आखिर क्यों आया ऐसा चुनाव परिणाम ?

निस्संदेह, चुनाव परिणाम भाजपा के लिए संतोषजनक नहीं हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्यों में भाजपा बहुत बड़ी विजय की अपेक्षा कर रही थी। महाराष्ट्र में तो आरंभ से भाजपा शिवसेना गठबंधन बहुमत से आगे थी। हालांकि 2014 के आंकड़ों से पीछे थी, जबकि भाजपा और शिवेसना अलग – अलग लड़े थे। हरियाणा का परिणाम भाजपा के लिए धक्का है। हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल विभाजित हो गई। उससे निकलकर बनी जननायक जनता पार्टी या जेजेपी में कोई बड़े कद का नेता नहीं है। बसपा से भी उसका गठबंधन नहीं हुआ। ये सारे पहलू भाजपा के पक्ष में थे। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा की संसद भवन परिसर में दो बड़े नेताओं अहमद पटेल और गुलाम नबी आजद से गुफ्तगू करते हुए जो वीडियो वायरल हुई उसमें वे कह रहे हैं कि 13 – 14 सीटें आएंगी। एक एक्जिट पोल को छोड़कर सबने भाजपा के अच्छे बहुमत से सरकार में बने रहने की भविष्यवाणी भी कर दी। पांच महीने पहले ही लोकसभा चुनाव में 58 प्रतिशत से ज्यादा मत लेकर भाजपा ने प्रदेश की सभी दस सीटें जीत लिया था। विधानसभा के अनुसार 90 में से 79 सीटों पर उसे बढ़त हासिल थी। इसमें प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर हुआ क्या ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले विधानसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र एवं हरियाणा में क्रमशः देवेन्द्र फडणवीस और मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाकर पूरे देश को चौंकाया था। दोनों ने अपना कार्यकाल पूरा किया। दोनों मुख्यमंत्रियों पर तो भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं ही लगा, सरकार भी भ्रष्टाचार के किसी बड़े पुष्ट आरोप से मुक्त रही। दोनों प्रदेशों की अर्थ दशा भी राष्ट्रीय औसत से बेहतर है। राष्ट्रीयत्व, हिन्दुत्व के मुद्दों का असर दोनों प्रदेश पर समान होना चाहिए था। अनुच्छेद 370 तथा जम्मू – कश्मीर को संभालने का मुद्दा देशव्यापी है लेकिन हरियाणा के लिए इसका विशेष मायने इस रुप में था कि वहां शहीद होने वालों में हरियाणवी जवान दूसरे नंबर पर थे। ये दोनों मुख्यमंत्री प्रदेश में वर्चस्व रखने वाली जाति से संबंध नहीं रखते थे। न फडणवीस मराठा थे और न मनोहर लाल जाट। भाजपा की सोच यह थी कि इन प्रदेशों की राजनीति को भी जातीय समीकरण से मुक्त कर राष्ट्रीयत्व, हिन्दुत्व, विकास तथा इससे जुड़े स्वाभाविक मुद्दों पर लाया जाए। दोनों राज्यों में यह कोशिश सफल होती दिख रही थी। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन से एक बार लगा कि फडणवीस सरकार शायद इसे ठीक से हैंडल नहीं कर पाएगी। फडणवीस ने उनको आरक्षण दिया और मराठा आंदोलन खत्म हो गया। इससे एक वातावरण बना, लेकिन शरद पवार का अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई मानकर कूद पड़ना तथा लोगों से भावुक अपील का असर हुआ। जाट आरक्षण का आंदोलन हरियाणा में हुआ। यह आदोलन काफी हिंसक हो गया। आंदोलन के दौरान वीभत्स घटनाएं भी हुईं। हालांकि मनोहर सरकार ने इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की लेकिन न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। जाट आंदोलन में हुई हिंसा की देश भर में आलोचना हुई, पर प्रदेश सरकार ने पुलिस को हिंसा के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का जिम्मा देते हुए भी यही प्रकट किया कि उसे जाटों की मांग के प्रति सहानुभूति है। बावजूद जाटों के एक वर्ग का गुस्सा सरकार के प्रति कायम रहा।

इसका संकेत यह था कि जाट समुदाय का एक वर्ग मनोहर लाल सरकर के खिलाफ था। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं जाट नेताओं से भेंट की, उनको मनाया, वे आश्वस्त होकर बाहर भी निकले। बावजूद इसके जाटों का एक बड़ा वर्ग भाजपा के साथ आने को तैयार नहीं हुआ। हालांकि मनोहर लाल सरकार ने चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती तथा स्थानांतरण का डिजिटलीकरण करके इसमें भ्रष्टाचार को खत्म कर दिया। परिणाम यह हुआ कि चतुर्थ श्रेणी में नेताओं की पैरवी बंद हो गई एवं हर जाति के योग्य लोगों को काम मिला। इसका संदेश तो अच्छा गया लेकिन कुछ जाट नेताओं ने शांत तरीके से यह भ्रम फैलाया कि इसमें हमारा हक मारा है। यदि हमारा मुख्यमंत्री होता तो ऐसा नहीं होता। हालांकि उनके बीच ही एक वर्ग कहता रहा कि मनोहर सरकार हमारी विरोधी नहीं है। यह फैसला किसी जाति के विरोध या पक्ष में नहीं है और यही होना चाहिए। माना जा सकता है कि इनकी संख्या कम थी। जाट हरियाणा में सत्ता पर वर्चस्व के अभ्यस्त थे चाहे कांग्रेस के भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की सरकार हो या उसके पहले आईएनएलडी का, सबमें उनकी तूती बोलती रही। खट्टर सरकार में ऐसा नहीं हुआ। उसमें भूपेन्दर सिंह हुड्डा ने अपना अंतिम चुनाव कहकर भावुक कार्ड खेला वह काम कर गया। तो जाटों के बहुमत ने जहां कांग्रेस जीत सकती थी वहां उसे मत दिया और जहां जेजेपी जीत सकती थी वहां उसे। इसका परिणाम सामने है। ध्यान रखिए, लोकसभा चुनाव में भाजपा जिन 11 विधानसभा क्षेत्रों में पीछे थी उनमें से 10 जाट प्रभावी इलाके ही थे। इस तरह संकेत लोकसभा चुनाव में भी था। भाजपा ने इसीलिए 20 जाट उम्मीदवारों को टिकट भी दिया पर यह हथियार कारगर साबित नहीं हुआ।

हालांकि यह मान लेना गलत होगा कि जाटों के एक तबके के खिलाफ जाने के कारण ही भाजपा को क्षति हुई। इसके साथ कई कारको ने भूमिका निभाई। फडणवीस सरकार ने भीमा कोरगांव जैसे सुनियोजित हिंसक आंदोलन को जिस तरह नियंत्रण किया एवं माओवादियों के चेहरे उजागर किए उससे विचारधारा के आधार पर समर्थन करने वाले परंपरागत मतदाताओं का समर्थन बना रहा। शनि सिंगनापुर आंदोलन को भी सरकार ने नियंत्रण से बाहर नहीं आने दिया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी महाराष्ट्र सरकार ने कई मामलों में तेजी से काम किया। मनोहर सरकार ने भी भूमि आवंटन घोटाला में ढींगरा आयोग बनाया जिसने रॉबर्ट बाड्रा सहित भूपिन्दर सिंह हुड्डा और कई नेताओं एवं अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किया। हुड्डा न्यायालय में चले गए एवं उस रिपोर्ट के सार्वजनिक करने पर रोक लग गई। ईडी ने कार्रवाई की है, पर प्रदेश में संदेश यह गया कि मनोहर लाल सरकार ने भ्रष्टाचारियों पर जिस तरह कार्रवाई करना चाहिए वैसे नहीं किया। 2014 के लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में वाड्रा का भूमि व्यवसाय भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा मुद्दा था। मनोहर लाल कहते रहे कि हमारा उद्देश्य भ्रष्टाचार की संभावना को खत्म करना तथा कानून सम्मत कार्रवाई करना है न कि किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाना लेकिन इस संदेश को सभी ने एक ही अनुसार नहीं लिया। स्वयं उनके कार्यकर्ता भी इस विषय पर सरकार से सहमत नहीं थे।

इन सबके बावजूद भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक हो सकता था यदि उसने उम्मीदवारों के चयन में  सतर्कता बरती होती तथा राज्य एवं स्थानीय स्तर पर पार्टी के अंदर के असंतोष के शमन का कदम उठाया होता। विधानसभा चुनावों में जीत हार में स्थानीय मुद्दों और उम्मीदवारों की भी भूमिका होती है। मनोहर सरकार के ज्यादातर मंत्रियों को लोगों का एक तबका बेहतर प्रदर्शन करने वाला नहीं मान रहा था। स्वयं खट्टर के व्यवहार को पार्टी कार्यकर्ता और नेता आलोचना करते थे। उनके और कई मंत्रियों के व्यवहार में अरोगेंसी की शिकायत केन्द्रीय नेतृत्व से भी की गई। पर कोई अंतर नहीं हुआ। कई क्षेत्रों में लोग स्थानीय विधायक तथा उम्मीदवारों के प्रति असंतोष प्रकट करते थे। भाजपा के सदस्य और स्थानीय पदाधिकारी साफ कह रहे थे कि उम्मीदवारों के चयन में गलतियां हुईं हैं। अगर चुनाव में किसी पार्टी के कार्यकर्ता और स्थानीय पदाधिकारी नाराज या निरुत्साहित हो जाएं तो फिर उसका बेहतर प्रदर्शन करना मुश्किल होता है। कार्यकर्ता और नेता ही जमीन पर काम कर पक्ष में माहौल निर्माण करते हैं। वे ही मतदान के दिन अपने मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक लाते हैं। दोनों राज्यों में भाजपा कार्यकर्ताओं – नेताओं के अंदर असंतोष था। महाराष्ट्र में शिवेसना के साथ गठबंधन के कारण कुछ विधानसभा क्षेत्रों में विद्रोह हुआ। भाजपा का एक तबका विधानसभा चुनाव में शिवेसना से गठबंधन नहीं चाहता था। फिर कोंकण क्षेत्र में नारायण राणे को खुली स्वतंत्रता देने के खिलाफ शिवेसना ने मोर्चा खोला, उनके बेटे के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतार दिया तो अनेक जगह निर्दलीय के रुप में उम्मीदवार मैदान में थे। आप देखेंगे कि निर्दलीय ने भाजपा को काफी ज्यादा तथा शिवेसना को भी कुछ नुकसान पहुंचाया है। हरियाणा में भी यही स्थिति थी। लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी का नाम सबको एकजुट करने के लिए काफी था। इसलिए भारी मतदान हुआ एवं एकपक्षीय चुनाव परिणाम आया। विधानसभा चुनाव में ऐसा नहीं था। कार्यकर्ताओं के उदासीन होने का परिणाम हरियाणा में करीब आठ प्रतिशत मतदान कम होने के रुप में सामने आया। भाजपा के प्रदर्शन खराब होने के पीछे यह सबसे बड़ा कारण था। 2015 में जो स्थिति बिहार में थी लगभग वही स्थिति हरियाणा में थी। पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को इसका कुछ आभास हुआ और नेताओं को एक साथ लाने की कोशिशें भी हुईं लेकिन स्थिति जितनी संभलनी चाहिए नहीं संभली। बाद में पार्टी ने अभियान में पूरी ताकत झोंक दी। जितने नेता हो सकते थे सबको उतरा गया। बावजूद इस सबके पर्याप्त क्षतिपूर्ति न हो सकी।

Leave a Reply