैं इसलिए निर्माण पर उनकी छाप नज़र आती है। इसका स्क्रीन प्ले लिखा भवानी अय्यर ने लिखा है, जो निर्देशक मिताक्षरा कुमार संजय लीला भंसाली की एसोसिएट डायरेक्टर रह चुकीं हैं। उनके साथ संवाद और गीत लेखक एएम तुराज भी जुड़े रहे हैं। कुल मिलाकर इस सीरीज को मिश्रित समर्थन मिल रहा है। मेरा अपना मानना है कि हमें अपने संसाधनों का उपयोग अपने नायकों के गौरव और अपने राष्ट्र के गौरव को बढ़ाने में करना चाहिए।

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का वक्त अब जा चुका है। अब वक्त उसे ठीक करने का है। इसमें दर्शक वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि वे अच्छे कंटेंट को अपना समर्थन देंगे तो उसी तरह का कंटेंट बनाने के लिए फिल्मकार मजबूर होंगे। आज का दर्शक जागरूक है। अब वे किसी बात को ऐसे ही स्वीकार नहीं करता है। ये बात ‘शेरशाह’ को मिली सफलता और ‘भुज द प्राइड‘ को मिली असफलता से सिद्ध हो जाती है। वहीं जिस तरह से ‘द एम्पायर’ का विरोध हो रहा है, उससे आगे की कड़ियों को बनाने से पहले निर्माताओं को अवश्य सोचना पड़ेगा। चलते-चलते यदि समय मिले तो अक्षय कुमार की ‘बैलबॉटम’ देखिएगा। ये हमारे रॉ के जाबांजों के मिशन पर आधारित एक साफ सुथरी फिल्म है।

 

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