भारी मतदान का अर्थ हैभाजपा की दस्तक

कश्मीर घाटी में परिवर्तन की लहर चल रही है। पिछले ६७ साल से रंग बदल-बदल कर राज्य कर रहे दो तीन परिवारों की लूटखसोट और उनके कुशासन से लोग तंग आ चुके हैं इसलिए परिवर्तन को वोट दे रहे हैं।… इसमें कोई शक नहीं कि यह मतदान प्रकारान्तर से आतंकवाद के ख़िलाफ़ मतदान है।

जब पाठकों के पास यह अंक जाएगा तब तक जम्मू- कश्मीर विधान सभा के सभी परिणाम घोषित किए जा चुके होंगे। चुनाव परिणाम क्या होगा, इसका अभी से अनुमान लगाना बेमानी होगा, लेकिन जिस बात पर आज सब से ज़्यादा चर्चा हो रही है वह यह है कि पूरे राज्य में, ख़ासकर कश्मीर घाटी में जितना भारी मतदान हुआ है, वह क्या संकेत देता है? उसका विश्लेषण दो प्रकार से ही हो सकता है और हो भी रहा है। पहला विश्लेषण तो यही है कि भारी मतदान का विश्लेषण विभिन्न राजनैतिक दलों के लिए प्राप्त सीटों को आधार बना कर किया जाए। लेकिन फ़िलहाल इसका कोई अर्थ नहीं है। कौन जीता, कौन हारा यह महत्वपूर्ण नहीं है। कश्मीर घाटी में इतनी तादाद में मतदाता मतदान केन्द्रों पर पहुंचा है, इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है? इसको जानने का प्रयास और भी महत्वपूर्ण है। आतंकवाद शुरू होने से पहले घाटी में लोग इसलिए चुनाव में रुचि नहीं लेते थे कि उनको लगता था वोट से कुछ नहीं बदलेगा। मतपेटियों में हेराफेरी करके राज्य का तख़्त उसी को सौंप दिया जाएगा, जिसे दिल्ली चाहेगी। बाद में आतंकवाद से पीड़ित घाटी में लोग या तो भय से या फिर पहले से ही व्याप्त उदासीनता के कारण मतदान के लिए इतनी संख्या में नहीं निकलते थे। आतंकवादियों द्वारा चुनाव के बहिष्कार का आह्वान तो होता ही था। लेकिन वह तो इस बार भी था। सैयद अली शाह गिलानी तो अभी भी कश्मीर घाटी में अपने गिलानी प्रदेश की तुर्की ही बजा रहे थे और लोगों को मतदान के दिन घरों के अंदर रहने की चेतावनी दे रहे थे। लेकिन लोग उसकी परवाह न करते हुए मत देने के लिए आए। पहले घाटी में लोगों को लगता था कि वोट देने से क्या होगा? निज़ाम तो बदलेगा नहीं। सरकार तो या अब्दुल्लाओं की रहेगी या फिर सैयदों की। जिसका हाथ दिल्ली थाम लेगी वही जम्मू- कश्मीर का बादशाह होगा। लेकिन इस बार मतदान प्रतिशत ने सभी पंडितों को हैरत में डाल दिया। शायद पहली बार लोगों को विश्वास हुआ है कि राज्य में सरकार वही बनेगी, जिसे राज्य के लोग बनाना चाहेंगे। इस आत्मविश्वास ने भी मतदान के प्रतिशत का रिकार्ड बनाने में सहायता की है। जम्मू कश्मीर में ७० प्रतिशत से भी ज़्यादा मतदान हुआ।

यदि केवल कश्मीर घाटी की बात की जाए तो २५ नबम्वर को मतदान के पहले चरण में उत्तरी कश्मीर के गन्दरबल और बन्दीपुरा ज़िलों के पांच विधान सभा क्षेत्रों, गन्दरबल, कंगन, बन्दीपोर, सोनावारी और गुरेज़ में ७० प्रतिशत से भी ज़्यादा मतदान हुआ। इसी प्रकार दो दिसम्बर को मतदान के दूसरे चरण में कुपवाडा और अनंतनाग जिलों के नौ विधान सभा क्षेत्रों यथा देवसर, होमेशलीबग, नूराबाद, कुलगाम, लंगेट, हंदवाडा, लोलाब, कुपवाडा और करनाह इत्यादि में मतदान का प्रतिशत भी पहले चरण की तरह ७० प्रतिशत के आसपास ही रहा। ज़ाहिर है इससे पाकिस्तान में भी और आतंकवादी खेमे में खलबली मचती। क्योंकि आतंकवाद तब तक ही सफल होता है, जब तक लोग आतंक के साये में अपने दडबों में दुबक कर बैठे रहे। अभी तक जम्मू-कश्मीर में यही हो रहा था। अल्पसंख्यक लोगों ने बंदूक़ के बल पर बहुसंख्यक समाज को बंधक बनाया हुआ था। दुर्भाग्य से राजनैतिक दल भी अपनी-अपनी राजनैतिक सुविधा के अनुसार इन आतंकवादी गिरोहों की सहायता लेते रहते हैं। राज्य में हुर्रियत कान्फ्रेंस तो आतंकवादी गिरोहों का अप्पर ग्राउंड संगठन ही माना जाता है। लेकिन पहले दो चरणों में मतदान केन्द्रों पर उमड़ी भीड़ ने इन आतंकवादी गिरोहों को सर्दी में भी पसीने ला दिए।

कश्मीर घाटी में काम कर रहे आतंकवादी गिरोहों की साख तभी बच सकती थी यदि लोगों को एक बार फिर भयभीत करके चुनाव से विमुख किया जा सके। उसके लिए पाकिस्तान ने आतंकवादियों को आगे करके नियंत्रण रेखा के पास उड़ी में सैन्य बलों के शिविर पर छह आतंकवादियों के आत्मघाती दस्ते द्वारा ५ दिसम्बर को आक्रमण किया। इस हमले में आठ सैनिकों व पुलिस के तीन सिपाहियों समेत १२ लोग मारे गए। सभी आतंकवादी भी मारे गए। इसके दो दिन बाद इन्हीं क्षेत्रों में तीसरे चरण का मतदान होने वाला था। उधर चुनाव का बहिष्कार करने वाले गिरोह ने अपनी आवाज़ ही ऊंची नहीं दी बल्कि इस हमले का हवाला देकर धमकियां भी देनी शुरू कर दीं। सभी को लगता था आतंकवादियों और पाकिस्तान की इस चेतावनी के बाद मतदान केन्द्रों पर फिर सन्नाटा छा जाएगा। इस चरण में बडगाम ज़िला की पांच और अनंतनाग ज़िले की चार विधान सभा क्षेत्रों पर मतदान होना था। मतदान समाप्त होने पर पता चला कि जम्मू-कश्मीर में इस तीसरे चरण में ५८ प्रतिशत से भी ज़्यादा मतदान हुआ। झारखंड में इसी चरण के मतदान में साठ प्रतिशत के आसपास मतदान रहा। आतंकवादियों का लोगों को डराने का सपना पूरा न हो सका।

जम्मू-कश्मीर में इतने भारी मतदान को देखते हुए यूरोपीय संसद ने बाक़ायदा इसकी सराहना की। संसद ने कहा कि ७० प्रतिशत मतदान से स्वतः सिद्ध होता है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। कश्मीर में अलगाववादियों के बहिष्कार के आह्वान के बावजूद इतनी भारी संख्या में लोग मतदान के लिए आए, विशेष कर युवा और महिला वर्ग। यह भारत में लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। संसद की ओर से जारी इसी प्रेस रिलीज़ में कहा गया कि इतना भारी मतदान, अलगाववादी गुटों, जो भारत के पड़ोसी देश के इशारे पर चलते हैं, की ओर से किए गए दावों को झुठलाता है। यूरोपीय संघ ने जम्मू-कश्मीर में निष्पक्ष और हिंसारहित चुनाव करवाने के लिए भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सराहना की। संसद ने कहा कि इससे यह भी सिद्ध हो गया है कि कश्मीर के लोगों का भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूरा विश्वास है और वे देश का अभिन्न अंग बने रहना चाहते हैं। यूरोपीय संसद के ये उद्गार अपने आप में ही कितना कुछ बयान कर देते हैं।

घाटी में इस भारी मतदान के पीछे क्या कारण हो सकता है?

१. क्या लोग लगभग तीन दशकों से चले आ रहे आतंक के युग से तंग आ चुके हैं और आतंकियों द्वारा पूरी घाटी को बंधक बनाकर रखे गए अभियान को समाप्त करना चाहते हैं?

२. या फिर लोग समझ गए हैं कि आतंकवाद के रास्ते से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। इसी के चलते राज्य प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ गया है। इसलिए विकास और आशा के नए रास्ते को चुनना चाहिए।

३. या फिर घाटी के मुसलमान भारतीय जनता पार्टी की घाटी में दी जा रही दस्तक से घबरा गए हैं और इसलिए उसे परास्त करने के लिए भारी संख्या में मतदान केन्द्रों में पहुंच रहे हैं ?

अब इन तीनों संभावनाओं पर सिलसिलेवार विचार किया जाए। सबसे पहले तीसरी संभावना पर ही। यदि घाटी में भाजपा की दस्तक से घबराकर एकजुट होने की बात होती तो आतंकवादी लोगों से चुनाव के बहिष्कार की अपील न करते बल्कि वे तो उन्हें यह अपील करते कि भारी संख्या में मतदान करके घाटी में भाजपा के प्रवेश को रोको। वैसे भी यदि यह भी मान लिया जाए कि अभी भी भाजपा घाटी में मुख्य राजनैतिक खिलाड़ियों में शामिल नहीं है लेकिन उसने अपनी स्थिति इस प्रकार की तो बना ही ली है कि घाटी में अब उसकी अवहेलना तो नहीं ही की जा सकती। भाजपा ने पहली बार कश्मीर घाटी की ४६ सीटों में से ३२ पर मुसलमान प्रत्याशी उतारे हैं। श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में जिस प्रकार भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की जन सभा करवाई, उससे विरोधियों ने भी स्वीकार किया कि मोदी फ़ैक्टर घाटी में प्रवेश कर गया है। इक्कतीस साल के बाद पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने श्रीनगर में रैली करने का साहस दिखाया है। इस सभा में एक लाख की भीड़ मोदी को सुनने के लिए ठंड में भी कई घंटे उनका इंतज़ार करती रही। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जब यह कहना शुरू कर दिया कि इस रैली में जम्मू से लोग लाए गए या फिर सज्जाद लोन की पार्टी ने भीड़ जुटाई, तो उसी वक़्त अंदाज़ा हो गया था कि इस रैली की सफलता से कश्मीर घाटी की दोनों पार्टियां घबरा गईं हैं। सैयद टोली के मुफ़्ती मोहम्मद ने तो साफ़ ही कहना शुरू कर दिया कि जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है, भारतीय जनता पार्टी इसकी प्रकृति को बदलने की कोशिश न करे।

फ़िलहाल यह माना जा रहा है कि घाटी में परिवर्तन की लहर चल रही है। पिछले ६७ साल से रंग बदल-बदल कर राज्य कर रहे दो तीन परिवारों की लूटखसोट और उनके कुशासन से लोग तंग आ चुके हैं इसलिए परिवर्तन को वोट दे रहे हैं। ख़ासकर युवा पीढ़ी में यह उत्साह ज़्यादा देखने में मिलता है।

पहली दो संभावनाओं को देखें तो इसमें कोई शक नहीं कि यह मतदान प्रकारान्तर से आतंकवाद के ख़िलाफ़ मतदान है। राज्य में, ख़ासकर गुज्जर, शिया समाज, जनजाति समाज जैसे अल्पसंख्यक समुदाय जिस प्रकार घाटी में खुलकर भाजपा के चुनाव अभियान से जुड़े हैं, उससे आम व्यक्ति का आतंकवाद के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा झलकता है। भारतीय जनता पार्टी द्वारा पूरे राज्य में इस बार चलाया गया अभियान भी अपने आप में अनूठी घटना है। अभी तक भाजपा और उसके पूर्व अवतार जनसंघ की हाज़िरी जम्मू संभाग के दो जिलों तक ही सिमटी रहती थी। भाजपा को अमरनाथ आन्दोलन के बाद मिली ११ सीटें उसकी अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन इस बार नरेन्द्र मोदी की टीम ने जितने आत्मविश्वास से ४४प्लस की बात शुरु की है, उससे पार्टी राज्य की राजनीति के केन्द्र में पहुंच गई लगती है। मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद से बार-बार राज्य में आ रहे हैं। यहां तक कि दीवाली भी उन्होंने सियाचिन में जवानों के साथ मनाई। वे स्वयं अनेक रैलियों को सम्बोधित कर चुके हैं और उनके बाद अमित शाह ने मोर्चा संभाल लिया। शाह तो घाटी के कुछ मुफ़स्सिल स्थानों पर भी जनसभाएं कर आये। राज्य में कोई जीतेगा और कोई हारेगा, लेकिन इस चुनाव के बाद राज्य की, ख़ासकर घाटी की राजनीति सदा के लिये बदल जायेगी। यही पाकिस्तान की चिन्ता का विषय है।

 

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