गुरु महिमा

प्रत्येक उत्सव हर्ष एवं उल्लास का पर्व होता है। भारतीय संस्कृति ने उत्सवों को संस्कारों की रंग-सुगंध से समृद्ध बनाया है। गुरुपूर्णिमा एक ऐसा ही संस्कार-सौरभ प्रदान करने वाला पुनीत पर्व है। गुरुपूर्णिमा गुरु के पूजन का पर्व है। यह एक अनुशासन एवं समर्पण का पर्व है। यह एक अध्यात्मिक महोत्सव है। गुरुपूर्णिमा को व्यासपूर्णिमा भी कहा जाता है। इसे अनुशासन का पर्व भी माना जाता है।

गुरुपूर्णिमा संयम, सहजता, शांति एवं माधुर्य का पर्व है। ईश्वर प्राप्ति की सहज साध्य दिशा बताने वाला त्यौहार है। यह गुरुपरंपरा विश्व के तमाम देशों में आदरपूर्वक मनाई जाती है। गुरुपूर्णिमा वर्ष भर रकी पूर्णिमा मनाने के पुण्य को फल प्रदान करती है। यह नई दिशा, नई प्रेरणा एवं नया संदेश देती है। इसीलिए भक्त, ज्ञानी, योगी और ऋषि ही नहीं, अपितु मुक्ति चाहने वाले गंधर्व, यक्ष और देवता भी उत्साहपूर्वक इस शुभमंगल पर्व का स्वागत करते हैं। गुरु की सेवा से विमुख होने पर मुक्ति नहीं मिल सकती है।

न मुक्तास्तु गन्धर्वा: पितृयक्षयास्तु चारणा:।
ऋषिय: सिद्धदेववाद्या: गुरुसेवापराङ्मुखा:॥

अर्थात गुरु सेवा से विमुख गंधर्व, पितृ, यक्ष, चारण, ऋृषि, सिद्ध और देवता आदि भी मुक्त नहीं होंगे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस में कहा है-

गुरु बिन भव निधि तरई न कोई।
जौं विरंचि संकर सम होई॥

आषाढ़ी पूर्णिमा अर्थात गुरुपूर्णिमा का दिन मन्वंतर का प्रथम दिवस है। वेदव्यास द्वारा संकलित विश्व के प्रथम आर्षग्रंथ ‘ब्रम्हसूत्र’ का आरंभिक दिवस है। श्री महाभारत की पूर्णाहुति एवं देवताओं की वरदान वृष्टि का दिवस है। इसी दिन से चतुर्मास का आरंभ होता है। आध्यात्मिक पाठशालाएं आज के दिन से प्रारंभ होती हैं। गुरुदेव पूर्णिमा की चांद की तरह पूर्ण, शांत, शीतल एवं अंधकारमय रात्रिरूपी जीवन में ज्ञान का प्रकाश करने वाले होते हैं। इसीलिए उनकी पूजा पूर्णिमा के दिन की जाती है।

आध्यात्मिक स्तर पर गुरु-शिष्य के संबंधों में अनुशासन होना अनिवार्य है। शिक्षा-दीक्षा देने वाले गुरुजनों का अनुशासन स्वीकार किए बिना ज्ञान और कुशलता में निखार नहीं आ सकता है। यह पर्व गुरु-शिष्य दोनों के लिए अनुशासन संदेश लेकर आता है। इसलिए इस पर्व को अनुशासन का पर्व कहा जाता है। अनुशासन मानने वाला ही सफलता प्राप्त कर सकता है। इसके बिना आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है।

गुरु शिष्य को अपने पुण्य-पाप और दिव्य ज्ञान का एक अंश ही है। वह अंश पाने की पात्रता धारण करने की सामर्थ्य और उपयोग एवं विकास की कला एक सुनिश्चित अनुशासन के अंतर्गत ही संभव है। इसके लिए शिष्य में गुरु के प्रति गहरी श्रद्धा, विश्वास तथा गुरु शिष्य की प्रगति के लिए स्नेहभरी लगन जैसे दिव्य भाव हों। गुरुपूर्णिमा का पर्व गुुरु-शिष्य के बीच ऐसे ही पवित्र, गूढ़, अतरंग, सूत्रों की स्थापना और उन्हें दृढ़ करने के लिए मनाया जाता है।

गुरुर्ब्रम्हा, गुरुर्विष्णु:, गुरुर्देवा महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात् परब्रम्हा तस्मै श्रीगुरुवै नम:॥

अर्थात गुरु ब्रम्हा जी की तरह हमारे हृदय में उच्च संस्कार भरते हैं, विष्णु जी की तरह पोषण करते हैं एवं शिवजी की तरह हमारे कुसंस्कारों एवं जीवभाव का संहार करते हैं। मित्रों और संबंधियों द्वारा अथक प्रयास के बाद भी जो ज्ञान हमें प्राप्त नहीं हो सकता, वह सब हमें ब्रम्हदेवता गुरु से सहज ही प्राप्त हो जाता है। हमारे तमाम कष्ट और पाप नष्ट हो जाते हैं।

ब्रम्हदेवता गुरु के द्वारा हमें जो कुछ भी मिलता है हम उसका बदला तो कभी नहीं चुका सकते, फिर भी कुछ आदर भाव अभिव्यक्त करके गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। जिनके लिए उनका संदेश, प्रेरणा, एवं आशीर्वाद प्राप्त करते हुए उनके आदर्शों पर चलके गुरुतत्व को आत्मसात् करके करते हैं। कल्याण एवं प्रगति का अवसर ही गुरुपूर्णिमा का पर्व है।

महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को बताते हैं, हे राजन! माता-पिता तथा गुरुजनों की पूजा ही अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी सेवा सबसे बड़ा पुण्य एवं आज्ञा का पालन ही सबसे बड़ा धर्म है। पिता की सेवा से इस लोक में, माता की सेवा से परलोक को एवं गुरु की सेवा से त्रिलोक को लांघा जा सकता है। सदगुरु का पद माता-पिता से भी बढ़कर होता है, क्योंकि माता-पिता तो बस इस नश्वर-स्थूल शरीर को जन्म देते हैं, जबकि गुरु जीव के चिनम्मय वपु को जन्म देते हैं। वे मनुष्य को दिव्य ज्ञान देते हैं। जिस कर्म से शिष्य गुरु को प्रसन्न करता है, उसके द्वारा परब्रम्हा-परमात्मा की पूजा होती है। गुरुओं की पूजा होने पर पितरों सहित देवता और ऋृषि भी प्रसन्न होते हैं। इसलिए गुरु परम् पूजनीय हैं। गुरु की पूजा कर लेने के बाद कोई पूजा बाकी नहीं रह जाती है। अर्थात् सबकी पूजा हो जाती है-

हरि हर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।
सद्गुरु की पूजा किए सब की पूजा होय॥

गुरु तीन प्रकार के होते हैं-(1) देवगुरु-जैसे-महर्षि नारदजी और बृहस्पतिजी। (2) सिद्धगुरु-जो किसी परम् चरत्रि, परम सात्विक व्यक्ति को मार्गदर्शन देते हैं,जैस-गुरु दत्तात्रेयजी। (3) मानवगुरु-जो हमारे बीच रह कर मानव जाति के परम हितैषी एवं कल्याणकारी होते हैं, जैसे -गुरु वशिष्ठ, महर्षि व्यासजी, शंकराचार्यजी आदि। इन मानव-गुरुओं के द्वारा भी हमें प्रत्यक्ष रूप से परमात्मा का ज्ञान मिलता है।

मानव गुरुओं में महर्षि व्यासजी अपने आप में महान परम्परा के प्रतीक हैं। आदर्श के लिए समर्पित प्रतिभा के वे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। महर्षि व्यासजी, महर्षि वशिष्ठजी के पौत्र एवं पराशर ऋषि के सुपुत्र थे। वे अपनी मां से आज्ञा लेकर तप के लिए बदरिकाश्रम चले गए। वहां एकांत में समाधि लगाकर बेर खाकर जीवन यापन करने लगे, जिससे उनका नाम एक ‘बादरायण’ भी पड़ा। उन्हें द्वीप में प्रकट होने के कारण ‘द्वैयापन’ तथा काले (कृष्ण) रंग का होने के कारण ‘कृष्ण द्वैयापन’ भी कहा जाता है।

व्यास ऋषि मंत्र दृष्टा थे। वे तप और ध्यान द्वारा मंत्रवेत्ता बने। महर्षि व्यास ने इन सब मंत्रों का संकलन करके सुगम बनाया और मानव जीवन को समर्थ एवं समृद्ध बनाने हेतु मंत्रों की धारा प्रवाहित की।

मानव की बिखरी हुई चेतना, जीवन और संकल्प-विकल्पों को सुव्यवस्थित करके परम पद तक पहुंचाने की व्यवस्था की। व्यास जी ने विश्व के प्रथम आर्ष ग्रंथ ‘ब्रम्हसूत्र’ की रचना की। उन्होंने पंचम वेद ‘महाभारत’, ‘ भागवत पुराण’ एवं अन्य 17 पुराणों का भी संकलन किया है। इस प्रकार वेदों का विस्तार करने के कारण उन्हें ‘वेद व्यास’ कहा गया है। व्यासजी आदि गुरु थे। जो स्वयं चरित्रवान वाणी एवं लेखनी से प्रेरणा संचार करने की कला जानते, जिन्हें उपनिषद आदि का ज्ञान होता है ऐसे आदर्शनिष्ठ विद्वान को व्यास की संज्ञा दी जाती है। उन्हें गुरु व्यास की संज्ञा दी जाती है। गुरु व्यास भी होता है। इसलिए गुरु पूजा को व्यास पूजा भी कहा जाता है।

शिष्य भी कई स्तर के होते हैं। सत् शिष्यों के पास चाहें जितनी भी ऐहिक सुख-सुविधाएं हों, चाहे उनके जीवन में प्रतिकूलताएं हो, फिर भी वे सदा मुस्कुराते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। उत्तम शिष्य अपमान व लांछन सहकर भी धन्यवाद देते हैं तथा कभी कोई मांग नहीं करते हैं। मध्यम शिष्य धन्यवाद भी देते हैं और मांग भी करते हैं। परंतु कनिष्ठ शिष्य हमेशा मांग ही करते हैं और तर्क-कुतर्क करके गुरु को तौलते परखते रहते हैं।
सत् शिष्य का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि-

अमानस्तरों दक्षो निर्ममों दृढ़सौहृद:।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासु: अनसूयु: अमोघवाक्॥

सत् शिष्य मान और मत्सर से रहित, अपने कार्य में दक्ष, ममता रहित, गुरु में दृढ प्रीति करने वाला, परमार्थ का जिज्ञासु और ईर्ष्या रहित जीवन में सात्विकता एवं पवित्रता रखने वाला एवं सत्यवादी होता है। इन नव गुणों से सुसज्जित शिष्य अपने गुरु के थोड़े से उपदेश मात्र से आत्मसाक्षात्कार करके जीवन-मुक्त पद पर आरूढ़ हो जाता है। किसी शिष्य को ब्रम्हवेत्ता सदगुरु का सान्निध्य मिल भी जाए, लेकिन उसमें यदि इन नव गुणों का अभाव है, तो उसे ऐहिक लाभ तो जरूर हो सकता है, परंतु वह आत्मसाक्षात्कार से वंचित रह जाता है। वे माता-पिता धन्य हैं जिनके कुल में सत् शिष्य जन्म लेते हैं-

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भव:।
धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्ता॥

गुरुपूर्णिमा का पर्व व्रत, उपवास का पर्व है। गुरु-पूजन का पर्व है। जीवन की शाम होने के पहले जीवनदाता को पाने का संकल्प करने का पर्व है। जिन्हें गुरु का प्रत्यक्ष रूप से आदर-सत्कार एवं पूजन का सुअवसर प्राप्त हो सकता है वे श्रद्धापूर्वक उनका पूजन आदि कर सकते हैं। परंतु गुरुपूर्णिमा को सबको षोडशोपचार विधि से पूजा करना तो संभव नहीं है। षोडशोपचार की पूजा से भी अधिक फल देने वाली मानस पूजा होती है, जिसे सब कर सकते हैं। गुरुपूर्णिमा के दिन लोग उपवास रखते हैं। केवल दूध अथवा फल खाकर ही रहें तो अच्छा है, नहीं तो अल्पाहार कर सकते हैं। जब तक गुरु का प्रसाद नहीं पाते तब तक बाहर का प्रसाद ग्रहण न करें। प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठकर, पूर्वाभिमुख होकर आसन पर बैठ जाएं। सामने अपने गुरुदेव की तस्वीर रखें, साथ में अपने आराध्य देव की प्रतिमा अथवा तस्वीर भी रख सकते हैं। यथा विधि पूजन करके गुरुदेव का स्मरण करें, अपने ईष्टदेव का स्मरण करें, चिंतन करें और मन ही मन भावना करें-

कायेन वाचा मनसेनिद्रयैर्वा बुद्धयात्मना व प्रकृते: स्वभावात्।
करोमि यद् यद् सकलं परस्मै नारायणयेति समर्पयामि॥

अर्थात शरीर से, वाणी से, मन से, इंद्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वाभाव से जो-जो करते हैं वह सब समर्पित करते हैं। हे गुरुदेव! हमारे जो कुछ भी कर्म हैं वह सब आपके श्री चरणों में समर्पित है।

गुरुदेव को प्रणाम करके प्रार्थना करते हैं कि, गुरुदेव! आपका स्वास्थ्य अच्छा रहे, आपका आरोग्यधन बढ़ता रहे।

आपके परोपकार का भागीरथ कार्य बढ़ता रहे और हमारे जैसे लोगों का कल्याण होता रहे। इस प्रकार शिष्य अपनी कमाई, श्रद्धा, पुरुषार्थ प्रभाव एवं संपदा का एक अंश गुरु को समर्पित करता है, उनके उचित उपयोग से गुरु का लोकमंगल अभियान विकसित होता है और लाभ अधिक व्यापक क्षेत्र तक पहुंचने लगता है, इससे गुरु की पुण्य सम्पदा बढ़ती है और उसका अधिकांश भाग शिष्यों के हिस्से में आने लगता है। जहां इस प्रकार गुरु-शिष्य संबंध होता है वहां असामान्य उपलब्धियों पैदा होती हैं।

गुरुभक्तया च शक्रत्वमभक्तया शूकरो भवेत् ।
गुरुभक्त: परे नास्ति भक्ति शास्त्रेषु सर्वत:॥

Leave a Reply