डॉ. मनमोहन सिंह : फिसड्डी प्रधानमंत्री

डॉ मनमोहन सिंह एक बार फिर देश के फिसड्डी प्रधानमंत्री घोषित किए गए हैं। अमेरिका की प्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ ने अपने एशिया अंक में उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल की उपलब्धियों और अनुपलब्धियों समीक्षा करके उन्हें ‘अण्डर अचीवर’ के विशेषण से विभूषित किया है। ‘टाइम’ मैग्जीन ने कहा है कि डॉ. मनमोहन सिंह ऐसे आर्थिक सुधारों पर आगे बढ़ने से हिचक रहे हैं, जिनसे देश की अर्थव्यवस्था में तेजी आ सकती है।

टाइम के कवर पर शीर्षक है- उम्मीद से कम सफल भारत को चाहिए नई शुरुआत।’ ‘मैन इन शैडो’ नामक इस लेख में सवाल किया गया है कि क्या मनमोहन सिंह अपने काम में खरे उतरे हैं, इसमें कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि में सुस्ती, भारी वित्तीय घाटा, लगातार रुपये का गिरता मूल्य, यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार व घोटाले चिंता का विषय हैं। सुधार को आगे बढ़ाने से कमजोर विदेशी निवेशक हिचक रहे हैं। देश में बढ़ती महंगाई को नियंत्रित न कर पाने, विदेशी निवेश में आती लगातार गिरावट, विकास दर में कमीं, आर्थिक तथा राजनैतिक मामलों में निर्णय न ले पाने की स्थिति, किसी भी मामले में स्वतंत्र निर्णय का अभाव, मंत्रिमंडल के सदस्यों पर पकड़ न होने, हर मुद्दे पर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का मुंह तांकने जैसे बिंदुओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। यह बात भले ही ‘टाइम’ पत्रिका ने अब उजागर की है, किन्तु देश का बच्चा-बच्चा भी यह जानता है कि डॉ. मनमोहन सिंह देश के कठपुतली प्रधानमंत्री हैं।

सत्ता की लगाम शुरू से ही किसी दूसरे के हाथ में रही है। देश यह भी जानता है कि वे अपनी राजनीतिक समझ और योग्य प्रशासक के गुणों के कारण सबकी सहमति से प्रधानमंत्री नहीं बने हैं, बल्कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा श्रीमती सोनिया गांधी को वर्ष 2005 में प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने से मना करने पर आनन-फानन में बिना किसी सोच-विचार के उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया था, वे आज तक उसी के एहसान के तले दबे हैं और देश को रसातल की ओर ढ़केल रहे हैं। बीच-बीच में मैनेज की गई मीडिया से यह प्रचार कराया जाता है कि वे बड़े अच्छे अर्थशास्त्री हैं। किन्तु यह कोई नहीं जानता कि उन्होंने किस आर्थिक विषय पर अपना स्वतंत्र विचार प्रतिपादित किया है या किस आर्थिक सिद्धांत की स्थापना की है। अपना देश कृषि प्रधान है। यहां की सत्ता का यहां की व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। डॉ. मनमोहन ने देश की ग्रामीण जनता के समग्र उत्थान, कृषि संबंधी विकास, ग्रामीण उद्यम इत्यादि के लिए कभी कोई विचार नहीं किया। रिजर्व बैंक के गवर्नर रहते हुए भी उन्होंने कभी-भी कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिससे देश की आर्थिक नीति पर व्यापक प्रभाव पड़ा हो, जैसा उनके पूर्ववर्ती गवर्नर करते आये थे, वैसा ही इन्होंने भी सरकार की नीतियों का अनुकरण करते हुए अपना कार्यकाल पूरा किया । हमें स्मरण है, स्व. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में डॉ. मनमोहन सिंह योजना आयोग के अध्यक्ष थे। आज यूपीए अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस में जिन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य व्यक्ति मानती हैं, उनके स्वर्गीय पति ने उन्हीं डॉ. मनमोहन के लिए कहा था कि योजना आयोग तो जोकरों का समूह है, उनके इस कथन से नाराज होकर डॉ. मनमोहन सिंह योजना आयोग से त्याग पत्र देकर विश्व बैंक की नौकरी करने चले गये थे।

सत्ता की लगाम शुरू से ही किसी दूसरे के हाथ में रही है। देश यह भी जानता है कि वे अपनी राजनीतिक समझ और योग्य प्रशासक के गुणों के कारण सबकी सहमति से प्रधानमंत्री नहीं बने हैं, बल्कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा श्रीमती सोनिया गांधी को वर्ष 2005 में प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने से मना करने पर आनन-फानन में बिना किसी सोच-विचार के उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया था, वे आज तक उसी के एहसान के तले दबे हैं और देश को रसातल की ओर ढ़केल रहे हैं।

डॉ. मनमोहन सिंह को भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में अहम भूमिका निभाने के लिए भी जाना जाता है। भारत में वैश्वीकरण, निजीकरण इत्यादि के साथ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपनाने के निर्णय स्व. नरसिंह राव की सरकार द्वारा लिया गया था, उस समय डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। हम सब जानते हैं कि उससे पहले विश्व में पूंजीवादी और साम्यवादी दो अर्थव्यवस्थाएं प्रचलित थीं। भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वतंत्रता के समय से ही अपनाया था। सरकारी और निजी क्षेत्र समान रूप से देश के विकास में योगदान दे रहे थे। सोवियत संघ के पतन के साथ ही दुनिया भर से साम्यवादी अर्थव्यवस्था विदा होने लगी। भारत पर भी अमेरिका सहित पश्चिमी देशों और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का दबाव पड़ने लगा कि यह भी अपने देश में पश्चिमी देशों के अनुरूप पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये। चूंकि डॉ. मनमोहन सिंह विश्व बैंक में नौकरी कर चुके थे, वहां की रीति-नीति से अच्छी तरह से परिचित थे, इसलिए विश्व बैंक की नीतियों को लागू करने, पूंजीवादी व्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए वे ही सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकते थे। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वे पश्चिमी देश, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष चाहते थे, वैसी ही अर्थव्यवस्था का आधार उनके वित्तमंत्री रहने के लिए तैयार किया गया, उनके उस कदम में देश की परंपरागत अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। गरीबी बढ़ती जा रही है। कृषि अब प्रमुख आर्थिक स्रोत है, या नहीं इस पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। आज देश में भ्रष्टाचार, घोटाला, कालाबाजारी, मंहगाई, बेरोजगारी इत्यादि जो बढ़ रहे हैं, वे सब पूंजीवादी नीति के ही जाने-समझे दुष्परिणाम हैं।

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