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संस्कृति – सभ्यता की विरासत  भारतीय नववर्ष शोभायात्रा

संस्कृति – सभ्यता की विरासत भारतीय नववर्ष शोभायात्रा

by मुकेश गुप्ता
in देश हित में मतदान करें -अप्रैल २०१९, संस्कृति, सामाजिक
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मुंबई के निकट डोंबिवली से आबासाहेब पटवारी द्वारा आरंभ ‘भारतीय नव वर्ष यात्रा’, पूरे भारत वर्ष में, हर शहर, हर गांव में आयोजित की जानी चाहिए। जाति, धर्म, भाषा, भेदभाव से ऊपर उठकर वर्तमान और भविष्य के साथ साथ आधुनिकता से परंपरा और अतीत को जोड़ने वाली यह यात्रा नए भारत का निर्माण करेगी।

भारतीय संस्कृति-सभ्यता को दुनिया में सबसे प्राचीन माना जाता है। भारतीय समाज की सहिष्णुता, विविधता, एकता एवं सामंजस्य दुनिया के लिए एक अद्भुत आदर्श है। आदि काल से हजारों-लाखों युद्धों को झेलने के बाद भी संघर्षशील भारतीय समाज ने अपनी संस्कृति, सभ्यता की धरोहर व विरासत को संजोए रखा है और इसी का भव्य दर्शन भारतीय नववर्ष शोभायात्रा में दिखाई देता है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के डोंबिवली से शुरू हुई यह नववर्ष शोभायात्रा धीरे-धीरे विदेशों में भी लोकप्रिय होती जा रही है और वहां भी भारतीय परंपरा अनुसार आकर्षक शोभायात्रा धूमधाम के साथ निकाली जाने लगी है।
नववर्ष स्वागत शोभा यात्रा के शुभारंभ का श्रेय आबासाहेब पटवारी और डोंबिवली वासियों को जाता है। आबासाहेब के इस नए विचार प्रयोग से सफल हुई शोभा यात्रा ने भारत की एक नई तस्वीर दुनिया के सामने पेश की है। जिसे देखकर सभी आश्चर्य चकित एवं भावविभोर है।
अंग्रेजी नववर्ष और भारतीय नववर्ष में अंतर
हम बड़े हर्षोल्लास से 1 जनवरी को नए साल का स्वागत करते हैं लेकिन क्या वह हमारा नया साल है? क्या कोई बात अज्ञावनश सालों साल चली आने की वजह से हमारी ‘परंपरा’ बन गई है, इसलिए हमें उसको स्वीकार करना चाहिए? जैसे सवाल मेरे दिल को हरदम मथते रहते थे। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो हमारा पंचांग चैत्र शुद्ध प्रतिपदा को ही वर्ष की शुरूआत मानता है और मेरे विचार से वहीं हमारा सही वर्षारंभ है। इसका वैज्ञानिक आधार भी है। अंग्रेजी के सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर जैसे महीनों को आप भारतीय परंपरा के अनुसार देखेंगे तो ये नाम सप्तम, अष्टम, नवम, दशम ही है। दिसम्बर की समाप्ति पर ‘एक्स-मस’ अर्थात् एक्स यानी ‘मस’ और‘मस’ यानी माह (दशम् मास) है। अब यह सातवां, आठवां, नौवां, दसवां यह क्रम तभी आ सकता है। जब हम इन महीनों को मार्च माह से गिनना शुरू करते हैं।
भारतीय पंचांग के अनुसार ‘मार्च’ माह, चैत्र माह में ही शुरू हो जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर भी इसी के तहत मार्च से ही शुरू हो जाता था। शुरू में उनका वर्ष भी दस महीनों का माना जाता था। इस्लामिक चांद वर्ष भी दस महीनों का होता है। सौर वर्ष की तरह ऋतुचक्र भी स्पष्ट दिखाई देता है। इसलिए अंग्रेजी कैलेंडर में बाद में जनवरी और फरवरी इन दो माहों को जोड़ा गया। वैसे देखा जाएं तो इन दो महीनों को अंत में जोड़ना चाहिए था लेकिन अज्ञानवश उन्हें शुरू में जोड़ा गया और समय के साथ-साथ यह जोड़ बिल्कुल अटूट बन गया।
वास्तविक रूप से यदि देखा जाएं तो ‘मार्च’ या ‘चैत्र’ को वसंत ऋतु के प्रारंभिक महीने के रूप में तथा वैज्ञानिक दृष्टि से वर्षारंभ के लिए ‘चैत्र पाडवा’ के दिन को वर्षारंभ दिन के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। आज भी सरकारी कार्यालयों/बैंकों में वित्तीय वर्ष की समाप्ति मार्च में ही होती है। यदि साल का अंतिम माह दिसम्बर है तो फिर ईयर एंड मार्च में कैसे होगा? नक्षत्र के अनुसार माह निर्धारित करने का वैज्ञानिक तरीका हमारे पास उपलब्ध होने के बावजूद अज्ञानवश या अंधश्रद्धावश हमारा जनवरी माह को वर्षारंभ मानना सर्वथा गलत है। चैत्र पाडवा को ही वर्षारंभ दिन के रूप में मनाया जाना चाहिए और इस बात को लेकर ‘भारतीय नव वर्ष स्वागत यात्रा’ की संकल्पना सामने आई। पुराणों में भी चैत्र माह में ब्रह्मध्वजा होती है यानी इस ब्रह्मा ने प्रकृति, मानव का निर्माण किया। यहीं नहीं, वर्ष 1948 में लोकसभा ने वैज्ञानिक रूप से निर्माण भारतीय सौर वर्ष को अधिमान्यता दी है।
यदि मार्च या चैत्र माह हमारा वर्षारंभ है तो उसे उतने ही हर्षोल्लास से मनाया जाना चाहिए, नए वर्ष का स्वागत नए उल्लास, उत्साह, जोश, परंपरा, संस्कृति से संपन्न स्वागत यात्रा से होना चाहिए। इस सोच को आबासाहेब ने अपने सहयोगियों तथा श्री गणेश मंदिर संस्थान के सामने प्रस्तुत किया और उन सभी ने इस संकल्पना का सिर्फ स्वागत ही नहीं किया बल्कि इसे मूर्त रूप देने हेतु कार्यवाही भी शुरू की। इस तरह से नववर्ष स्वागत शोभा यात्रा का प्रारंभ हुआ।

संस्कृति-परंपरा की पुनर्स्थापना
इस स्वागत यात्रा से ढेरों अपेक्षाएं हैं। हमारा समाज सदियों से इस धरा पर निवास कर रहा है। समाज ने यहां अपनी संस्कृति और सभ्यताओं का भी निर्माण किया है। समय के साथ एक समाज नष्ट होकर उसका स्थान दूसरे समाज ने लिया। सभ्यता, संस्कृति भी बदलती रही। यह सिलसिला सदियों से चलता आ रहा है। यदि इस परंपरा में आप आज के समाज को देखेंगे तो पाएंगे कि आज का समाज बिल्कुल अलग है। यह समाज ज्यादातर भौतिकतावादी है। हर बात का इस्तेमाल कर उसे फेंकने का यहां चलन है। हम अंग्रेजदा हो गए हैं। पाश्चात्यों के अंधानुकरण की वजह से हमारा समाज हमारी अच्छी बातों को भी भूल गया है या फिर उसे वे बातें ‘आऊटडेटेड’ लगती है।
नए साल को मनाने की संकल्पना शराब के दौर और बेतरतीब नृत्य तक सीमित रह गई है। मोबाइल, ई-मेल, सायबर कैफे, वीडियो गेम्स ने बच्चों तथा युवा पीढ़ी पर कब्जा कर लिया है। ‘डे’ज की संख्या बढ़ने लगी है, पहनावे बदल रहे हैं, फास्ट फूड आया है, पार्टियों का जमाना है। और, इस बदले हुए हालातों में इंसान इंसान से दूर होता जा रहा है। इस बदलते हुए परिवेश से डोंबिवली कैसे अछूती रह सकती थी? मानवी सभ्यता के लिए यह चिंता का विषय था; क्योंकि मूल्यों का, संस्कृति का र्‍हास हो रहा है। ऐसे में लग रहा था कि एकत्रित होकर ऐसा कुछ किया जाए जो हमारी संस्कृति को फिर से प्रतिस्थापित करेगा, लोगों को एकत्रित लाएगा, परंपरा को नए सिरे से जागृत करेगा और हिंदू धर्म को अनुस्यूत ‘सर्व धर्म सम भाव’ की संकल्पना को फिर से स्थापित करेगा। सपना तो बहुत बड़ा है और हम देख रहे हैं कि डोंबिवली ही नहीं बल्कि ठाणे, कल्याण और मुंबई में भी ये ‘नव वर्ष स्वागत यात्राएं’ शुरू हुई हैं। यही नहीं, केवल महाराष्ट्र तक ही ये यात्राएं सीमित नहीं रही हैं; बल्कि महाराष्ट्र के बाहर और भारत के बाहर अमेरिका में-ह्यूस्टन जैसे शहरों में भी ‘एकत्रित होने’ का यह सिलसिला शुरू हुआ है।
नववर्ष स्वागत शोभा यात्रा की विशेषताएं
वारकरी संप्रदाय की तर्ज पर स्वयं नियंत्रित नागरिक नियमबद्ध होकर कार्यक्रम में शामिल होते है और इसे सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते है। राजनैतिक पार्टीयों के स्थानीय नेता, पदाधिकारी शोभा यात्रा में शामिल होते हैं किंतु यात्रा का नेतृत्व वे नहीं करते बल्कि समाज के सभी घटकों लोगों द्वारा किया जाता है। इस संबंध में सभी राजनैतिक पार्टियों ने सामंजस्य स्थापित किया, इसलिए इस यात्रा पर किसी भी राजनैतिक पार्टी का दबादबा नहीं है।
इसके अलावा नववर्ष स्वागत यात्रा समिति द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम सतत किए जाते हैं। प्राकृतिक आपदा, अकाल से पीड़ित लोगों की सहायता, समाज के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की सहायता, पानी के स्रोतों का निर्माण जैसे तालाब, कुआं, नहर आदि अनेक प्रकार के सामाजिक कार्य समिति द्वारा किए जाते हैं।
शोभायात्रा में हजारों लोग शामिल होते है। इस यात्रा का कोई गॉडफादर (नियंता) नहीं है। सामाजिक संस्थाएं स्वयंप्रेरणा से अपना-अपना खर्च वहन करती हैं। इस यात्रा से कुछ उद्योगों एवं व्यापारियों को भी लाभ मिलने लगा है।
हर वर्ष बड़ी तादाद में लोग एवं अनेक संस्थाएं इस शोभा यात्रा से जुड़ती जा रही हैं। मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ पारंपारिक वस्त्रों अलंकारों से सुसज्जित होकर युवा-युवतियां, बच्चे-बूढ़े और महिलाएं सभी के आकर्षण का केंद्र रहते हैं। जिस मार्ग से यह यात्रा गुजरती है वहां स्थानीय लोगों का जमघट घंटों लगा रहता है। सभी एकटक नजरों से यात्रा में शामिल लोगों, रथयात्राओं, कलाकारों, आदि को निहारते रह जाते हैं। यात्रा धीरे-धीरे विराट रूप में प्रकट होने लगी है और प्रतिवर्ष उसमें वृद्धि होती जा रही है।
आइए, हम सभी भारतीय केवल दर्शक की भूमिका न निभाते हुए दिव्य-भव्य नववर्ष शोभा यात्रा में शामिल होकर अपनी विरासत को संभाले और युगों पुरानी भारतीय संस्कृती-सभ्यता की विश्व विजयी भगवा पताका को लहराकर अपना जीवन धन्य बनाएं।
ज्येष्ठ समाजवादी नेता तथा स्वतंत्रता सेनानी दत्ताजी ताम्हणे द्वारा ‘मैंने ब्रह्म देख लिया’ यह कहना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री माहेन भागवत जी ने अपने वक्तव्य में यह कहना कि यह स्वागत यात्रा यानी समाज जागृति की प्रक्रिया का आरंभ है, इस यात्रा की सार्थकता को बयां करते हैं। हम यही तो चाहते हैं कि समाज इस तरह से एकत्रित होकर एक नई ऊर्जा का निर्माण करें जो सकारात्मक होने के साथ समाज उपयोगी हो और एकता और परंपरा को आधुनिकता के साथ जोड़ दें।
अपनी परंपराओं के साथ ही आधुनिकता को जोड़ने वाली नई पीढ़ी, ज्येष्ठों के मार्गदर्शन के साथ उसे सफल बनाती है। हर साल इसमें नए-नए आयाम जुड़ जाते हैं। हमारा यह प्रयास और अपेक्षा है कि यह ‘भारतीय नव वर्ष यात्रा’, पूरे भारत वर्ष में, हर शहर, हर गांव में आयोजित की जानी चाहिए। जाति, धर्म, भाषा, भेदभाव से ऊपर उठकर वर्तमान और भविष्य के साथ साथ आधुनिकता से परंपरा और अतीत को जोड़ने वाली यह यात्रा नए भारत का निर्माण करेगी, इसका मुझे विश्वास है। आबासाहेब के उस अनुभवी चेहरे पर यह कहते हुए एक गजब का आत्मविश्वास झलक रहा था। उनकी आंखों में भविष्य के भारत की कल्पना से एक नई चमक तैरने लगी थी। वह चमक और विश्वास, हमें भी इस यात्रा में शामिल होने के लिए प्रेरित कर रहा था।
एक पत्थर बडी तबीयत से उछाला गया था- 1998 में ‘भारतीय नव वर्ष यात्रा’ के आयोजन के रूप में और हर वर्ष के साथ उसकी बढ़ती व्यापकता और लोकप्रियता को देखकर पूरा आसमान ही नीचे उतरने लगा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है।

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