जो राष्ट्र अपने नायकों को नहीं पहचानता, उनका सम्मान नहीं करता— वह जीवित रहने का अधिकार खो देता है। पहले भारत का तीन हिस्सों (खंडित भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में विभाजित होना, फिर कश्मीर के एक तिहाई पर कब्जा हो जाना और 1962 के चीन युद्ध में देश की शर्मनाक हार होना— इसी रोग के कुछ लक्षण है। ‘देर आए दुरुस्त आए’— एक पुरानी कहावत है, जो दिल्ली में 23-25 नवंबर को संपन्न हुए कार्यक्रम पर बिल्कुल चरितार्थ होती है। असम के अहोम योद्धा लाचित बोरफुकन की 400वीं जयंती पर दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इसके समापन समारोह में शामिल हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत का इतिहास केवल गुलामों का नहीं, योद्धाओं का भी है। किंतु देश के वीरों का इतिहास दबाया गया। क्या यह सत्य नहीं कि मार्क्स-मैकॉले मानस प्रेरित इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को सर्वाधिक विकृत किया है। यही कारण है कि अधिकांश पाठक लाचित बोरफुकन के नाम से शायद ही परिचित होंगे। क्या यह परिदृश्य देश के समक्ष एक बड़ी चुनौती नहीं?
आखिर वीर लाचित कौन थे? जब वर्ष 1663 में तत्कालीन अहोम राजा जयध्वज क्रूर औरंगजेब की सेना से पराजित हुए, तब कालांतर में उनके उत्तराधिकारी राजा चक्रध्वज ने औरंगजेब के समक्ष झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने जलीय युद्ध-रणनीति में पारंगत लाचित बोरफुकन को अपना सेनापति बनाया। भीषण संघर्ष के बाद 1671 में लाचित के नेतृत्व में योद्धाओं ने सरायघाट में विशाल मुगलिया सेना को परास्त कर दिया। यह घटना उसी सतत संघर्ष का हिस्सा है, जिसे राणा सांगा, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज, जाट आदि साधु-संतों के साथ धर्मरक्षक सिख गुरु परंपरा ने अदम्य साहस का परिचय देकर भारत की सनातन संस्कृति की रक्षा की।
लाचित का पराक्रम उस मार्क्स-मैकॉले चिंतन को भी ध्वस्त करता है, जिसमें अक्सर कहा जाता है कि अंग्रेजों के कारण पूर्वोत्तर भारत का उभार हुआ। यह संयोग है कि जिस समय लाचित की यशगाथा का स्मरण किया जा रहा था, उसी दिन देशभर में सिख पंथ के नौंवे गुरु ‘हिंद दी चादर’ तेग बहादुरजी का बलिदान दिवस मनाया गया। 347 वर्ष पूर्व, इस्लाम अपनाने से इनकार करने पर औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुरजी के पवित्र धड़ से सिर को तलवार के प्रहार से अलग करवा दिया था, जिसका साक्षी लालकिले के समक्ष विद्यमान गुरुद्वारा शीशगंज साहिब आज भी है।
यह पीड़ादायक है कि भारतीय समाज का एक विकृत वर्ग आक्रांताओं से लड़ने वाले लाचित बोरफुकन आदि वीरों के बजाय उन आततायियों का महिमामंडन अधिक करते है, जिन्होंने यहां की मूल बहुलतावादी सनातन संस्कृति को नष्ट किया, साथ ही इस भूखंड की अस्मिता और सामाजिक जीवन के मानबिंदुओं को भी रौंद डाला। उनके मजहबी उन्माद में हजारों मंदिर धूल-धूसरित हो गए, असंख्य निरपराधों को या तो तलवार के बल पर मतांतरित कर दिया या फिर बीभत्स मजहबी उत्पीड़न के बाद मौत के घाट उतार दिया गया। इन्हीं आततायियों में से एक टीपू सुल्तान भी था।
क्या टीपू सुल्तान भारत का नायक हो सकता है? मैसूर पर टीपू का 17 वर्षों (1782-1799) तक राज रहा था। स्वघोषित सेकुलरिस्ट (कांग्रेस सहित), मुस्लिम समाज का एक वर्ग और वाम इतिहासकारों ने साक्ष्यों को विकृत करके टीपू सुल्तान की छवि एक राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता सेनानी और पंथनिरपेक्षी-मूल्यों में विश्वास रखने वाले शासक के रूप में गढ़ी है। यदि टीपू भारत का स्वतंत्रता सेनानी था, जो देश के लिए अंग्रेजों से लड़ा और इसी आधार पर उसे मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहिब पेशवा-2 आदि योद्धाओं और राजा-रजवाड़ों के साथ गांधीजी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस रूपी क्रांतिकारियों की पंक्ति में खड़ा किया जाता है, तो पाकिस्तान का दिल केवल कासिम, बाबर, ग़ौरी, गजनवी के साथ टीपू जैसे इस्लामी आक्रांताओं के लिए ही क्यों धड़कता है? यह दिलचस्प है कि ब्रितानियों से लड़ने वाला टीपू और अंग्रेजों के वफादार सैयद अहमद खां— दोनों भारतीय उपमहाद्वीप में एक विशेष वर्ग के लिए ‘महान’ है। क्या इसका कारण दोनों की वह मानसिकता नहीं, जिसे ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है?
यह सच है कि टीपू ने ब्रितानी साम्राज्य से लोहा लिया था। क्या इस आधार पर हम कुख्यात तानाशाह अडोल्फ हिटलर का यशगान करने लगे, क्योंकि उसने भी ब्रितानियों के खिलाफ युद्ध किया था? आखिर टीपू अंग्रेजों से क्यों लड़ा? यदि उसकी मंशा ब्रितानियों को भारत से खदेड़ने की थी, तो उसने अन्य औपनिवेशिक यूरोपीय शक्ति से सहायता क्यों मांगी? यह घोषित सत्य है कि टीपू ने अंग्रेजों के खिलाफ फ्रांसीसी शासक लुईस-16 से सैन्य मदद मांगी थी। इसके अतिरिक्त, उसने अफगानिस्तान, तुर्की और अन्य मुस्लिम देशों से भी सैन्य सहायता मांगी थी।
इन्हीं तथ्यों को वाम-इतिहासकार और स्वयंभू सेकुलरिस्ट अक्सर ब्रितानियों का झूठा प्रचार बताते है। आखिर टीपू की मानसिकता क्या थी, यह उसके द्वारा अपने सैन्य अधिकारियों को भेजे पत्रों से स्पष्ट है, जिसमें मैं एक को उद्धृत करना चाहूंगा। 18 जनवरी 1790 को भेजे पत्र में सैयद अब्दुल दुलाई को टीपू सुल्तान ने लिखा था, “पैगंबर साहब और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिंदुओं को इस्लाम कबूल करवाया गया है। केवल कोचिन में कुछ छूट गए हैं, जिन्हें मैं जल्द ही मुसलमान बनाने के लिए संकल्पबद्ध हूं। मेरा जिहाद इस लक्ष्य को प्राप्त करना है।” क्या ऐसे कई पत्राचारों से टीपू सुल्तान के वास्तविक चरित्र और उसके मजहबी चिंतन का आभास नहीं होता?
तर्क दिया जाता है कि यदि टीपू सुल्तान सांप्रदायिक होता, तो उसके दरबार में कई हिंदू ब्राह्मण क्यों होते? यदि इस कुतर्क को आधार बनाए, तो अंग्रेजों के लिए लड़ने वाले सैनिक, उनके राज में कार्यरत कर्मचारी/अधिकारी और यहां तक भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव को फांसी पर लटकाने वाले कौन थे? क्या वे शत-प्रतिशत जन्म से भारतीय नहीं थे? क्या इससे ब्रितानियों से मिली प्रताड़ना कम हो जाती है ? यदि देशभक्ति इस देश की बहुलतावादी सनातन संस्कृति, उसके मान-बिंदुओं और परंपराओं को सम्मान देने का पर्याय है, तो निर्विवाद रूप से उस कसौटी पर क्रूर टीपू सुल्तान को राष्ट्रभक्त और सहिष्णु कहना— सच्चे राष्ट्रीय नायकों (लाचित बोरफुकन सहित) का अपमान है।
– बलबीर पुंज