अमेरिका, पाकिस्तान और अफगाणिस्तान!! बनते-बिगड़ते रिश्तें

आज की कई पाकिस्तानी इस बात पर दुखी होते हैं, कि उनके पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली खां ने 1951 में रुस जाने की दावत को ठुकरा कर वाशिंग्टन की राह ली। उस समय एक वक्त आज़ाद हुए एशियाई देश, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री को रुस के संयुक्त राष्ट्रपति जोसफ स्टालिन ने रुस आने की दावत दी थी। दावतनामा मिलते ही पाकिस्तान की अमेरिकी लाबी में बेचैनी फैल गई। उधर पाकिस्तान के ही रुसी लाबी को खुरी हुई कि उनका मुल्क रुसी समाजवादी देश से हाथ मिलाए था। अमेरिकी लाबी में उच्च सरकारी अफसर, व्यापारी वर्ग, जागीरदारों, जमिनदारों की टोली, दलित पंथी उलेमा और अपनी महत्वकांक्षाओं को साकार करने वाले मध्यम वर्गीय लोगकों, बुद्धिजीवियो का विशाल वर्ग था। अंत में इसी अमेरिकी लाली की जीत हुई और अप्रैल 1951 में पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री, लियाकत अली खां अप्रैल 1951 में वाशिग्टन गए। वहां तत्कालीन राष्ट्रपति आईजन हावर ने उन्हें हाथें हाथ लिया और उनकी आवभगत में कोई कमी नहीं की।

अमेरिका में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने चार पांच दिन नहीं, बल्कि तीन सप्ताह बिताए। इस बीच उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस के साथ साथ कई दूसरी संस्थाओं के सामने भी पाकिस्तान का पक्ष रखा। उन दिनों भारत के साथ कश्मीर का संकट गंभीर रुप ले चुका था। वे अमेरिका से कश्मीर के लिए समर्थन चाहते थे। इसी के साथ उन्होंने भारत की फौजी ताकत की संभाषनाओं को देखते हुए आम विकास कार्य के लिए डालरी सहायता के साथ साथ फौजी सहायता की थी गुहार लगाई। उधर अमेरिकी, व्यापारियों को भी रशिया में पाकिस्तान नाम की एक गई मंडी मिलगई। सबसे ज्यादा फायदा हुआ अमेरिकी प्रशासन को, जो शीत युद्ध के इस काल में दलिया एशिया में एक ऐसा सहयोगी देश ढूंढ़ रहा था, जो एक और उसके दोनो ‘लाल शत्रुओं, रूस और चीन के निकट हो और जहां से खाड़ी का काला सोना, पेट्रोलियम देने वाले ईराज और खाड़ी के अरबह देशों के भी नज़दीक हो। वास्तव में पाकिस्तान की भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति ही ऐसी है कि दोनों सुपर पावर उसे अपने खेमे में लेने को ततचाहे पत्र पाकिस्तान को भी अपनी इस महत्वपूर्ण स्थिति का यहा चला तो उसने एक प्रकार से पिछले दरवाजे से अमेरिका को ब्लॅक मेल करना तुरन्त शुरु किया और दोनो हाथों से वर्षो तक, बल्कि आज भी लाखों करोड़ों डालर बटोरे। यह सिलसिला अभी जारी है।

पाकिस्तान को अपनी ओर खींचने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान निर्माल के महत्व दो महिने में ही उससे अपना डिर्फ्टामैटिक संबंध स्थापित कर लिया। 20 अक्तूबर 1947 को कराची में अमेरिकी दूतावास काम करने लगा और वह पाकिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए सक्रिय होने लगा। वैसे भी जैसा कि पहले लिखा गया, पाकिस्तान में उस समय अमेरिकी समर्थक पाकिस्तानी प्रभावशाली लोगों की टोली मौजूद थी। यह लाबी इतनी मजबूत और प्रभावशाली थी कि उसने प्रधानमंत्री को रूसी राष्ट्रपति का दावतनामा रद्द करा दिया। पाकिस्तान में ऐसे अमेरिका परस्तू लोगों ने अमेरिका से भरपूर फायदा उठाया है। अमेरिका के हर इलाके में ऐसे पाकिस्तानियों की तीसरी-चौथी पीढ़ी लाखों डालरो में खेल रही है। उनके बुजुर्गो की अमेरिकन धरती ने उन्हें पाकिस्तान जैसे मुल्क से धरती पर स्वर्ग समजानेवाले अमेरिका में पहुंचा दिया। उनकी कई पीढ़ियों का ‘जीवन सफल हो गया।’’

लियाकत अली खां की अमेरिका से वापसी के बाद, मुहम्मद अली जिला का पाकिस्तान धीरे-धीरे संपूर्ण रुप से अमेरिकामय (अमेरिकानाइज) होता गया। उस समय जिन लोगों ने पाकिस्तान की अमेरिकी मुकाव पॉलिसी पर उंगली उठाई, उनका पाकिस्तान में जीना दुश्बार कर दिया गया। उसी वर्ष याने 1951 में ऐसे ही कुछ प्रभावशाली वामपंथीय अमेरिका विरोधी फौजी अफसरों, ट्रेडयनियल और किसान नेताओं रुसी मुकाव रखने वाले पत्रकारों-बुद्धिजीवियों ओर सरकार विरोदाी हर व्यक्ति की बड़े पैमाने पर धर-पकड़ शुरु की प्रशासन के विरुद्ध बगावत के आरोप में कुछ गिले चुने लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। रावलीपंडी साजिश केस नामक उस एमरिका विरोध अभियान में मशहूर शायर फैज अहमद फैज का नाम भी था जो चार वर्षो तक जेल में रहे और जिन्हें फांसी की सजा भी हो सकती थी। इस प्रकार शुरु के दिनों में ही पाकिस्तान की अमेरिकी लाबी ने एक तरह से अमेरिका का दामन मजबूती से पकड़ लिया था।

अक्तूबर 1951 में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खां को एक जलसे में गोली मार दी गई। उन्होंने अपने कार्यकाल में पाकिस्तान में एमरिकी दरवाजा खोल दिया था। उसके बाद 1951 से 1958 तक पाकिस्तान में एक प्रकार की अराजकता छाई रही। प्रशासन पर राजनितीज्ञी की पकड़ कमजोर होती गई और उच्च सरकारी अफसरों ने प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरु की। उनमें 1951 से भूतपूर्व सीमियर आई सी एस अफसर गुलाम मुहम्मद ने 1956 तक और 1956 से 1958 तक सुरल्ला सचिव जनरल स्कंदर मिर्जा थे। दोनों न जमकर मनमानी की। अपनी-अपनी मर्जी के प्रधानमंत्री बनाए। संविधान बन, तो उसे लागू नहीं होने दिया। चुनाव टालते रहं, और सबसे बड़ी बात यह थी कि मुस्लिम लीग समेत दूसरी पार्टियों के नेताओं को प्रशासन से दूर करने गए। कुछ तेजे तरीर नेताओं को खामोश भी कराया लेकिन इसी दौर में अमेरिकी लाबी और भी सशक्त होती गई।

1951 से 1958 तक ढीली ढाली हुकूमतों के कारण अमेरिका लाबी ने पाकिस्तान कों बगदाद पैक्ट में शामित होने पर मजबूर किया। यह एक फौजी करार था, जिसमें ईरान, तुर्की और इराक की साजेदारी थी। अमेरिकी सरपरस्ती में इस फौजी पैक्ट में पाकिस्तान भी 1955 में शामिल हुआ। इस के अंतर्गत सदस्य देशो को अमेरिका फौजी और आर्थिक सहायता देने वाला था। बहाना था इस क्षेत्र में बढ़ते हुए रूसी समाजवाद के खतरे से निपटाने ईरान और तुर्की को रुस से खतरा था। उधर उन दिनों मित्र में जमाल अब्दुल नासिर रुसी समर्थक के रूप में अरब जगत में उभर रहे थे। उनके प्रभाव को रोकने के लिए इराक के बगदाद को अमेरिकी निगरानी में यह समझौता अमल में आया मज़ की बात यह है कि पॅक्ट पर दस्तरक्त होते ही इराक के प्रधानमंत्री नूरी सईद का रुस समर्थक फौजी जगत कासिम ने तख्ता पलट दिया। अरब जगत में उस समय रुसी प्रभाव बढ़ रहा था और अमेरिका से दूरी की हुई थी। पॅक्ट के द्वारा अमेरिका अरब जगत में अपनी फौजी सारव बनना चाहता था। पाकिस्तान को उसमें शरीफ होने की जरुरत नहीं थी। समझौते के अनुसार भारत से लड़ाई होने पर अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ नहीं देने का करार किया था। लेकिन फिर भी पाकिस्तानी फौज के प्रमुख, जनरल अहयूब खांके दबाव के कारण पाकिस्तान भी बगदाद पॅक्ट का सदस्य बना। बगदाद पर अमेरिका विरोधी प्रशासन के कारण इसका हेडक्वार्टर तुर्की के अंकारा में कर दिया गया और नाम बदल कर (ण्र्िंर्‍ऊध्) सेंट्रल ईस्ट नॉर्थ ट्रीटी आर्गनाइजेशन किया गया। आज तक पाकिस्तान सेंटो से जुड़ा है। ईरान, इराक निकल गए है। तुर्की भी सेंटो का सदस्य है। इस समझौते से अमेरिका की फौजी सरपरस्ती हासिल है। पिछले 55-56 वर्षो में पाकिस्तान को सेंटो के अंतर्गत अमेरिका ने अरबों खरबों डॉलर की फौजी और दूसरी आर्थिक सहायता दी है। डॉलर के इस विशाल खजाने का कहां उपर्याप्त हुआ?

सेंटो एक महत्वपूर्ण फौजी करार था। उससे पहले पाकिस्तान ने अमेरिका द्वारा संचालित एक और फौजी करार बनाम एर्िंऊध् सीटो (साउथ ईस्ट एशिया ट्रीटी आर्गेनाइजेशन) पर भी दस्तरबत किए। इस फौजी संस्था में दीक्षा पूर्ती एशियन देश, फिलिपिन, मलेरिया, सिंगापूर, कोरिया थे। इस क्षेत्र से पाकिस्तान का कुछ भी लेना देना नहीं था। फिर भी अमेरिका ने इसे इसमें शरीफ किया। अक्तूबर 1958 में जब जनरल अय्यूब खां ने स्कंदर मिर्जा की सिविलियन हुकूमत को हटाकर फौजी हुकूमत स्थापित की तो उसके तुरंत बाद वह अमेरिका पहुंच गए। वैसे यह बता दें कि आज भी हर पाकिस्तानी राजप्रमुख गद्दी संभालते ही वाश्िंग्टन के ‘व्हाईट हाऊस’ से आशीर्वाद लेने जरूर पहुंजता है। इसी लिए आम धारणा है कि पाकिस्तानी सत्ता प्रमुख कौन होगा, इसका फैसला ‘व्हाईट हाऊस’ करता है। जो भी हो, 1958 में फौजी हुकूमत की स्थापना के बाद राष्ट्रपति जगत अय्यूब खां तुरंत अमेरिका पहुंचे और वहां उन्होंने एक और फौजी सनफोर्स की हानी भरी। 1959 का यह करार नामा अमेरिका-पाकिस्तान द्विपक्षीय करारनामा कहलाया, जिसके अंतर्गत ??? पाकिस्तान पर कोई हमला करेगा (?) तो अमेरिका उसकी मदद को आएगी जब इस समझौते पर भारत ने शोर मचाया, तो भारत को यकीन दिलाया गया कि भारत-पाक मामलें में अमेरिका बीच में नहीं आएगा। 1965 और फिर 1971 में ऐसा ही हुआ। इसी लिए पाकिस्तानी अमेरिका पर धोखेबाजी का भी आरोपा लगाते हैं। कुछ भी हो, इन समझौतों का प्रभाव यह तो जरुर हुआ कि पाकिस्तान में डॉलर की भरमार हो गई और फौज व नौकरशाहों के साथ-साथ कुछ व्यापारियों के भी बारे न्यारे हुए। उसी के साथ यह भी स्पष्ट होता गया कि पाकिस्तान बुरी तरह व अमेरिका के चंगुल में फंस गया है। कई पाकिस्तानी पत्रकारों, चिंतकों और कुछ व राजनीतिक नेताओं ने भी अमेरिका से छुटकारा पाने के लिए आवाज उठाई। लेकिन यह संभव नहीं था।

पाकिस्तान को अपनी एक कालोनी समझाते हुए 1962 में अमेरिका ने सोवियत रुस की जासूसी के लिए पेशावर से एक यू-2 नामक एक यान छोड़ा जिसे रुस ने मार गिराया और यान में बैठे जासूस को गिरफ्तार कर लिया। उस घटना से दुनिया भर में अमेरिका और पाकिस्तान की बदनामी हुई। यह मेद भी खुला कि अमेरिका पाकिस्तान का किस सीमा तक उपयोग करता है।

1965 और फिर 1971 की जंग में पाकिस्तान ने खुलकर भारत के विरुद्ध अमेरिकी हथियारों का उपयोग किया। भारत को दिए गए आश्वासन की अमेरिका ने सम्मान नहीं किया। ???? पाकिस्तान को 1971 में उम्मीद थी कि अमेरिका अपनी नौ सेना को पूर्वी पाकिस्तान (अल, बांग्लादेश) भेजेगा, मगर वैसा नहीं हुआ। दोनों जगों में हारने के बाद पाकिस्तान ने अमेरिका पर मदद नहीं करने का ओर से लढाया। लेकिन यह ??? उसी सीमा तक थी कि रिश्ता टूटे नहीं वही हुआ। जुल्फिकार अली भुट्टो ने अलबन्ना अमेरिका की नाराजगी मोल ली, जिसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी। जगत अय्यूब खां के शासन (1958-68) के बाद जब आम चुनाव हुए और ढेरो संकटों से उबरते हुए जुल्फिकार अली भुट्टो 1972 में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। भुट्टो के मन में भारत के प्रति गहरा द्वेष था। वैसे भी पाकिस्तानियों के एक वर्ग में भारत से बढता लेने की भावना थी, चूंकि 1971 की जंग में पाकिस्तान के दो टुकडे भी हुए और एक लाख सैनिक, सिरियन कैपी बनाए गए। वह एक अत्यंत शर्मनाक बात थी। उस समय तक पाकिस्तानी जान गए थे कि उनका सरपरस्त अमेरिका, उन्हें फूठे अश्वासन, देता रहा है वह नहीं चाहता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र हो, वह अपने पैरो पर खड़ा हो और एक स्वतंत्र देश के रूप में काम करे। कश्मीर को लेकर भी पाकिस्तान अमेरिका से नाराज है।

1974 में जब भारत ने अपना पहला एरमीतुजुबी किया, तो उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो भड़के और कसम खाई हम घास खाएंगे, लेकिन हम बनाएंगे। अमेरिका ने उन्हें मना किया और इस तरह से दबाव डाला कि पाकिस्तान बम के चक्कर में न पड़े। लेकिन भुट्टो पर बम का भू सवार था। उन्होंने पाकिस्तान मे बम बनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया, इसकी अलग से लंबी और रोधक दास्तान है। उसी सिलसिले उन्होंने इस्लामी देशों, खासकर तेल पैदा करने वाले अरब देशों और लेबिया पर बम के लिए धन देने का जाल बिछाया। उन्होंने पाकिस्तान में 1974 में विश्व इस्लामी सम्मेल, बताया और नारा दिया, ‘‘तुम हमें धन दो, हम तुम्हें बम देंगे। उन दिनों और पैसे भी फिलिस्तीन को लेकर इस्लामी देशो के कई देश अमेरिका से चिढ़ते थे नहीं। उनमे लीबिया के गड़ाफी का नाम सबसे उपर है। भुट्टो ने सभी अमेरिका विरोधी इस्लामी देशों और अमेरिका के मित्र सउदी अरब से भी बम के नाम पर काफी छाल किया। 1977-78 तक भुट्टो स्वयंही अपनी अंदरुनी नीति के कारवार जेल गए, उन्हें फांसी हुई। लेकिन उन्हें उनका तख्ता उलटने वाले और फांसी देने वाले पाकिस्तान के दूसरे फौजी तानाशाह जनरल जियाउलरुक के कार्यकाल (1977-1983) में पाकिस्तान एटमी बम का प्रोग्राम चलता रहा। ध्यास होने की बात है कि अमेरिका के लाडले जियाउलहक पर बम को लेकर अमेरिका ने उस पर उतना दबाव नहीं डाला, जितना दबाव भुट्टो पर डाला था।

जुल्फिकार अली भुट्टो शायद एक मात्र पाकिस्तान के सत्ताधारी प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने पाकिस्तान में अमेरिकी दखलांदजी और पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी नीति को पसंद नही किया। यहा तक कि उन्होंने अय्यूब खां के समय व्यापार मंत्री होते हुए, पाकिस्तान में वर्जित-चीन से चुपके चुपके नाता जोड़ा और बाद में खुल्लम खुल्ला अमेरिका की सख्त नापसंदी के बावजूद भुट्टो ने चीन से डिप्लोमेटिक रिश्ता जोड़ा और चीन से भी कई तार के फायदे उठाए, जो आज भी जारी है। अपनी एंटी अमेरिका नीति के फारशा ने पाकिस्तान के सबसे तेज़ तरीर प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अमेरिका की नज़रो में चढ़ गए थे। 1978- 79 में जब वे जेल में थे और जब उन्हें फांसी की सज़ा हुई, वो उस समय अमेरिका ने उन्हें बचाने के लिए कुछ नही किया। आज भी लोग कहते है कि व्हाईट हाऊस का एक फोन भुट्टो को फांसी से बचा सकता था। लेकिन ऐसा लगता है, एमरिका ने भी ठान लिया था कि वह भुट्टो की जान बचाने की कोशिश नही करेगा और सारे मामले को पाकिस्तान का अंदरुनी मामला बताकर चुप्पी साधी।

1979-80 में पाकिस्तानी बिल्ली के भाग से छींका टूटा। अफगान समाजवादी शासक दल की सहायता के लिए रुस ने एक लाख फौज अफ़गाणिस्तान भेजा। भय और दहशत का माहौल छा गया और लठामठा 30 लाख अफ़गाण शररार्थियों ने पड़ोसी पाकिस्तान के सव्वा सरहद में शररात किया। अमेरिका को मौका मिल गया। उसने रुसी फौजों से लड़ने के लिए पाकिस्तान मे अफ़गाणी मुजाहिदों के कई दलों को आिएसह आधुनिक हथियार (कई तरह के गन, गोले, मिसाइलें, राकेट, राकेट लांचर, गोलियां इत्यादि) देना शुरु कर दिया। इतना ही नहीं, अमेरिका, कई यूरोपीय देशों, सऊदी अरब, कुवैत इत्यादी ने अफ़गान मुजाहदीन की मदत के लिए डॉलर, पाउंड और रियात का दरिया बहा दिया। देखते ही देखते हजारों अफ़गाण मुजाहद्दीन, शरगार्नियों के साथ-साथ पाकिस्तानियों का एक बड़ा कंगाल वर्ग लाटरी में मिली दौलत की तरह दौलत से खेलने लगा। अपने आप में यह एक दूसरी दिलचस्प घटना है, रातोें रात मालामाल बनने की! अफ़गाण शरणार्थी ही नहीं, देखते ही देखते पाकिस्तान भी अचानक बहुत धनवान देश हो गया। अगले 9-10 वर्षें तक उसे भी अरबों खरबों की सैनिक-आर्थिक सहायता मिली। उससे अचानक जैसे पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में जबरदस्त उद्दात आ गया। रुई तहत के कारोबार फलने-फूलने लगे उसी समय में अफगान मुजाहदीन के सत्य अफ़गान तालिबान का भी जन्म हुआ और पाकिस्तान की धरती पर अधर्मी रूस की सहायता से टिकी अफ़गानी समाजवादियों के शासन को समाप्त करने के लिए पानी के बुलबुले की तरह जेहादी ग्रूप पैदा होने लगे। 1988-89 तक जब अफगान कुछ शांत हुआ, तो उन जेहादियों ने हमारे कश्मीर मे दहशतवादी शुरु की, जिसका सिलसिला आज भी जारी है।
1991-92 में रुसी सेना वापस चली गई। मुजाहदीन के चार बड़े ग्रूप ने मिलकर नई हुकूमत बनाई। वर्षों की लड़ाई के बाद उमीद थी कि अब तक निर्माण होगा। अफगाणिस्तान का लेकिन वैसा नहीं हुआ और अफ़गाणियों के चारों मुजाहद्दीन गुटों ने आपस में ही लडना शुरु कर दिया। दर असल उनमें से एक हिकमतयार ग्रूप को पाकिस्तान समर्थन देने लगा, जब कि हिकमतयार से सीनियर रब्बानी ग्रूप स्वयं को गद्दी का असली हकदार बताने लगा। इस ग्रूप को पाकिस्तान विरोध करने लगा। एक बार फिर गृहयुद्ध शुरु हो गया। इसी का फायदा उठाया तालिबान नाम के युवा संगठन ने। जैसा कि नाम से स्पष्ट है तालिबान, कट्टरपंथी धार्मिक मदरसों की पैदावार थे। उन्हे न रूस चाहिए था, न अमेरिका। न पाकिस्तान, न कोई और। उधर सीनियर मुजाहदीन गुटों की लड़ाई का फायदा उठाने उस तालिबान ने 1996 में का बुल पर विजय प्राप्त की और सबसे पहले रूसी समय कि जेल में बंद अंतिम अफ़गाणी शासक नजीबुल्ला को बेरहमी से फांसी पर लटका कर अपनी शक्ति का परिचय दिया।

1996 के बाद तालिका ने काबुल पर विजय प्राप्त करने के बाद अफ़गाणिस्तान में कट्टरपंथी शरीअत कानून को लागू करके हर तरह के मनोरंजन को बंद कर दिया। लड़कियो के स्कूल बंद कर दिए। महिलाओंकी नौकरी पर पाबंदी लगाई। बुर्का पहनना जरुरी हो गया। पुरुषो को दाढ़ी नहीं रखने पर जेल जाना पड़ता। उनकी इन हरकतों के कारण दुनिया पर में उन्हें लडाया गया। लेकिन जब उन्होंने अफ़गाणिस्तान के बामियान की बौद्ध मूर्तिर्यां को तोड़ना शुरु किया, तो कई इस्लामी देशों ने भी उनकी निंदा की। अफ़गान तालिबान ने ही दुनिया के सबसे बड़े दहशतवादी और अहसामद के संस्थापक ओसामा बिन लादेन को भी अफगाणिस्तान में शरण दिया। अफ्रीका में अमेरिकी दूतावास पर हमला करने पर ओसामा की गिरफ्तारी के लिए अमेरिका ने ढाई करोड़ डॉलर का इनाम रखा था। अमेरिका को विश्वभर से ओसामा विरोधी अभियान में समर्थक मिल रहा था। राष्ट्रसंघ ने 1999 में ओसामा और तालिबानी हरकतों को लेकर तालिबान शासन पर प्रतिबंध लगा दिया। ओसामा को अमेरिका के हवाले करने के लिए तालिबान पर अमेरिकी दबाव बढ़ने लगा। उसी बीच ओसामा के अलकायदा दहशतवादों ने 11 सितम्बर 2000 को न्यूयार्क पर हमला करके लगभग 4 हजार लोगों की जान ली और अमेरिका समेत सारी दुनिया में दहशत का माहौल छा गया। उसके बाद अमेरिका ने योजनाबद्ध ढंग से तालिबान और ओसामा के ठिकाणों पर हमले शुरु कर दिए।

तालिबानी अफ़गानी से ओसामा बिन लादेन को शह देने वाली हुकूमत से बदला लेने के लिए अमेरिका का पाकिस्तान की सख्त जात थी। पाकिस्तान अफ़गाणिस्तान का पड़ोसी था। इसके अलावा दोनो देशों की तंबी हिमालये सरहद में भी ओसामा के छुपने की संभावना थी। इसके अलावा पाकिस्तानी सरहद से भी काबुल पर हमले किए जा सकते थे। अमेरिका के लड़ाकू विमान और फौजी छावनियां पाकिस्तान से सुचाऊ रूप से अमेरिका को एक फौजी अड्डा दे सकते थे। जरुरत पड़ने पर अमेरिकी या उसके मित्रों नाटो की सेना पाकिस्तान से अफ़गाणिस्तान और ओसामा के ठिकाणों पर हमले कर सकते थे। हर हाल में अफ़गाणिस्तान पर काबू पाने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत होनी ही इस अमेरिका ने तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ से एक विशेष समझौते के अंतर्गत पाकिस्तान में अमेरिकी फौज अड्डा बचना और बड़े पैमाने पर काबुल और तालिबना व ओसामा के ठिकाणों पर फौजी हमले शुरु कर दिए। एक बार फिर अफ़गाणिस्तान जंग का मैदान बन गया। तालिबान भला कहां टिक पाते। उन्हें काबुल छोड़ना पड़ा। उनके बाद अमेरिका ने अपने समर्थक हानिद कर्जई को अफ़गाणिस्तान का शासन सौंपकर अफ़गान-पाक सीमाओं पर भगौडे तालिबनियों और ओसामा और उसके अलकायदा के सदस्यों को दबोचना शुरु किया। छुपता-छुपाता ओसामा तो पाकिस्तान के ही एबदाबाद में मारा गया और तालिबान लीडर मुल्ला उमर का भी कुछ पता नहीं। लेकिन उनके बचे खुचे गर्गे पाक-अफ़गाणिस्तान की सरहद के दोनों ओर पनाह लेने लगे। कई बार अमेरिकी विमानोंने उन इलाकों पर बमबारी की, जिससे कई मासूम पाकिस्तानी नागरिक मारे जाते रहे और सीमा, के कई गांव तबाह हुए। हम तो यह हुई कि पिछले 24 नवम्बर का सरहद की एक चौकी पर अमेरिकी बमबारी के कारण 30 पाकिस्तानी फौजी जबाज मारे गए। इस दुर्घटना पर सारा पाकिस्तान अमेरिका विरोधी हो गया। लोगों के तेबर को देखते हुए पाकिस्तानी हुकूमत ने मी पाकिस्तानी फौजियों पर अमेरिकी हमले की कड़ी निंदा की वजीर आज़म गिलानी ने तो यंहा तक कह डाला कि आने वाले दिनों में पाकिस्तान को अर्थात अमेरिकी रिश्ते के बारे में नए सिर से सोचना होगा मामले की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने राष्ट्रपति आसिफ़झरदारी से फोन पर माफी मांगी। हालांकि इससे पहले एक अमेरिकी प्रवक्ता ने कहा था कि अमेरिका इस मामले मे माफ़ी नहीं मांगेगा।

लेकिन जब मामला सड़कों तक आ गया तो अंकल सैम’’ (ळर्‍ण्थ्र्िं एश्) को मुकना ही पड़ा। इससे इस बात का भी संकेत मिलता है कि अमेरिका बहुत आसानी से पाकिस्तान से पल्ला नहीं झाड़ने वाला। भले ही उसे अफ़गाणिस्तान से अपनी फौज हटानी पड़े। लेकिन पाकिस्तान उसके गले की हड्डी है। बरसो का याराना है उनके साथ। इसके अलावा पिछाले 50-55 वर्षो में अमेरिका ने पाकिस्तान की सिंधु नदी के पानी में अरबों खरबों डालर बहाया है, उसके नागरिकों को एक मुदत तक अमेरिकी गेंहू खिलाया है, उसके राजनितियों, नौकरशाहों और फौजी अफ़सरो के बड़े वर्ग को पाल पोसा है। महज़ एकाध घटना, दुर्घटना से सारे रिश्ते नहीं टूटते और न टूटेंगे।

जहां तक अफ़गाणिस्तान का सवाल है, तो अमेरिका का मकसद पूरा हो गया है। उसे अपने सबसे बड़े शत्रु, ओसामा बिन लादेन और उसके संगठन अलकायदा को तबाह करना था। अब ओसामा भी मारा गया और अलकायदा भी बिखर गया। इसी तरह अमेरिका ने अफ़गाणी तालिबान की कमर की तोड़ दी। आज अफ़गाणिस्तान में अमेरिका को करने के लिए कुछ भी नहीं है। पिछले दिनों जर्मनी के बीच में अफ़गान समस्या पर सौ देशों की सभा मे अमेरिका ने अपनी फौजों की वापसी की बात उठाई। इसी के साथ अन्य देशों के साथ उसने वर्तमान राष्ट्रपती हामिद कर्जई के हाथ मज़बूत करने का वादा किया। लेकिन पाकिस्तान और अफ़गाणिस्तान के रिश्ते भी सर्द-गर्द होने की संभावना है। हामिद कर्जई का भारत की ओर मुकाव है। यह मुकाव ऐतिहासिक है। ध्यान देने की बात है कि इतने संकट और मारामारी के बाद भी भारत अफ़गाणिस्तान के विकास की कई योजनाओं मे अपना योगदान दे रहा है। पाकिस्तान ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा है बल्कि उसकी ही ढीली-ढाली सीमा दोनों ओर के तालिबनों और दहशतवादों के लिए खुली रहती है। यह भी कहा जाता रहा है कि पाकिस्तानी सेना का एक वर्ग अफ़गाणी तालिबानियों की मदद करता है। हामिद कर्जई इस सच्चाई को जानते हैं। इसी लिए वह पाकिस्तान पर संपूर्ण भरोसा नहीं करते हैं। यह बात उन्होंने खुल कर भी कही है। अब देखना है कि अमेरिकी सेना की वापसी के बाद हानिद कर्जई और उनका प्रशासक किस तरह नई चुनौतियों का सायना करता है?

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