हिन्दू त्यौहार और उनसे जुड़े आर्थिक समीकरण

दुर्गा पूजा और नवरात्रि पर शुरू हुआ भारत के त्योहारों का एक मौसम दीपावली के बाद भाई दूज पर आकर थोड़ी देर ठहरता है। ठहरता इसलिय क्योंकि त्यौहार यहीं ख़त्म नहीं होते। ये जरूर कहा जा सकता है कि दुर्गा-पूजा के अवसर पर कपड़ों की खरीदारी होती है और परम्परागत रूप से धनतेरस सोने, बर्तन और रसोई से जुड़े सामान, गाड़ियों इत्यादि की खरीद का भी मौसम होता है, इसलिए इनकी तुलना में आस पास के दूसरे पर्व थोड़े फीके जरूर नजर आते हैं।
बिहार के लिए दीपावली के ठीक बाद का समय छठ पर्व का समय होता है। इससे बाजार के आर्थिक हित नहीं जुड़े होते इसलिए इस त्यौहार को एक ख़ास आयातित विचारधारा के साहित्य, सिनेमा, नाटकों में जगह नहीं दी गयी। इसी दौर में एक और भी त्यौहार होता है जिसे पुराने दौर के बिहार और अब के ओड़िसा में मनाया जाता है। कार्तिक की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला ये त्यौहार है “बाली यात्रा”। कट्टक के क्षेत्र में महानदी के किनारे मनाये जाने वाले इस त्यौहार में लोग छोटी छोटी नाव बनाकर नदियों (तालाबों में भी) तैराते हैं।
बाली यात्रा उन व्यापारियों के घर लौटने के अवसर पर मनाई जाती थी, जो समुद्री मार्ग से बाली, चीन जैसे दूसरे देशों में व्यापार के लिए जाते थे। करीब करीब इसी समय वो घर लौटते थे इसलिए ये त्यौहार होता था। जिस प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन सांग का नाम आपने स्कूल की किताबों में पढ़ा था और संभवतः उसकी तस्वीर भी देखी होगी, वो भारत आया तो पैदल था, मगर वो भारत से लौटा कैसे था? वो एक ऐसे जहाज में लौटा था जिसमें उसके साथ करीब दो-ढाई सौ यात्री थे। दो ढाई सौ लोगों को समुद्र में ले जाने लायक जहाज उस दौर में?
हाल में आई “ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान” के समुद्री जहाज तो काल्पनिक हैं न? फिर गाँधी जी भी तो कहा करते थे कि उनके घर के लोग उन्हें विदेश नहीं भेजना चाहते थे क्योंकि विदेश जाने से “धर्म” भ्रष्ट हो जाता था। फिरंगी ईसाइयों ने जब ओड़िसा पर कब्ज़ा किया तो बड़े जहाजों को बनाने पर पाबन्दी लगा दी थी। सिर्फ पचास साल की ईसाई कानूनों की पाबन्दी में गांधी ये मानने लगे थे कि विदेश जाने से धर्म भ्रष्ट होगा! सबरीमाला, दीपावली के पटाखे, दही-हांडी की ऊंचाई जैसे मामलों पर बने मैकले मॉडल के कानून भी ऐसे ही काम करेंगे।
फिर कहा जाएगा कि भारत तो विविध संस्कृतियों को जगह ही नहीं देता। सिर्फ कहने के लिए भारत विविधताओं का देश है, यहाँ अल्पसंख्यकों की परम्पराएं कुचल दी जाती हैं ये मान लिया जाएगा। थोड़ा सोचने पर ये भी ध्यान में आएगा कि “विदेश जाने से धर्म भ्रष्ट होगा” के मनगढ़ंत अंधविश्वास को तोड़ने के लिए कोई आन्दोलन नहीं चलाना पड़ा। धर्म ऐसी सामाजिक विकृतियों से अपने आप निपट लेने के लिए कोई “इम्यून सिस्टम” जैसी चीज़ शायद रखता हो। कानून के जरिये सामाजिक बदलाव लाने की मूर्खतापूर्ण कोशिश का फायदा नहीं होता ये वो पहले ही जानते हैं।
इसके वाबजूद भी वो काले कानून, शांतिप्रिय और सहिष्णु प्रवृति के सनातनियों पर थोपने में रत्ती भर भी नहीं हिचकिचाते। विधायिका का काम कानून बनाना होता है और न्यायपालिका कानूनों के सही पालन की देखभाल के लिए होती है। सीधा सीधा विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करके लोकतंत्र को वो अपने बूटों तले रोंदते भी रहे हैं। एन.जी.ओ. गिरोहों की सहायता से सड़कों पर भीड़ जुटाना और फिर उन्हीं एन.जी.ओ. गिरोहों के दाखिल किये पी.आई.एल. पर कोई कानूनी व्याख्या थोप देना बार बार होता रहा है। सनातनियों ने ऐसे आदेशों की सविनय अवज्ञा भी शुरू कर दी है।
बाकी ये सविनय अवज्ञा के साथ उठा विरोध कब विद्रोह में बदल जाएगा, इसपर कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रेशर कूकर की सीटी जैसा जो कांग्रेस पार्टी बना देने की फिरंगियों की कार्यशैली थी, वो कुछ काठ की हांड़ी जैसी थी। सबरीमाला मुद्दे पर भाजपा और आरएसएस को भी अपना मत बदलना पड़ा है। देर सवेर दूसरे मुद्दों पर भी लोकतंत्र को जनता की ही सुननी पड़ेगी।
कभी कभी पशुओं के चोर की कहानियाँ पढ़ने में आती हैं जिनमें पशु चोर को काफी चतुर बताया जाता है। कहा जाता है कि वो पशु को एक तरफ ले जाते हैं और उसकी घंटी उल्टी दिशा में लेकर भागने के बाद कहीं फेंक देते हैं। घंटी की आवाज का पीछा करते ग्रामीणों को अक्सर सिर्फ घंटी मिलती है और चोर सुरक्षित पशु को लेकर निकल जाते हैं। बाद में तो उसका कीमा ही बन जाता है तो पशु तो मिलने से रहा! इस किस्से के साथ बताया जाता है कि पशु तो शिक्षा, रोजगार, महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे हैं …..और घंटी है शमशान-कब्रिस्तान, मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दे।
अब कहानी का चोर चतुर है ….तो उसने यहाँ चतुराई की होगी या नहीं? ये सोचने लायक बात है। थोड़े समय पहले एक परिचित जब कोई जलमहल देखने गए …तो उन्होंने टापू पर बने महल की तरफ जाते हुए रास्ते में मल्लाह से बातचीत शुरू कर दी। इधर उधर की दूसरी बातों के अलावा उन्होंने मल्लाह से पूछा राजा ने यहाँ महल क्यों बनवा दिया था? मल्लाह ने जवाब दिया, नाच-रंग होता था और क्या? मल्लाह कम पढ़ा लिखा है इसलिए सिर्फ स्थूल पर ध्यान देता है। आप उतने कम शिक्षित नहीं, इसलिए त्वरित फैसले के बदले आपको अपनी समझ इस्तेमाल करनी चाहिए।
जंगल में कहीं एक महल बनाने में वहाँ तक का रास्ता बनवाना पड़ा होगा जिसमें लोगों ने काम किया होगा। वहाँ ईट-पत्थर, गारा, रंग-रोगन हुआ होगा जो कहीं से लाया गया होगा। कारीगरों को भी उसमें काम मिला होगा। महल बनवाकर वैसे ही तो छोड़ा नहीं जाता न? उसकी देखभाल के लिए स्थानीय लोगों को रोजगार मिला होगा। महल बनने और राज-पाट ख़त्म होने के करीब सात दशक बाद भी वो जलमहल वहाँ जाते सैलानियों के रूप में रोजगार पैदा कर ही रहा है। जो अशिक्षित रह गए हैं वो भी मल्लाह के रूप में, गाइड-छोटे दुकानदारों के रूप में काम पाते हैं।
पटना में इसका नमूना देखना हो तो हाल में ही यहाँ कुछ फ्लाईओवर और पार्क बने हैं, वहाँ ये नजर आ जाएगा। ऐसे पार्क और फ्लाईओवर के आस पास कई ई-रिक्शा (बैटरी वाली रिक्शा) के चालकों को रोजगार मिलता है। पार्क के आस पास जो दर्जनों चाट-गोलगप्पे, आइसक्रीम-गुब्बारे वाले दिखते हैं, उन सबको एक पार्क बनने से रोजगार मिलता है। मंदिरों के लिए प्रसाद चाहिए और वो कई हलवाइयों को रोजगार देता है। वहाँ फूल चढ़ते हैं जो फूल उगाने वालों, कई मालियों को रोजगार देते हैं।
दुर्गा पूजा का एक मेला ही देख लें तो अंदाजा हो जाएगा कि ये कितना रोजगार पैदा करता है।
अभी से लेकर छठ तक में बाँस के बने सूप-टोकरी का केवल पटना में साढ़े चार करोड़ का व्यवसाय होता है। इसे डोम समुदाय बनाता है। मंदिरों में जाना वाला हर चढ़ावा सरकारी होता है, इसलिए सरकार को भी आय होती है, जिससे शायद सड़क-बिजली-पानी का इंतजाम होता होगा। दिए बनाने वाले कुम्हार, बद्धी (गले में पहनने की माला) बनाने वाले, रूई की बत्ती, सिन्दूर जैसी छोटी मोटी चीज़ों का व्यवसाय भी सबसे पिछले तबकों में से एक को रोजगार देता है।  हाँ, आयातित विचारधारा पर चलने वाले आक्रमणकारी जरूर चाहते हैं कि इन व्यवसायों से आने वाली आमदनी को हथियाया जाए।
मोची से जूते-चप्पल का व्यवसाय छीनकर किसी “मोची” नाम के ब्रांड का फायदा तो हुआ ही है। विशेष अवसरों पर न्योता लाने-ले जाने वाले नाई का व्यवसाय किसी जावेद हबीब को अमीर बनने का मौका तो देगा ही। फल जो कुछ ही दिन पहले किसी एक समुदाय के उपवास के दौरान सस्ते होते हैं, वो किसी ने कब्जाए नहीं होंगे तो वो नवरात्र में महँगे करके कैसे बेचे जाते? हमलावरों के लिए ये बहुत जरूरी था कि उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर किया जाए ताकि उन्हें कुचलना आसान हो। लगातार वर्ष भर चलने वाले पर्व-त्योहारों की भारतीय परम्पराएं शोषितों को फिर से आर्थिक सामर्थ्य दे देती है।
कोई आश्चर्य नहीं कि हमलावर लगातार मुँहकी खाते रहने के बाद भी हर वर्ष हमारे त्योहारों पर आक्रमण करते ही हैं। सबरीमाला में या किसी शनि मंदिर में श्रद्धालु कम आएं तो वो एक ही झटके में कई लोगों का रोजगार छीनकर उन्हें असंतुष्टों में शामिल कर सकेंगे। किले में बंद रहकर सिर्फ रक्षात्मक नीतियों से लड़ाई लम्बे समय तक जारी नहीं रखी जा सकती। इस शक्ति पूजन के पर्व में कमसे कम किले की दीवार से पत्थर फेंकना तो शुरू करना ही चाहिए न? अपने पक्ष वाला कम से कम कोई दूषित सामग्री पूजा में देने के लिए तो नहीं भेजेगा। हवन-पूजन की सामग्री, फूल-प्रसाद जैसी चीज़ें जहाँ से लेने की सोच रहे हैं, उसका नाम तो पूछ लिया है न? छठ पर्व में साफ-सफाई, स्वच्छता और शुचिता का बहुत ध्यान रखना होता है।
आनन्द कुमार

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