अध्यात्म एवं सेवा
अध्यात्म का अर्थ है अपने स्वयं के अतंर देवत्व की खोज और दूसरे को देवता मान कर उसकी सेवा और अर्चना! ...भारत की उन्नति, प्रगति तथा उत्कर्ष के मूल में सेवा की सबसे प्रमुख भूमिका होगी।
अध्यात्म का अर्थ है अपने स्वयं के अतंर देवत्व की खोज और दूसरे को देवता मान कर उसकी सेवा और अर्चना! ...भारत की उन्नति, प्रगति तथा उत्कर्ष के मूल में सेवा की सबसे प्रमुख भूमिका होगी।
“उद्योगिनं पुरुषसिंह मुपैति लक्ष्मी”- व्यक्ति की संकल्प शक्ति, उसका श्रम करने का सामर्थ्य, उसकी क्षमता और दक्षता ही उसके भाग्य को संवारती है एवं ऐश्वर्य प्रदान करती है और यही उद्योग का मूल भाव है। उद्योग के मूल में श्रम है, पुरूषार्थ है और वस्तुओं को बदलने का सामर्थ्य है।
घोषा, विश्वबारा और अपाला जैसी मंत्रकारा ऋषियों की परंपरा में सूर्या सावित्री ने 47 मंत्रों के विवाह सूक्त को लिख कर सम्पूर्ण हिंदू समाज को एक उपहार दिया है। यह विवाह सूक्त ऋग्वेद में (10.85) में संकलित हैं और गत 5100 वर्षों से आज तक हिंदू विवाह पद्धति का अभिन्न अंग बन चुका है। इसके बाद सुवर्चला नामक विदुषी ने सूर्या सावित्री द्वारा प्रदत्त विवाह संस्कार का कायाकल्प कर दिया था। विवाह संस्कार को विधिवत स्वरूप देने वाली दोनों महिलाएं ही थीं, यह उल्ल्ेखनीय है।
कुछ दिन पहले मुंबई के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक इकोनॉमिक टाइम्स में विलियम डी कोहन की एक रिपोर्ट छपी थी, जिसमें उन्होंने अमेरिका के वालस्ट्रीट में बड़े वित्तीय संस्थानों में काम कर रहे नौजवानों में बढ़ रही आत्महत्या की प्रवृत्तियों का वर्णन किया था।
पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में प्रकृति ने दिल खोल कर अपनी दौलत बिखेरी है। पूर्वोत्तर में पहले असम, अरुणाचल, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, नगालैण्ड, त्रिपुरा ये सात राज्य थे, इसलिए उन्हें ‘सप्त-भगिनी’ कहा जाता था; ल
देवी सुरेश्वरी भगवती गंगे। त्रिभुवन तारिणी तरण तरंगे॥ शंकर मौलि निवासनी विमले। मम् मतिरास्तां तव पद कमले॥ भारतीय जन-जीवन तथा सांस्कृतिक चेतना में मां गंगा का स्थान सर्वोच्च है। हमारी सत्य सनातन भारतीय संस्कृति के पांच ऐसे तत
पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों में समाज में हर स्तर पर बढ़ रही हिंसक गतिविधियों ने सभी लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। समाज में आत्महत्याओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि समाज मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं है।
जीवन के मधु से भर दो मन गंधविधुर कर दो नश्वर तन मोह मदिर चितवन को चेतन आत्मा को प्रकाश से पावन आधुनिक हिंदी साहित्य के शिरोमणि कवि महाप्राण निराला केगीत की उक्त पंक्तियां उस समय मन में घर करने लगीं, जब बेंगलुरु के कुछ रा
भारत की सनातन परम्पराऔर चिंतनधारा की एक विशेषता रही है कि समाज की निरंतरता और जीवन प्रवाह में जब भी किसी प्रकार का अवरोध अथवा अवमूल्यन का अवसर आया, तब तब किसी न किसी महापुरुष ने इस पवित्र भारत भूमि पर जन्म लेकर अपने प्रेरक व
वैदिक वाङ्मय में प्रकृति, पर्यावरण तथा प्राणवायुके आवरण को संरक्षित करने पर सबसे अधिक महत्व दिया गया है। अथर्व वेद के पृथ्वी सूक्त में इसका बडा विशद वर्णन है।
कृरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया गया गीता का उपदेश मानव मात्र के जीवन का परिवेश बदल देने वाला एक विलक्षण गीत हैं, जिसे हृदयगम कर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की दिशा को बदल सकता है।
सृष्टि का उद्गम सागर से हुआ। ...संगीत का स्वर-‘स’ सागर का द्योतक है। धरती बनी रेंगने वाले प्राणी अर्थात, अजगर, सर्प का प्रतीक है संगीत का दूसरा स्वर ‘रे’। तीसरा स्वर ‘ग’- गगन का प्रतीक है। चौथा स्वर ‘म’ मनुष्य का प्रतीक है। बुद्धि संगीत के पांचवें स्वर ‘प’ प्रज्ञा के रूप में प्रकट हुई। संगीत का छठा स्वर ‘ध’ से व्यक्ति को धर्म का बोध हुआ। इस तरह आत्मा पुन: परमात्मा में विलीन होती है। जहां से सृजन, वहीं पुन: विसर्जन... संगीत के स्वर भी ‘स’ से प्रारंभ होकर पुन: ‘स’ पर आकर समाप्त होते हैं।