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सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की छाया में गणतंत्र

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की छाया में गणतंत्र

by प्रमोद भार्गव
in जनवरी- २०२२, विशेष, सामाजिक
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बदलाव की चेतना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने में आई थी। इसीलिए इसे भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोतर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणाम स्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई।

भारतीय गणतंत्र स्वतंत्रता के 75वें अमृत महोत्सव में सांस्कृतिक-आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की छाया में आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है। सनातन हिंदू संस्कृति ही अखंड भारत की सरंचना का वह मूल गुण-धर्म है, जो इसे हजारों साल से एक रूप में पिरोये हुए है। इस एकरूपता को मजबूत करने की दृष्टि से भगवान परशुराम ने मध्यभारत से लेकर अरुणाचल प्रदेश के लोहित कुंड तक आताताईयों का सफाया कर अपना फरसा धोया, वहीं राम ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक और कृष्ण ने पश्चिम से लेकर पूरब तक सनातन संस्कृति की स्थापना के लिए सामरिक यात्राएं कीं। इसीलिए समूचे प्राचीन आर्यावर्त में वैदिक और रामायण व महाभारत कालीन संस्कृति के प्रतीक चिन्ह मंदिरों से लेकर विविध भाषाओं के साहित्य में मिलते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इन्हीं स्थापनाओं ने ही दुनिया के गणतंत्रों में भारत को प्राचीनतम गणतंत्रों में स्थापित किया। यहां के मथुरा, पद्मावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिंदू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे। केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था। लेकिन भक्ति, अतिरिक्त उदारता, सहिष्णुता, विदेशियों को शरण और वचनबद्धता जैसे भाव व आचरण कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोष रहे, जिनकी वजह से भारत विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देश में बदलता चला गया है कि राजनीति के एक पक्ष ने इन्हीं कमजोरियों को सत्ता पर काबिज होने का पर्याय मान लिया। परंतु पिछले 7 साल में न केवल देशव्यापी बल्कि विश्वव्यापी आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने में आ रहे हैं। इनमें धारा-370 और 35-ए के खात्मे के अलावा नागरिकता संशोधन से जुड़े वे विधेयक भी हैं, जो भारत की धरती पर अवैध घुसपैठ रोकने के साथ, घुसपैठियों को देश से बाहर करने का अधिकार भी शासन-प्रशासन को देते हैं। इन सभी बदलावों के पैरोकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं।

इस दृष्टि से वाराणसी का कायाकल्प राम मंदिर के पुनर्निमाण के शिलान्यास के बाद सांस्कृतिक पुनरोद्धार का नया उदाहरण हैं। नरेंद्र मोदी द्वारा गंगा में डुबकी आध्यात्मिक पुनर्जागरण का ऐसा उपाय है, जिससे स्वतंत्रता के बाद के सभी शासक कथित धर्मनिरपेक्षता आहत न हो जाए, इस कारण बचते रहे हैं। किंतु इस डुबकी ने तय कर दिया कि गंगा की पवित्रता तो बहाल हुई ही है, हाशिए पर डाल दिए गए सांस्कृतिक मूल्य भी बहाल हुए हैं। जिनका 1400 साल पहले भारत भूमि पर इस्लाम के प्रवेश के बाद दमन होता चला आ रहा था। इस तलवार की धार से किए गए इस दमन का ही परिणाम था कि लाखों हिंदू मुसलमान बन गए किंतु अब धारा बदल रही है। शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष वसीम रिजवी ने इस्लाम धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया। उन्होंने डासना के मंदिर में यति नरसिंहानंद सरस्वती से हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार सनातन धर्म को पत्नी सहित स्वीकार कर अपना नाम भी जितेंद्र नारायण सिंह त्यागी रख लिया। उन्होंने माथे पर त्रिपुंड तिलक लगाया और भगवा वस्त्र भी धारण किए। दूसरी तरफ उत्तर की यह बयार दक्षिण पहुंची और मलयालम फिल्मों के जाने-माने फिल्म निर्माता अली अकबर ने पत्नी सहित हिंदू धर्म अपना लिया। उन्होंने इस धर्म परिवर्तन का कारण जनरल बिपिन रावत की मृत्यु पर की गईं उन अनर्गल टिप्पणियों को बताया जो एक सैनिक की शहादत पर नहीं की जानी चाहिए थी। इन हस्तियों के धर्म परिवर्तन से आम मुस्लिमों में इस्लाम छोड़ने की मानसिकता बन रही है। इनके पहले इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति की बेटी सुकमावती ने भी इस्लाम छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया था। इन बदलावों का असर अब वैश्विक रूप में भी दिखाई दे रहा है।

इसी तरह के बदलाव की चेतना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने में आई थी। इसीलिए इसे भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोतर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणाम स्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई। भारत के स्वतंत्रता समर का यह एक वैश्विक आयाम था, जिसे कम ही रेखांकित किया गया है। इसके वनिस्वत फ्रांस की क्रांति की बात कही जाती है। निसंदेह इसमें समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के तत्व थे, लेकिन एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की अवाम उपेक्षित थी। अमेरिका ने व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता और सुख के उद्देश्य की परिकल्पना तो की, परंतु उसमें स्त्रियां और हब्शी गुलाम बहिष्कृत रहे। मार्क्स और लेनिनवाद ने एक वैचारिक पैमाना तो दिया, किंतु वह अंततः तानाशाही साम्राज्यवाद का मुखौटा ही साबित हुआ। इस लिहाज से स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के ही विचार थे, जो सम्रगता में न केवल भारतीय हितों, बल्कि वैश्विक हितों की भी चिंता करते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में विनायक दामोदर सावरकर ने प्रखर हिंदुत्व और दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद एवं अंत्योदय के विचार दिए, जो संसाधनों के उपयोग से दूर अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान की चिंता करते हैं।

बावजूद देश में जो सबसे बड़ा संकट देखने में आ रहा है, वह बिगड़ता जनसंख्यात्मक घनत्व और 9 राज्यों में अल्पसंख्यक होते हिंदू है। इसीलिए समान नागरिक संहिता और प्रजनन में एकरूपता की मांग उठ रही है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और बांग्लादेशी मुस्लिमों की अवैध घुसपैठ, अलगाववादी हिंसा के साथ जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ने का काम कर रही है। कश्मीर से 1989-90 में आतंकी दहशत के चलते मूल कश्मीरियों के विस्थापन का सिलसिला जारी हुआ था। इन विस्थापितों में हिंदू, डोगरे, जैन, बौद्ध और सिख हैंं। उनके साथ धर्म व संप्रदाय के आधार पर ज्यादती हुई और संपूर्ण निदान आज तक नहीं हुआ। इधर असम क्षेत्र में 4 करोड़ से भी ज्यादा बांग्लादेशियों ने नाजायज घुसपैठ कर यहां का जनसंख्यात्मक घनत्व बिग़ाड दिया है। नतीजतन यहां नगा, बोडो और असमिया उपराष्ट्रवाद विकसित हुआ। इसकी हिंसक अभिव्यक्ति अलगाववादी आंदोलनों के रूप में जब-तब देखने में आती रहती है। 1991 की जनगणना के अनुसार कोकराझार जिले में 39.5 फीसदी बोडो आदिवासी थे और 10.5 फीसदी मुसलमान। किंतु 2011 की जनगणना के मुताबिक आज इस जिले में 30 फीसदी बोडो रह गए हैं, जबकि मुसलमानों की संख्या बढ़कर 25 फीसदी हो गई है। कोकराझार से ही सटा है, धुबरी शहर। धुबरी जिले में 12 फीसदी मुसलमान थे, लेकिन 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 98.25 फीसदी हो गई है। धुबरी अब भारत का सबसे घनी मुस्लिम आबादी वाला जिला बन गया है। 2001 की जनगणना के मुताबिक असम के नौगांव, बरपेटा, धुबरी, बोंगई गांव और करीमनगर जैसे 9 जिले में मुस्लिम आबादी की संख्या हिंदु आबादी से ज्यादा है। तय है घुसपैठ ने भी आबादी का घनत्व बिगाड़ने का काम किया है। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में हिंदुओं का ईसाईकरण भी तेजी से बढ़ रहा है।

यहां गौरतलब है कि असम समेत समूचा पूर्वोत्तर क्षेत्र भारत से केवल 20 किलोमीटर चौड़े एक भूखण्ड से जुड़ा है। इन 7 राज्यों को सात बहनें कहा जाता है। यह भूखण्ड भूटान, तिब्बत, म्यांमा और बांग्लादेश से घिरा है। इस पूरे क्षेत्र में ईसाई मिशनरियां सक्रिय हैंं, जो शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं के बहाने धर्मांतरण का काम भी कर रही हैं। इसी वजह से इस क्षेत्र का नागालैंड ऐसा राज्य है, जहां ईसाई आबादी बढ़कर 98 प्रतिशत के आंकड़े को छू गई है। केरल में भी ईसाईकरण तेजी से हो रहा है। बावजूद इसके भारतीय ईसाई धर्मगुरू कह रहें हैं कि ईसाईयों की आबादी बीते ड़ेढ़ दशक में घटी है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। चर्चों में होने वाली प्रार्थना सभाओं में इस संदेश को प्रचारित किया जा रहा है। इस पर कोई हंगामा खड़ा नहीं होता, जबकि संघ या भाजपा से जुड़ा कोई व्यक्ति आबादी नियंत्रण की वकालत करता है तो तत्काल हो-हल्ला शुरू हो जाता है। इस संवेदनशील मुद्दों को संजीदगी से लेने की जरूरत है। अतएव सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अक्षुण्णता के लिए घुसपैठ और धर्मांतरण पर अंकुश के कठोर उपाय जरूरी हैं।

 

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