फैशन मतलब कुछ हट के…

फैशन असीमित है। कब कैसी मोहमाया होगी कह नहीं सकते। आज भारतीय समाज में नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी पर टिप्पणी करने का फैशन है। सोशल मीडिया पर छींकने जैसी सामान्य सी बात को भी पोस्ट करने का फैशन है। फिल्मी दुनिया में बायोपिक और उच्च तकनीक का फैशन है। न्यूज चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज का फैशन है। मोबाइल पर सारी दुनिया को समेट लेने की फैशन है।

फैशन क्या है? कुछ अलग दिखने, कुछ अलग करने, कुछ अलग सोचने का जुनून है फैशन। मेरे विचार से जब कोई एक इंसान कुछ अलग करता है तो वह उसका स्टाइल होता है और जब उसे समाज स्वीकार कर लेता है तो वह फैशन बन जाता है। फैशन अच्छा है या बुरा, सही है या गलत, आवश्यक है या अनावश्यक यह सब बाद की बातें हैं। मुख्य मुद्दा यह समझना है कि इसका इशारा किस ओर है। वस्तुत: यह इंगित करता है बदलाव को। बदलाव व्यक्ति के स्तर पर हुए, पारिवारिक स्तर पर हुए, सामाजिक स्तर पर हुए, राष्ट्रीय स्तर पर हुए और वैश्विक स्तर पर भी हुए। इसलिए फैशन भी व्यक्ति से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक दिखाई देती हैं।

लम्बे समय तक एक ही तरीके से चलने वाले घटनाक्रम के कारण उत्पन्न होने वाली बोरियत को दूर करने के लिए जो कुछ भी नया किया गया वह फैशन हो गया। फिर चाहे वह साड़ी की जगह सलवार कमीज पहनना हो, धोती की जगह पैंट पहनना हो, प्लेन कपड़ों की जगह चेस्ट प्रिंट कपडे पहनना हो, आंखों पर गॉगल लगाना हो, हाई हील के सैंडल पहनना हो, पर्स में 4-5 बैंकों के क्रेडिट-डेबिट कार्ड रखना हो, साल में एक बार परिवार के साथ विदेश का दौरा करना हो, हफ्ते में एक बार होटल में जाना हो या फिर स्मार्ट फोन के लेटेस्ट वर्जन यूज करना हो। हर बात फैशन का हिस्सा बन चुकी है। खास बात यह है कि कुछ भी नया करने की हिचकिचाहट धीरे-धीरे घटने लगी है, क्योंकि फैशन के नाम पर ‘सब कुछ चलता है।’

साला मैं तो साहब बन गया…

साठ-सत्तर के दशक में अगर कोई बंदा सूट-बूट पहने दिख जाता था तो आमतौर पर उसे ‘साहब’ पुकारा जाता था। क्योंकि उस समय तक आम भारतीय समाज में यह पहनावा ‘आम’ नहीं हुआ था। इस पहनावे से लोगों को अंग्रेजियत की बू आती थी। गुलामी की चुभन को आजादी मिलने के बाद भी महसूस करने वाली जनता इस पहनावे से दूरी ही बनाए रखती थी। दूसरा कारण यह भी था कि उस समय भारतीय समाज का आर्थिक स्तर इतना उच्च नहीं था कि इस तरह के पहनावे को पहन सके और न ही वैसे कारीगर थे जो इतनी मात्रा में सूट बना सके। इसलिए यह पहनावा ‘साहबों’ तक सीमित रहा। आम लोगों में खादी तथा सूती वस्त्रों का चलन अधिक था। तीज-त्यौहारों पर या पूजा आदि में रेशमी वस्त्र पहने जाते थे। इनके अलावा परिधानों में बहुत अंतर नहीं दिखता था। उत्तर के अत्यंत ठंडे प्रदेशों को छोड़ दें तो भारत के अन्य सभी प्रदेशों में थोड़े बहुत परिवर्तन से इसी प्रकार के परिधान पहने जाते थे। धीरे-धीरे सूती धोती और साड़ी पहनने वाला हमारा समाज पैंट शर्ट और सलवार-कुर्ता पहनने लगा। हमेशा जूड़ा या चोटी रखने वाली महिलाओं ने बाल कटवाने शुरू कर दिए। मल्टिनेशनल कम्पनियों के आगमन के बाद तो सूट-बूट पहनना ही फैशन हो गया है। पुरुष ही नहीं महिलाएं भी सूट-बूट पहने नजर आती हैं। ‘आज हम ‘साहबों’ की दुनिया में धोतीवाला ‘आम’ आदमी ढ़ूंढ़ रहे हैं।’

पुराने कपड़ों का नया लुक

कहते हैं फैशन हर दस साल में वापिस आती है। जिस धोती को अस्सी के दशक में चूड़ीदार अचकन पहनने वाले युवा आउटडेटेड कहते थे, वही धोती आज फिर से फैशन में है। बदलाव केवल यह है कि यह धोती पहननी होती है, बांधनी नहीं। पांच मीटर लम्बे कपड़े को विशिष्ट पद्धति से बांधने के बजाय आज के युवा सिली हुई धोती को पाजामे की तरह पहन रहे हैं। आज सूती से लेकर सिल्क और रेशम तक की धोतियां बाजार में हैं।

सलवार-कुर्ते और जीन्स की बढ़ती मांग को देख कर कुछ वर्षों पूर्व ऐसा लगने लगा था कि कहीं भारतीय महिलाएं साडियां ही न भूल जाएं। परंतु ऐसा हुआ नहीं। साड़ियों ने अपना स्थान बरकरार रखा है। बल्कि अब तो धोतियों की तरह साड़ियां भी सिली हुई मिलने लगी हैं। दो अलग-अलग साड़ियों को जोड़कर एक साड़ी बनाना, विभिन्न प्रकार की लेस लगाकर प्लेन साड़ी को आकर्षक बनाना, पहनने के तरीकों में परिवर्तन करके खुद को नया लुक देना इत्यादि साड़ियों पर किए जाने वाले प्रयोग आजकल मार्केट में हैं। पुरानी साड़ियों के कुर्ते, टॉप, लहंगे भी बनाए जा रहे हैं।

अब तो महिलाएं साडियों के साथ ही या कहें उससे ज्यादा ब्लाउस पर ध्यान देने लगी हैं। विभिन्न पैटर्न के और रंगों के ब्लाउज साड़ियों के साथ ही महिलाओं की खूबसूरती भी बढ़ा रहे हैं।

तो भई! चाहे कितनी भी अलग-अलग फैशनेबल चीजें आ जाएं, साड़ी का लुक भले ही बदल जाए पर ‘साड़ी का फैशन कायम रहेगा।’

मुझे नौलखा मंगा दे रे…

भारतीय परिधान और भारतीय मानस दोनों ही आभूषणों के बिना अधूरे हैं। पति या प्रेमी से नौलखा हार मांगने की महिलाओं की रीत पुरानी है। परंतु इसका यह मतलब नहीं कि आभूषणों पर केवल महिलाओं का ही एकाधिकार है। महिलाएं अगर मांग टीका, हार, बाजूबंद, चूड़ी, करधनी, पायल, बिछिया पहनती हैं तो पुरुष भी गले में चेन, कान में कुंडल या बाली, हाथ में ब्रेसलेट और अंगूठियां पहनते हैं।

पहले ये सभी आभूषण मुख्यत: सोने या चांदी के होते थे। हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, मूंगा आदि रत्नों का प्रयोग करके इनकी कलात्मकता में वृद्धि की जाती थी। परंतु आजकल ये आभूषण केवल शादी ब्याह या तीज त्यौहारों पर ही पहने जाते हैं। इसके दो ही मुख्य कारण हैं- पहली तो इनकी कीमतों में हुई वृद्धि और दूसरी असुरक्षा की भावना। इसलिए अब सोने चांदी के आभूषण बैंक लॉकरों की सुंदरता बढ़ा रहे हैं और आर्टिफिशियल या इमिटेशन ज्वेलेरी महिलाओं तथा पुरुषों की। खैर…

बदलते फैशन के साथ अब बाजार में विभिन्न धातुओं से बने आभूषणों से लेकर प्लास्टिक, रबर, लकड़ी से बने आभूषण भी उपलब्ध है। जिस तरह आभूषणों की धातुओं में परिवर्तन आया उसी प्रकार उनके डिजाइन भी बदल गए हैं। चूंकि फैशन में कुछ भी ‘वर्ज्य’ नहीं है, इसलिए जिस छिपकली को देखकर लड़कियां या तो डरकर भाग जाती हैं या उसे मारने के लिए हाथ में चप्पल उठा लेती हैं उसी छिपकली और चप्पल की डिजाइन वाली बालियों को कानों में पहन रही हैं। वैसे लड़के भी इस मामले में कुछ कम नहीं हैं। चौबीसों घंटे हाथ में मोबाइल शायद कम था इसलिए अब वे उसे कानों में भी पहन रहे हैं। हालांकि ये सारे ट्रेंड तो एक दो दिन के मेहमान हैं। क्योंकि ‘जो आकर्षण झुमके या कुंडल में है वह और कहीं नहीं।’

 जुल्फें हैं या घना अंधेरा…

जीन्स टीशर्ट पहने, कंधे तक झूलती चोटी रखे अगर कोई आपकी तरफ पीठ किए खड़ा हो तो यह समझना कठिन है कि वह महिला है या पुरुष। समानता के अधिकार का शायद इससे उत्कृष्ट नमूना और कोई नहीं हो सकेगा क्योंकि आजकल लड़के बाल बढ़ा रहे हैं और लड़कियां बाल कटवा रही हैं। प्रकृति के खिलाफ जाना भी फैशन का एक अहम हिस्सा है शायद इसीलिए नैसर्गिक रूप से काले, भूरे या सफेद बालों की जगह आज विभिन्न रंगों के बालों ने ले ली है।

पहले बालों की सुंदरता और स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए मेंहदी का प्रयोग किया जाता था। उस मेंहदी के रंग के कारण बाल कुछ सुनहरे दिखने लगते थे। परंतु अब लाल, नीले, पीले, बैंगनी हर तरह के हेयर कलर बाजार में मिल रहे हैं। अगर आने वाले कुछ दिनों में आपको धरती पर इंद्रधनुष दिख जाए तो चौंकिएगा नहीं, वे किसी के बाल भी हो सकते हैं।

चौंकना तो आपको तब भी नहीं चाहिए अगर आपको आदमी के सिर के बालों और दाढ़ी के बीच चेहरा ढ़ूंढ़ने की जहमत उठानी पडे। कंधे पर झूलती दस बारह बालों की पतली सी चोटी हो या सिर पर गमले का आकार लिए हुए खड़े बाल आजकल सब फैशन है। कभी-कभी तो यह लगता है कि ये बाल इस करीने से कटवाए गए हैं या बिजली का करंट लगने के कारण ऐसे हो गए हैं।

महाभारत में अज्ञातवास के दौरान द्रौपदी ने सैरंध्री के रूप में वेश परिवर्तन किया था। उस समय रानी सुदेष्णा को अपनी उत्कृष्ट कला का नमूना दिखाने के लिए द्रौपदी ने उनका श्रृंगार किया था, जिसमें केशविन्यास सबसे महत्वपूर्ण था। रत्नजड़ित आभूषणों के साथ ही विभिन्न फूलों से केशों का श्रृंगार करने की परंपरा हमारे यहां रही है। आज प्राकृतिक फूलों का स्थान कागज, कपड़ा, प्लास्टिक या रबर के फूलों ने ले लिया है। छोटी-छोटी बच्चियों के सिर पर सजा टियारा भी उतना ही सुंदर लगता है जितना महिलाओं के जूडे पर सजा जूड़ापिन। ‘लेकिन ‘बेला’ में जो खुशबू बसी है, वह इन प्लास्टिक के फूलों में कहां…।’

एसेसरीज भी हैं जरूरी….

दफ्तर के लिए निकलने वाले पति के सामने अमूमन भारतीय पत्नियां एक ही रेकॉर्ड बजाती आ रही हैं। पेन लिया? पर्स रखा? रुमाल रखा? टिफिन भूले तो नहीं? घड़ी पहनी है? आदि आदि। अब इसमें थोड़ी बहुत चीजें और बढ़ गईं हैं मसलन मोबाइल, लैपटॉप, गॉगल या चष्मा, गाड़ी की चाबी, पेनड्राइव आदि। मतलब यह है कि जमाना चाहे जितना भी बदल जाए परंतु ऐसेसरीज अर्थात आवश्यकता की वस्तुएं तो रहती हैं। बस समय के साथ और जरूरत के हिसाब से इनमें परिवर्तन आ गया है। पहले लोग सामान ले जाने के लिए झोले का इस्तेमाल करते थे। किसी पुरानी चादर, पैंट, पर्दे के घर पर ही सिले हुए ये झोले उन सारी आवश्यक वस्तुओं को समेट लेते थे, जिनकी पत्नी ने याद दिलाई थी। कुछ दिनों बाद शबनम बैग का फैशन आया, फिर रेग्जीन और लेदर बैग्स का।

आज जितनी वैरायटी बैग में है, उतनी उनके उपयोग में भी। ऑफिस ले जाने के लिए अलग बैग, जिम के लिए अलग, शॉपिंग बैग अलग और घूमने जाने के लिए अलग। ऑफिस बैग के लिए मुख्यत: लेदर के बैग प्रयोग किए जाते हैं या फिर रग सैक। जिन्हें आसानी से पीठ पर लटकाया जा सके।

इसके अलावा महिलाओं के पर्स की तो बहार है। कपडा, रंग आकार अलग अलग वस्तुएं रखने के लिए अलग-अलग खाने इत्यादि सभी आयामों को ध्यान में रखकर महिलाओं के लिए पर्स बनाए जाते हैं।

पर्स के अलावा आजकल जिन ऐसेसरीज का सर्वाधिक उपयोग होता है वे हैं-स्कार्फ, गॉगल, परफ्यूम, बेल्ट और मोबाइल। इन सभी में वैराइटी ढ़ूंढ़ना और जो भी ‘लेटेस्ट’ है, उसका उपयोग करना ही फैशन है।

फैशन फिटनेस की…

पुराने दिनों में जो व्यक्ति कम बीमार पड़े, घंटों तक शारीरिक मेहनत कर सके, मोटा होने पर भी बिना हांफे मजदूरी करे या दुबला होने पर भी भारी-भारी वजन उठा सके, वह फिट माना जाता था। शरीर के सही आकार में होने से ज्यादा बल मजबूत होने पर दिया जाता था।

परंतु आजकल तो दिखावा ही सब कुछ हो गया है। यह सही है कि बेढ़ब या स्थूल शरीर अच्छा दिखता भी नहीं और होता भी नहीं परंतु स्लिम दिखने के लिए किए जानेवाले उपायों से शरीर स्लिम तो हो रहा है पर कमजोर भी हो रहा है। महिलाओं में जीरो फिगर और पुरुषों में सिक्स या एट पैक एब्स का बढ़ता फैशन फिटनेस नहीं बीमारियां दे रहा है। वजन कम करने के लिए मिलने वाली दवाइयां, इंजेक्शन और सर्जरी व्यक्ति से उसका वास्तिविक व्यक्तित्व ही छीन रहे हैं। इसलिए ‘स्वयं को स्लिम ट्रिम बनाने से बेहतर है फिट बनाने की ओर ध्यान दिया जाए।’

सिगरेट के धुंए का छल्ला बना के…

फैशन केवल शरीर तक सीमित न होकर आदतों की भी होती है। आज कान में इयरफोन डाले, मोबाइल में मुंड़ी घुसाए कई लोग रास्तों पर चलते नजर आ जाते हैं। ये आज आम फैशन बन गया है। अगल-बगल बैठे दोस्त भी चर्चा नहीं करते चैट करते हैं।

पहले लोग नशे के नाम पर हुक्का गुड़गुड़ाते थे, बीड़ी फूंकते थे, तम्बाकू खाते थे, पान चबाते थे। आज समय के साथ नशा करने के तरीके भी फैशनेबल और ‘सॉफिस्टिकेटेड’ हो गए हैं। अब लोग शराब नहीं पीते ड्रिंक करते हैं।

चार नौजवानों का ग्रुप अगर कहीं खड़ा हो तो उनमें से दो निश्चित रूप से सिगरेट या बियर की बोतल पकड़े दिखेंगे। खासकर अगर आप किसी आईटी कम्पनी के पास के नुक्कड़ पर खड़े हों। हंसी तो तब आती है जब नाईट शिफ्ट में काम करने वाले ये लोग सुबह छ: बजे एक हाथ में सिगरेट और दूसरे हाथ में चाय का प्याला लिए दिखाई देते हैं। ‘शायद दिन की शुरुआत करने के लिए सिगरेट भी चाय जितनी ही जरूरी हो गई है।’

सब कुछ गलत नहीं….

फैशन कुछ अलग है इसलिए सब गलत है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि कुछ अलग करने की चाहत ही फैशन को जन्म देती है। आज फैशन का सबसे बड़ा आधार है कम्फर्ट। जिस काम को करने में, जिन कपड़ों को पहनने में लोगों को सहूलियत और आराम मिलता है, वह तुरंत फैशन बन जाती है। साड़ी की जगह सलवार कुर्ता, धोती की जगह पैंट शर्ट इसी की बानगी है।

जिन कामों की शुरुआत में बहुत निंदा की गई थी, आज वही फैशन बन गई हैं। पहले डायनिंग टेबल पर खाना खाना सेहत की दृष्टि से ठीक नहीं माना जाता था। यह सत्य भी है परंतु आज बहुत कम घर ऐसे होंगे जहां डायनिंग टेबल नहीं होता। चार से लेकर आठ कुर्सियों वाले डायनिंग टेबल होना आज हर घर का फैशन है। नीचे बैठने में होने वाली तकलीफों के कारण डायनिंग टेबल एक उत्तम विकल्प बन गया है। डबलबेड, मॉड्यूलर किचन, बाइक और कार, मोबाइल इत्यादि सभी वस्तुएं ‘जो पहले खास हुआ करती थीं, आज आम फैशन है।’

सब ऑनलाइन हैं…

ये फैशन तो किसी से अछूता नहीं है। बच्चों से बूढ़ों तक हर कोई किसी न किसी रूप में ऑनलाइन होता है। बच्चे ऑनलाइन कार्टून देख रहे हैं, तो मध्यमवयीन सम्पर्क बढ़ा रहे हैं, साठ साल के ऊपर के लोग बिल भर रहे हैं या खरीदारी कर रहे हैं तो अस्सी के ऊपर विदेश में रहने वाले नाती-पोतों से बात कर रहे हैं। हर कोई मशगूल है ऑनलाइन रहने में। घर के सामान से लेकर कपड़ों तक, फर्नीचर से लेकर गहनों तक सब कुछ यहां बिकता है। इसलिए आजकल मॉल संस्कृति का फैशन थोड़ा पुराना होकर ऑनलाइन का फैशन है। यहां तक कि बाजार या मॉल में जो दुकान लगाए बैठे हैं उन्होंने भी अपनी वेबसाइट शुरू करके ऑनलाइन विक्री शुरू कर दी है। दुकानों पर मिलने वाली छूट और सेल भी यहां मिलती है तो क्यों कोई बाहर तक जाने की जहमत उठाए। बस एक क्लिक और सामान घर पर। ऑनलाइन शॉपिंग का चाहे कितना भी फैशन हो पर ‘विंडो शॉपिंग का मजा ऑनलाइन में कहां।’

मौसमी फैशन…

ॠतुओं ने भारत पर अलग ही कृपा रखी है। इसलिए हम भारतवासी सभी ॠतुओं में सारे फैशन कर लेते हैं। धूप से बचने के लिए गॉगल्स, बारिश से बचने के लिए छाते और सर्दियों में स्वेटर। हालांकि अब गॉगल बारिश छोड़कर बाकी के सभी दिनों में लगाया जाने लगा है क्योंकि धूल और धूप से आंखों को बचाने में यह अहम भूमिका निभाता है। विशेषकर अगर आप दोपहिया वाहन चला रहे हों तब। फुटपाथ के किनारे पचास रुपए में मिलने वाले गॉगल से लेकर ब्रांडेड कम्पनियों के एसी शोरूम में मिलनेवाले पचास हजार तक के गॉगल लगाना भी चेहरे को अलग ‘लुक’ देता है।

छातों के आकार हमारे यहां चंद्रमा की तरह घटता बढ़ता रहता है। कभी वह दादाजी की पुरानी काली अर्धचंद्राकार हैंडल वाली होती है तो कभी मां के ऑफिस पर्स में समा जाने वाली ‘थ्री फोल्ड’ छतरी होती है। आजकल तो बच्चों के लिए भी विभिन्न कार्टून के आकार की छतरियों का भी फैशन है। सतरंगी बड़ी छतरी से लेकर अलग अलग प्रिंट और डिजाइन की छतरियां हर वर्ष बारिश का स्वागत करने के लिए तैयार रहती हैं।

स्वेटर्स या कहें सर्दियों में पहने जाने वाले गरम कपड़ों का फैशन भी हर साल बदलता है। ऊन से बने स्वेटर के साथ ही आजकल फर से बने कपड़े, फलालेन या थर्मोकॉट्स का भी बहुत चलन है। जिस प्रदेश में जितनी ठंड पड़ती है उस प्रदेश में उन वस्त्रों का चलन फैशन बन जाता है।

इन तीन ॠतुओं के अलावा भारतीय समाज में एक और मौसम होता है शादियों का। शादियों के फैशन पर लिखने के लिए तो एक अलग आलेख की आवश्यकता पडेगी। परंतु दुल्हन के श्रृंगार से लेकर दूल्हे की जूते चुराई तक हम हर तरह के फैशन देखते हैं। शादियों के फैशन की खास बात यह है कि यहां दूल्हा दुल्हन से ज्यादा शादी में शामिल होने वाले लोगों की फैशन अधिक देखने लायक होती है। फैशन शब्द अमर्यादित है। इसे केवल वेशभूषा, जेवर या जूते-चप्पलों तक सीमित नहीं रखा जा सकता और न ही रखना चाहिए।

आज भारतीय समाज में नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी पर टिप्पणी करने का फैशन है। सोशल मीडिया पर छींकने जैसी सामान्य सी बात को भी पोस्ट करने का फैशन है। फिल्मी दुनिया में बायोपिक और उच्च तकनीक का फैशन है। न्यूज चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज का फैशन है। मोबाइल पर सारी दुनिया को समेट लेने की फैशन है और अंत में किसी व्यक्ति के अलग अंदाज को समाज के द्वारा स्वीकार कर लेना भी फैशन ही है।

This Post Has One Comment

  1. Awadhesh Kumar

    काफी विस्तार से जीवन के हर पहलू में फैशन की बारीकी से तलाश की गई है। मेरे लिए तो कई जानकारियां नई हैं। जीवन की आम गतिविधियां भी फैशन में किस तरह समाहित हो रही हैं इनकी जानकारी भी मिलतीं हैं। अच्छा और तथ्यपरक विश्लेषण।

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