संस्कृत शब्दों की विश्व-मात्रा

आदि भाषा संस्कृत का अथाह शब्दभंडार है। हजारों वर्षों से इन शब्दों ने असीमित विश्वयात्राएं की हैं। उनके देश-देशांतर की यात्रा इनके जन्म, शैशव, यौवन, रूप-स्वरूप, प्रवृत्ति में परिवर्तन, अर्थ-संकोच अर्थ-विस्तार, उनके जीवन में हुई उथल-पुथल की अंतरंग झांकी बहुत रोमांचक है। कुछ शब्द अपने चारित्रिक पतन के स्वयंसाक्षी हैं। इस संक्षिप्त आलेख में पेश है उसकी रोचक बातमी

पांडित्य की कसौटी ‘पंडित’

संस्कृत में कभी ‘पंडित’ का मूल अर्थ था-विद्वान्, ज्ञानी, शास्त्रों का ज्ञाता, प्रवीण, सूक्ष्मबुद्धि। भारतीय भाषाओं में पंडित इस अर्थ में आज भी जीवित है, जैसे हम कहते हैं कि वह अमुक विषय का प्रकांड ‘पंडित’ है

इस संदर्भ में इस शब्द का किसी भी धर्म, वर्ण, जाति या समुदाय से कोई संबंध नहीं है। यहां पांडित्य की कसौटी केवल ज्ञान है। लेकिन कालान्तर में भारत में पंडित ज्ञानसूचक के स्थन पर जातिसूचक हो गया।

लेकिन जावा में ‘पंडित’ संस्कृत भाषा के विशुद्ध प्राचीनतम अर्थ में गया और आज तक उसी अर्थ में है। एक ओर जावा में वैदिक धर्म के आचार्य, कर्मकांडी पुरोहित ‘पंडित’ कहलाते हैं दूसरी और वैष्णव, शैव आदि सम्प्रदायों के धर्मज्ञाता, पुजारी भी पंडित कहलाते हैं।
जब बौद्ध धर्म ने अपनी विजय-पताका जावा में फहरायी तब बौद्ध धर्माचरण और उपदेश में पारंगत बौद्ध भिक्षुभी ‘पंडित’ कहलाये।
धर्म के ज्ञान में जो विशिष्ट थे; उन्हें पंडित कहा गया। जब यहूदी जावा आये तो यहूदी धार्मिक विधि सम्पन्न करानेवाले ‘रब्बी’ भी ‘पंडित’ कहलाने लगे। रब्बी का अर्थ है रब यानी खुदा की तरफ से आया हुआ।

प्राचीन जावाई भाषा में पंडित शब्द किसी धर्म या सम्प्रदाय की सीमाओं में नहीं बंधा। जब इस्लाम का जावा में आगमन हुआ तब ‘मुल्ला’ (मौलवी, फाजिल, मस्जिद में आजान देनेवाला, धर्मशिक्षक) भी ‘पंडित’ ही कहलाया। थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ। ‘पंडित’ ‘पेंडित’ बन गया।
जब ईसाई धर्म जावा पहुंचा तो प्रोटेस्टेंट पादरी भी ‘पादरी’ या ‘फादर’ न कहलाकर पंडित ही कहलाये।

जावा के मुस्लिम रमजान के दिनों (दिन में भोजन न करने) का रोजा रखना न कह कर उपवास रखना कहते हैं। वहां की भाषा व बोलियों में उपवास तीन रूप बदलकर ‘पुवस’ ‘पुअस’, ‘पस’ हो गया है। ये शब्द उनके लिए रोजा (रोज) जितने ही पवित्र हैं।

‘होली स्पिरिट’ को जावाई भाषा में ‘रूह शुचि’ कहा जाता है। रूह (आत्मा) अरबी शब्द है और शुचि (पवित्र) संस्कृत शब्द है। इस शब्द में अरबी और संस्कृत की आत्मा एक हो गयी है।

‘तप’ हो गया ‘ताप’

‘तप्’ और ‘तप’ ऐसे शब्द हैं जो प्राचीनतम वैदिक संस्कृत से प्राचीन संस्कृत, आधुनिक संस्कृत और भारतीय भाषाओं और ईरान में अवेस्ता, पहलवी, पुरानी फारसी और आधुनिक फारसी को प्राचीनतम अर्थ में उत्तराधिकार में मिले; लेकिन अर्थ-विस्तार करते चले गये। ‘तप’ का अर्थ इन सबी भाषाओं में गर्मी, उष्णता और पीड़ा था और आज भी है।

‘तप’ का ही सगा भाई है ‘ताप’। इन दोनों का अर्थ समान है। ‘तप’ तो फारसी में भी ‘तप’ ही रहा; लेकिन ‘ताप’ ठीक उसी तरह ‘ताब’ हो गया जैसे ‘आप्’ (पानी) ‘आब’ हो गया। यह आबोहवा (जलवायु) का असर है। उच्चारण भेद से क्या हुआ; अर्थ-विकास लगभग समान ही रहा।
फारसी ने, ‘तप’ के गर्मी अर्थ को लेकर इस शब्द को उस समय नया अर्थ ‘ज्वर’ दिया जब देखा कि शरीर की गर्मी बढ़ गयी है और संस्कृत ने शरीर का तापमान बढ़ने पर उस समय की शारीरिक दशा के लिए ‘ज्वर’ अर्थ में दिया ‘ताप’। मराठी में ‘ताप येणे’ का अर्थ है ‘बुखार’ आना। ज्यादातर उत्तर भारतीयों को अरबी ‘बुखार’ हिंदी के ‘ज्वर’ की अपेक्षा ज्यादा पसंद है। उत्तर भारत में बुखार को बदन तपना कहते हैं।
इस सन्दर्भ में याद आयी ‘तपेदिक’ की बीमारी। फारसी ने ज्वर के इस महारोग को दिक या परेशान करनेवाले ज्वर के कारण यह नाम दिया। भारत में ‘तपेदिक’ नाम संस्कृत के ‘यक्ष्मा’ और ‘राजयक्ष्मा’ से ज्यादा आसान लगा। संस्कृत में रोग के इस नामकरण में फेफड़ों में यक्ष्या (जख्म) घाव-हो जाने पर ज्यादा बल दिया। भारत में भी ‘य’ ‘ज’ में बदलता है; जैसे ‘यशोदा’ से ‘जसोदा’। ‘क्ष’ ‘ख’ में बदला अब अंग्रेजी के छोटे-से शब्द टी.बी. ने इन दोनों शब्दों की छुट्टी कर दी है।

ज्वर या उष्णता कष्टदायक होती है। कष्ट, दु:ख, पीड़ा के सन्दर्भ में संस्कृत साहित्यकारों को ‘ताप’ और ‘सन्ताप’ शब्द बिल्कुल उपयुक्त लगे। संत तुलसीदास ने भी सभी प्रकार के कष्टों को ताप माना – ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज्य नहीं काहुहि व्यापा।’

गलत काम करने पर पछतावे के लिए अनुताप (अनु-बाद में, पीछे-ताप) और ‘पश्चात्ताप’ (पश्चात् ताप) शब्दों ने अनुसरण धर्म का पालन किया। हिंदीवालों ने सुखोच्चारण या सुविधाजनक उच्चारण में कष्ट कम करने के लिए ‘त्ता’ की जगह ‘ता’ कर दिया।

संताप का अर्थ शुरू में ‘ताप’ ही था। साहित्यकारों ने मानसिक व्यथा और मानसिक पीड़ा के अर्थ में ‘संताप’ शब्द को अपनी अलग पहचान दी। ‘तप’ और ‘ताप’ ने ही दु:खी अर्थ में ‘संतप्त’ को जन्म दिया।

‘ताप’ के फारसी रूप ‘ताब’ का अर्थ है – गर्मी, ताप, दीप्ति, आभा, ज्योति, चमक, शक्ति, सामर्थ्य, बल, पेच, खम, सहनशीलता। मीर की पंक्ति – ‘इश्क में जी को सब्र-ओ-ताब कहा’ में ‘ताब’ सहन शक्ति अर्थ में है। मुझे ‘ताब’ मत दिलाओं में ‘ताब’ जोश और मामूली से गुस्से के अर्थ में है।

फारसी में और फारसी से उर्दू में ‘तप’ (संस्कृत में भी तप-ताप) शब्द परिवार के बहुत अधिक शब्द हैं – तपा (उत्तप्त, तड़पता हुआ) तफ (उष्णिमा), तफ्त: (तप्त, दग्ध), तफ्त: जिगर (तप्त हृदय, दिलजला), ताबदार (चमकदार), तपिश (गर्मी, उष्णता, मनस्ताप हार्दिक व्यथा) आदि।

‘ताप’ से संस्कृत में पचासों शब्द गढ़े गये। शब्दकारों ने ‘ताप’ के एक-एक गुण के लिए एक-एक शब्द बना डाला। ‘प्रताप’ शब्द को शरीर में विशिष्ट प्रकार की खून की गर्मी (ताप), तेजस्विता, वीरता के लिए इस्तेमाल किया। ‘प्रताप’ ताप का सबसे प्रतापी वंशज है।
फारसी का, हिंदी-उर्दू का ‘ताब’ भी ‘प्रताप’ से कुछ कम नहीं है। मूंछों पर ताब इस शब्द की मदद के बिना नहीं दी जा सकती है। अर्थ विस्तार के लिए ‘बेताब’ शब्द आब देख रहा है न ताब।

‘वास:’ बना ‘वस्त्र’

वैदिक साहित्य में ‘वस्त्र’ के लिए ‘वास:’ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। ‘वास:’ से ही वसन और निर्वसन (निर्वस्त्र) शब्द बने हैं।
मनुस्मृति ने ‘वस्त्र’ शब्द को उस समय वरीयता दी, जब कहा गया कि ‘जल वस्त्र में छान कर पीना चाहिए’ (वस्त्रपूत जल पिबेत्)
फारसी में ‘वस्त्र’ से रूपान्तरित ‘बिस्तर’ का अर्थ सिमट कर एक खास अर्थ में हो गया। वह केवल बिछाने का वस्त्र हो गया जैसे ‘मृग’ का अर्थ कभी पशु था और ‘मृगया’ का अर्थ था पशुओं का शिकार। बाद में ‘मृग’ केवल ‘हरिण’ के अर्थ में रह गया।

दूसरी तरफ फारसी में ‘चादर’ शब्द का अर्थ विस्तार हुआ। सबसे पहले ‘चादर’ का अर्थ केवल ओढ़ने का वस्त्र था, बाद में उसका अर्थ-विस्तार होकर बिछाने का वस्त्र भी चादर कहलाने लगा। अब तो टिन या किसी भी धातु की भी ‘शीट’ या चादर होती है।

फारसी ‘चादर’ संस्कृत की ‘छद्’ धातु से बना है। ‘छद्’ का अर्थ है आच्छादित करना, ढकना। ‘छत्रं’ ‘छाता’ शब्द भी इससे बने हैं। ईरानी ‘चादर’ को चातर और ‘चतर’ रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। वहां ‘छ’ ध्वनि ‘च’ में बदल जाती है।

शब्द है, जिसका मूल अर्थ-विस्तार हो कर समतल जमीन का अर्थ भी फर्श हो गया। अब सिमेंट और टाइल्स का भी फर्श होता है। ‘फर्श’ का मूल अर्थ था बिछौना या बहुत बड़ी दरी।
अनेक भारतीय भाषाओं के ‘कपड़ा’ शब्द का रूप, लावण्य, चरित्र सभी कुछ बदल चुका है। इसके पूर्वज संस्कृत शब्द ‘कर्पट’ का अर्थ था जीर्ण, फटा-पुराना वस्त्र, चिथड़ा। संस्कृत के ‘अमर कोश’ में इसका यही अर्थ है।

‘कथा सरित सागर’ में भी ‘चीरखण्डैककर्पट:’ कहा गया है। बाद की पालि-प्राकृत भाषाओं में भी ‘कर्पट’ से बने ‘कप्पट’ का यही अर्थ था। धीरे-धीरे उस युग में ही ‘कर्पट’ ने अपने चिथड़त्व, जीर्णत्व से मुक्ति पा ली। जैसे ‘गीता’ के अनुसार ‘आत्मा’ जीर्ण वस्त्रों का परित्याग कर नये वस्त्र (नया शरीर) धारण करती है। वैसे ही ‘कपड़ा’ शब्द ने जीर्ण वस्त्र अर्थ का हमेशा के लिए परित्याग कर दिया।

‘कपड़ा’ के संस्कृत में वस्त्र, पट, पटच्चर, चीर, नक्तक, लक्तक, वासन, वसन, वास, चेल, परिधान, अम्बर, पर्यायवाची हैं लेकिन आज की भारतीय बोलियों के बाजार में ‘कपड़ा’ के सामने कोई टिक नहीं पा रहा है।

‘कपड़ा’ अर्थ में ‘अम्बर’ शब्द को जैनियों के ‘श्वेताम्बर’ और ‘दिगम्बर’ सम्प्रदायों ने ज्यादा महत्व दिया। निर्वसन के लिए ‘दिगम्बर’ (दिशाएं ही हैं कपड़ा जिसका) विश्व का एक खूबसूरत और चरम आदि कल्पना का शब्द है।

संस्कृत का कपड़ा वाची ‘लक्तक’ शब्द का अब स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया है, फिर भी ‘कपड़े लत्ते’ जैसे प्रयोग में यह शब्द अब भी जीवित है।
‘चीर’ शब्द भारतीय इतिहास की द्रोपदी-चीरहरण की शर्मनाक घटना से ज्यादा लोकप्रिय हुआ, लेकिन ‘चीर’ का आज भी एक अर्थ ‘चिथड़ा’ है और संस्कृत में भी चिथड़ा अर्थ था, लेकिन महाभारत काल का उसका एक और भी अर्थ था और वह है लम्बा वस्त्र। मुनियों खास कर बौद्ध भिक्षुकों के पहनने के कपड़े को भी ‘चीर’ कहते हैं।

‘तरु’ से हुआ ‘ट्री’

वैदिक भाषा के ‘वृक्ष’, ‘द्रु’, ‘द्रुम’, ‘वनस्पति’ पेड़ के लिए सबसे पुराने शब्द हैं। संस्कृत साहित्य में ‘तरु’ शब्द भी है। संस्कृत भाषा में ‘वृक्ष’ व द्रुम के लिए पादप, विटप, शाखी, महीरूह शब्द भी हैं।

कुछ भाषाशास्त्रिमों की धारणा है कि अंग्रेजी के ‘ट्री’ (पेड़) का पूर्वज ‘तरु’ है। ध्वनि का आधार कि ‘त’ ‘ट’ में बदल जाता है, यह धारणा पनपने का आधार है।

‘तरु’ और ‘द्रुम’ शब्दों का गहन अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यूरोपीय भाषाओं के पेड़ के पर्यायवाची शब्द वैदिक संस्कृत के ‘द्रु’ और ‘द्रुम’ से निकले हैं। ‘द’ के ‘त’ और ‘त’ के ‘ट’ या ‘ट’ के ‘त’ में परिर्वन के हजारों उदाहरण हैं। दूर क्यों जाते हैं मराठी में ‘टिकेट’ और ‘मदद’ तिकीट और ‘मदत’ हो गये हैं। अनेक यूरोपीय भाषाओं में भी ऐसा हुआ है।

अंग्रेजी शब्द ‘ट्री’ का निकटतम पूर्वज जर्मनी भाषा का ‘ट्रेवम्’ शब्द है जिसका पूर्वज ‘दु्रम’ है। अवेस्ता से फारसी में आये ‘दरख्त’ शब्द का मूल भी वैदिक ‘द्रु’, ‘द्रुम’ है।

गुजराती और मराठी में ‘पेड़’ को ‘झाड़’ कहते हैं। हिंदी के कुछ अंचलों में भी ‘झाड़’ शब्द जिंदा है; लेकिन थोड़े से अर्थ भेद से ‘झाड़ी’ शब्द ज्यादा प्रचलित है। ‘झाड़ी’ का अर्थ है वह छोटा पेड़ या पौधा जिसकी डालियां जड़ या जमीन के बिल्कुल पास हो और चारों ओर बहुत ज्यादा फैली हुई हों। कांटेदार झाड़ियों के लिए ‘झाड़ झंखाड़’ शब्द बना। ‘झाड़’ शब्द से ही देश के एक अंचल का नाम झारखंड पड़ा। ‘झाड़’ और ‘झाड़ी’ शब्द की जड़ें संस्कृत के ‘झुंट:’ और ‘झिंटि:’ शब्दों तक पहुंचती हैं; क्योंकि इनका अर्थ झाड़ी और पेड़ दोनों है।

संस्कृत का ‘प्ररोह’ शब्द यूरोपीय भाषाओं में ‘प्लांट’ और उससे मिलते जुलते उच्चारण से बना। हिंदी में आते आते ‘पौदा’ और ‘पौधा’ बना। पौद भी बन गया। संस्कृत का इस अर्थ में बहुत ही खूबसूरत यह शब्द अपने पैरों पर नहीं चल सका।

‘वनस्पति’ शब्द पेड़ के अर्थ में प्राचीनतम भाषा में बहुत इस्तेमाल हुआ है। इस शब्द का मूल अर्थ था वन का स्वामी बड़ा वृक्ष। बाद में कोई भी वृक्ष वनस्पति कहलाने लगा। यजुर्वेद की ऋचा 36-17 में प्रार्थना की गयी है कि दूरवर्ती लोक,… , पृथ्वी, जल, ओषध के पौधे शांतिदायक हों वहां वनस्पति भी शांतिदायक हो (वनस्पतय: शांति:) हिंदी में ‘वनस्पति’ शब्द के अंतर्गत सारे पेड़-पौधे आ जाते हैं। इनसे संबंधित शास्त्र को वनस्पतिशास्त्र कहते हैं।

‘तिल’ से निकला ‘तैल’ बन गया ‘तेल’

संस्कृत के ‘तैल’ से पता चलता है कि इस भाषा के बोलनेवालों ने सबसे पहली बार ‘तैल’ तिलों से निकाला। तिलों से निकलने के कारण ही इसका नाम ‘तैल’ हो गया। फिर ‘तैल’ जैसा चिकना, तरल पदार्थ किसी भी फल-फूल, पत्ते या वनस्पति से निकला, समान रंग-रूप के कारण ‘तैल’ कहलाने लगा; जैसे लवंग तैल, सरसों का तेल।

भारत में संस्कृतभाषी सरसों के तेल को ‘सर्षप तैल’ कहते थे और ईरान में रहनेवाले भी ‘सर्षप’ को सर्षप ही कहते थे। तेल के लिए उन्होंने ‘रौगन’ शब्द अपनाया। जैसे ‘तैल’ ‘तेल’ भर रह गया वैसे ही ‘रौगन’ ‘रोगन’ रह गया। संस्कृत का ‘तैलिक’ हिंदी-उर्दू में आते-आते ‘तेली’ रह गया।

कभी तेल बहुत दुर्लभ वस्तु थी; वर्ना ‘ना मन तेल होगा न राध नाचेगी’ जैसे मुहावरे न गढ़े जाते। वनस्पति तेलों की बाढ़ के कारण अब तेल दुर्लभ नहीं रहा है। हां पेट्रोल धीरे-धीरे दुर्लभ होता जायेगा। पेट्रोल शब्द ग्रीक के ‘पेतर’ (संस्कृत प्रस्तर) और लैटिन के ऑलियम-ऑयल (तेल) से मिलकर बना है। इस तरह ‘पेट्रोल’ का अर्थ है चट्टान का तेल या चट्टानों के नीचे छिपा तेल।

अंग्रेजी के ‘ऑयल’ के पूर्वज लैटिन भाषा के ‘ऑलियम’ शब्द का जन्म भी संस्कृत के ‘तैल’ की तरह ही हुआ। भरत में तेल सबसे पहले तिलों से निकला, यूरोप में ‘ऑलियम’ (अंग्रेजी में ऑलिव) जैतून से। पहले जैतून का तेल ही ऑलियम – ऑयल- कहलाता था। अब हर तेल ‘ऑयल’ कहलाता है।

‘मास’ का मतलब ‘चंद्रमा’ और ‘महीना’

सूर्य की तरह ‘चन्द्रमा’ के लिए भी संस्कृत में अनेक शब्द हैं। ‘चांद’ और ‘चन्द्रमा’ शब्द की रोशनी के आगे बाकी सभी शब्दों-शशि, इंदु, सोम, विधु, सुधांशु, हिमांशु, राकेश, रजनीश जैसे शब्दों की रोशनी धीमी पड़ गयी है।

हिंदी में ‘चंद्र’ चांद के अर्थ में संज्ञा शब्द है, लेकिन ‘ऋग्वेद’ में ‘चंद्र’ विशेषण के रूप में ‘चमकीला’ अर्थ में काफी स्थलों पर आया है। यूरोपीय भाषाओं के ‘कैंडिड’ (निर्मल, शुभ्र, निष्कपट) शब्द का कुछ पाश्चात्य विद्वान ‘चन्द्र’ से संबंध मानते हैं। ‘च’ ‘क’ में बदला जैसे ‘चरित्र’ का चरित्र तो यूरोपीय भाषाओं में नहीं बदला, लेकिन रूप बदलकर ‘कैरेक्टर’ हो गया।

रहा मेरा निष्कर्ष-मैं ‘कैंडिड’ को ही नहीं र्कैडिल शब्द को भी चन्द्रवंशी मानता हूं। ‘चंद्र’ का ‘र’ ‘ल’ में बदला। अर्थ बिल्कुल ही सिकुड़ गया।
ऋग्वेद में ‘चंद्रमा’ के लिए चन्द्रमस् शब्द कई स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है। ‘मस्’, ‘मास्’ का अर्थ था चांद, ‘चन्द्रमस्’ का अर्थ हुआ चमकीला चांद। बाद में ‘चन्द्र’ में चमकीला का भाव समा गया और ‘चन्द्र’ का अर्थ सिर्फ ‘चांद’ रहा गया।

‘चन्दमस्’ भारत में लघु रूप होकर केवल ‘चन्द्र’ रह गया; लेकिन ईरानियों ने जब इस शब्द को उच्चारण सुविधा के लिए छोटा किया तो उन्होंने ‘चन्द्र’ (चमकीला) को फालतू माना और ‘मास्’ बन गया ‘माह’।

संस्कृत में ‘मास’ के दो अर्थ थे – चंद्रमा और महीना। फारसी ने भी इन दोनों अर्थों को ग्रहण किया। ‘मास’ का ‘माह’ केवल ईरान में ही नहीं, उसी समय भारत की कई भाषाओं और बोलियों में भी हो गया। बाद की भारतीय भाषाओं ने ‘मास’ के महीना अर्थ को स्वीकार किया; लेकिन ‘चंद्र’ अर्थ की उपेक्षा की। फारसी के प्रभाव से संस्कृत ‘मास’ से तदभव ‘माह’ चांद अर्थ में अपने भारतीय पुरुखों के आकाश पर चमकता रहा; यद्यपि ‘महीना’ अर्थ में ज्यादा लोकप्रिय हुआ। फारसी से उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं में आये ‘माहताब’, ‘महताब’ शब्द का अर्थ है चंद्रमा की चांदनी।

संस्कृत में ‘ग्लौ’ का अर्थ भी ‘चांद’ है। यूरोपीय भाषाओं में ‘ग्लो’ का अर्थ है चमकना, दीप्ति, द्युति, प्रकाश। विश्व के पूर्वजों की भाषाओं के संबंधों के प्रति इस शब्द का यह ‘ग्लोइंग ट्रिब्यूट’ है।

अंकों की कसरत

मानव के प्राचीनतम साहित्य वेदों ने जिन शब्दां को सुरक्षित रख लिया वे शब्द हैं एक, द्वि (दो), त्रि (तीन), चतुर् (चार), पंच (पांच), षष् (छह), सप्त (सात), अष्ट (आठ), नव (नौ), दश (दस)। यह क्रम बहुत लम्बा है, जैसे ऊनविंशति (उन्नीस), विशंति (बीस), सहस्त्र (हजार), लक्ष (लाख), कोटि (करोड़)। संस्कृत शब्दों में यह क्रम एक लाख का भी लाख गुना तक है।

विश्व की अनेक भाषाओं ने इन संख्यावाचक शब्दों को अपनाया। कालान्तर में उच्चारण व ध्वनि में अलग-अलग देशो की प्रकृति के अनुसार अंतर हुआ। यूरोपीय भाषाविदों की मान्यता है कि वे सारे शब्द वेदों से पूर्व की किसी अज्ञात यूरोपीय – भारतीय भाषा के हैं, जिसका कोई भी लिखित साहित्य मौजूद नहीं है।

पहले भारत व ईरान को ही लें। यहां मूल संख्यावाचक शब्दों में मामूली-से हेरफेर हुए, जैसे ‘एक’ मराठी, गुजराती, असमी, उड़िया, हिंदी-उर्दू में ‘एक’ ही रहा, लेकिन कश्मीरी में ‘अख’ और सिंधी में ‘हिकू’ हो गया। फारसी में हो गया ‘यक’। तेलगु ने एक ‘ओकटि’ में बदल दिया।
संस्कृत ‘द्वि’ (दो) को मराठी ने पूरे दो अक्षरों का दोन कर दिया और गुजराती ने कर दिया ‘बे’। ज्यादातर भारतीय भाषाओं में ‘दो’ या ‘दुई’ रूप विकसित हुए।

अगर देश विदेश में एक-एक गिनती के हुए ध्वनि परिवर्तनों को लें तो अलग एक पुस्तक तैयार हो जायगी। फारसी ने ‘चार’ को ‘चहार’ कर दिया, ‘पांच को पंज’।

संस्कृत ‘षष्’ का फारसी समान्तर शब्द ‘शश’ (छह) हुआ जो हिंदी-उर्दू से ज्यादा संस्कृत के निकट है। ‘सप्त’ को उन्होंने ‘हपत’ बना ड़ाला। ‘अष्ट’ (आठ) ‘हिश्त’ हो गया। ‘नव’ (नौ) ‘नह’ बन गया। फारसी में संस्कृत ‘दश’ (10) बना दह। मराठी में बना दहा। असमी में दह। हिंदी-उर्दू में ‘दस’ ‘दहाई’ शब्द में अपने ‘ह’ रूप परिवर्तन को नहीं रोक सका।

यूरोप में भी संख्यावाचक शब्द एक, दस, सौ, हजार (वन, टैन, हंड्रेड, थाऊजैंड) कुछ भाषाओं में वैदिक गणना शब्दों के निकट नहीं रहे। यूरोप में यूनानी भाषा में दश (10) ‘डेका’ हो गया और लैटिन में ‘डेसम’। अंग्रेजी का ‘डेसिमल’ और संस्कृत का ‘दशमलव’ समान्तर हैं।
वैदिक भाषा का ‘शत’ फारसी में ‘सद’ के रूप में हैं। बीसवीं सदी का ‘सदी’ इसी ‘सद’ से बना है। शतम् (सौ) लैटिन में ‘सैंटम’ हो गया, ‘सेंचुरी’ का पूर्वज यही है। यूनानी में ‘हैक्तन’, ‘हंड्रेड’ के प्रथम रूप का बीज ‘हैक्तन’ में प्रतीत होता है।

गिनती के सभी शब्दों को न लेकर केवल कुछ को ही यूरोपीय भाषाओं में देखें तो समानता स्वत: उजागर हो जाती है। संस्कृत के द्वि (दो), रूसी ‘द्वा’ लैटिन व मूनानी ‘दुओ’, स्पेनी ‘दोहज’, अंग्रेजी ‘टू’ में समानता है। संस्कृत ‘त्रि’ (तीन), अंग्रेजी ‘थ्री’ रूसी त्री, स्पेनी ‘त्रेज’, ग्रीक, लैटिन, ‘त्रैस’ एक ही वंश परम्परा के है। रूसी ‘चितीर’ संस्कृत ‘चतुर’ (चार) है, अंग्रेजी में बदलते-बदलते ‘फोर’। रूसी संख्या यूरोप की अन्य भाषाओं की तुलना में संस्कृत के ज्यादा निकट है। रूस में संस्कृत शत (सौ) ‘स्तो’ बना।

अंगवाची संस्कृत नाम

क्या संस्कृत के ‘वदन’ (मुख) और अरबी-फारसी के ‘बदन’ (शरीर) में कोई संबंध है? क्या फारसी के ‘रुख’, संस्कृत के ‘मुख’ और अंग्रेजी के ‘माऊथ’ में कोई संबंध है? और एक तथ्य-फारसी के सारे अंगवाची नाम संस्कृत के हैं।

सभी भाषाओं में ऐसे अनेक शब्द हैं, जो उसी भाषा में या अपने को दूसरी भाषा में प्रविष्ट कर उस भाषा में एकांगी से सम्पूर्णांगी हो जाते हैं। अगर संस्कृत से ‘वदन’ ने अरबी भाषा के ‘बदन’ में प्रवेश किया है तो यह एकांगी ‘मुख’ से सर्वांगी ‘बदन’ (शरीर) बन गया। अगर अरबी से यह संस्कृत में आया तो सम्पूर्णांगी से एकांगी ‘वदन’ (मुख) बन गया। कुछ फारसी कोशकार ‘बदन’ को फारसी शब्द मानते है। तब यह समस्या अपने आप हल हो जाती है कि फारसी में यह संस्कृत से गया है। फारसी में शरीर के सारे अंग-प्रत्यंग हिस्सों के नाम संस्कृत के ही हैं, जैसे ‘बाहु’ से बाजू, ‘अंगुष्ठ’ (अंगुठा) से ‘अंगुश्त’, ‘भ्रू’ (भौंह) से ‘अब्रू’, ‘हस्त’ (हाथ) से ‘दस्त’, ‘पाद’ से ‘पा’, ‘शिर’ से ‘सर’, ‘दन्त’ से ‘दंदां’, ‘नाभि’ से ‘ना’, ‘गला’ से ‘गुलू’, ‘ग्रीवा’ से ‘गरेबा’। यह क्रम बहुत लम्बा है।

जब अपने संस्कृत और फारसी के अंगवाची शब्दों को सर से लेकर पैर तक देख ही लिया तो यूरोपीय भाषाओं के दांत भी देख लीजिए। ‘डेंटिस्ट’, ‘डेंचर’, ‘दन्त’ शब्द-परम्परा का है। ‘टूथ’ (दांत) कब और कहां से निकला इसका अध्ययन करना होगा।

संस्कृत का ‘तनु’ और ‘तनू’ और फारसी का ‘तन’ तनबदन की दृष्टि से एक हैं। ‘तनबदन’ शब्द दोहरा जोर देने के लिए गढ़ा गया। शरीर का सबसे सुंदर अंग ‘मुख’ है। फारसी में किसी सुखद भूल के कारण ‘मुख’ ‘रुख’ हो गया। ‘रुख’ का अर्थ है चेहरा। फारसी ने खूबसूरत ‘रुख’ को और भी छोटा कर ‘रू’ तक कर दिया। उससे बना शब्द ‘रूबरू’ – आमने सामने (सम्मुख)। इसका उल्टा हो गया ‘विमुख’। संस्कृत में ‘मुख’ के सत्रह अर्थ हैं। एक अर्थ ‘दिशा’। ‘रुख’ का भी यह अर्थ है। फारसी ने ‘रुख’ का एक और छोटा अर्थ विकसित किया, वह है कपोल, रुखसार, गाल। जो चांटे मुंह पर पड़ते हैं, वे वास्तव में गालों पर ही पड़ते हैं। प्यार भी ‘गालों’ पर होता है। ‘रुख’ ‘बेरुखी’ का भी जन्मदाता है। दूसरी तरफ किसी को ‘रुख्सत’ प्यार और भारी हृदय से किया जाता है।

मनुज, मानव या मैन?

अंग्रेजी का ‘मैन’ और यूरोपीय भाषाओं के लिए ‘मैन’ के जितने भी शब्द हैं जैसे जर्मन भाषा का ‘मन्न’ वे सभी वैदिक (उनके मतानुसार वैदिक भाषा से पहले की अज्ञात भाषा) की धातु ‘मन्’ (मनन करना, विचार करना) से बने हैं, क्योंकि केवल मनुष्य में ही सोचने की शक्ति है।

भारतीय भाषाविदों के इस बारे में दो मत हैं। पाश्चात्य विद्वानों के अंध अनुगामी इसी मत के पोषक है। भारत के परम्परावादी भाषाविद् मानते हैं कि ‘मनुज’, ‘मानव’ या ‘मैन’ मनु की संतान होने के कारण कहलाये। मेरे विचार से दोनों मतों में अंत में विरोध नहीं एकरूपता ही है। इतिहास-पूर्व की घटनाओं के बारे में हठधर्मी उचित नहीं है।

आश्चर्य है कि यूरोपीय भाषाओं ने ‘नारी’ के लिए कोई भी शब्द वैदिक, अवेस्ता या अरबी भाषा से नहीं लिया, अपना खुद का गढ़ा ‘वूमैन’ या मिलते जुलते शब्द। इस शब्द का मूल ढूंढने में वे अब भी अंधेरे में भटक रहे हैं। कुछ कहते हैं कि ‘मैन’ के पहले ‘वाइ’का लघुरूप ‘वु’ ‘मैन’ के पहले लगाकर ‘वुमैन’ शब्द बना। एक भाषाविद् मानते हैं कि ‘वुमैन’ संस्कृत के ‘वामा’ शब्द से बना है। ‘वामा’ शब्द का अर्थ ‘औरत’ खूबसूरत औरत और पत्नी भी है।

संस्कृत ‘लोक’ के कई अर्थ हैं। एक अर्थ से ‘लोग’ (पुरुष) बना और इससे बना ‘लुगाई’ जो गंवारू शब्द समझा गया और शिक्षितों में लोकप्रिय नहीं हो सका।

अवेस्ता से फारसी में आये नर-मादा में ‘नर’ का मूल भी वैदिक शब्द नृ है और ‘मादा’ का मूल है मातृ, माता। संस्कृत में पुरुष के लिए ‘मर्त्य:’ शब्द भी है। उसका एक अर्थ ‘नश्वर’ है, दूसरा वही है जो फारसी के ‘मर्द’ का है। फारसी में ‘नश्वर’ से पुरुष के लिए ‘नास’ शब्द भी बना है और औरत के लिए ‘निसा’। इन फारसी शब्दों का मूल संस्कृत में है।

‘नक्त’ बन गया ‘नाइट’

‘नक्त’ ने पूरे यूरोपीय महाद्वीप की यात्रा की। पुरानी अंग्रेजी में यह ‘नीह्ट’ व बाद में ‘नह्ट’ रूप में था। आधुनिक अंग्रेजी में यह ‘नाइट’ है। नाइट के हिज्जे-स्पेलिंग-में रूसी भाषा का ‘नोचि’ भी जैसे ‘द्रोबिय् नोचि’ (शुभ रात्रि) में ‘नोचि’ ‘निक्त’ का ही रूप है।

अब हिन्दीभाषियों ने ‘रात्रि’ के पर्यायवाची संस्कृत शब्दों के बोझ को कम कर दिया है। हिन्दी और उर्दूवालों ने ‘रात्रि’ को भी रात में बदल दिया है। अंग्रेजी में तो रात के लिए केवल एक ही शब्द है। अब हिन्दी भी इसी दिशा की ओर बढ़ रही है। सिर्फ कवियों और शायरों का काम अकेले एक रात से नही चलेगा। यह दूसरी बात है कि ‘रात’ के लिए इस शब्द जैसा ही लोकप्रिय शब्द अब हिन्दी-उर्दू में दूसरा नहीं है – ‘उम्र कैसे कटेगी सैफयहां, रात कटती नजर नहीं आती।’

हिन्दी की कुछ बोलियों ने ‘रजनी’ को छोटा कर ‘रैन’ और ‘रैना’ कर दिया है ‘रजनी’, ‘यामिनी’, निशा शब्द या तो कवियों की कल्पनाओं में हैं, अथवा इसलिए जिंदा हैं कि माता-पिता अपनी बेटी का नाम इन शब्दों पर तो रखते हैं; वे भूल कर भी रात्रि या रात नहीं रखते। फारसी ‘शब’ से बना शबनम (ओस) कवि की कल्पना को बिंदु-बिंदु में समेटे हुए है। ‘तारीकी’ (अंधेरा) का भी संस्कृत के ‘तिमिर’ से सम्बन्ध है।

इन प्रमाणों की कोई कमी नहीं है कि यूरोपीय भाषाओं में दिन के लिए जो भी शब्द हैं, वे संस्कृत के ‘दिव’, दिवा या दिन के ही भाई-बंधु हैं। अंग्रेजी के ‘डे’ या रूसी के ‘द्येन्य्’ का इन शब्दों से हजारों वर्ष पुराना रिश्ता है।

अलबत्ता ‘योम’ (दिन) के लिए फारसी शब्द संस्कृत शब्द ‘याम’ (दिन का अंश) शब्द से विकसित हुआ है। दिन में आठ याम या प्रहर होते हैं। अवेस्ता, पहलवी व फारसी लेखकों की सुखद भूल से ‘दिन का अंश’ पूरा दिन बन गया।

‘अद्’ का अर्थ है खाना

संस्कृत के ‘स्वादु’ और यूरोपीय भाषाओं के ‘स्वीट’ का युगों पुराना संबंध है। संस्कृत की ‘अद्’ धातु से भारतीय भाषाओं में ‘अद्’ धातु से भारतीय भाषाओं में ‘अन्न’ बना और यूरोपीय भाषा में ‘ईट’ (खाना) या मिलते जुलते शब्द। फारसी का ‘खुरदन’ (खाना) ‘खाद्’ धातु से बना जिससे बना खाद्यान्न, खाद्य पदार्थ। संस्कृत ‘शर्करा’ ने विश्व की भाषाओं को मिठास प्रदान की।
कई विख्यात यूरोपीय भाषाशास्त्री अब एकमत है कि उनके देश में भोजन करने खाने के लिए ‘ईट’ और उससे मिलते जुलते उच्चारण के जितने भी शब्द है, उन सभी का मूल ‘एद्’, ‘इद’ धातु है। अपनी उच्चारण -ध्वनि सही कर वे ‘अद्’ धातु तक पहुंच जायेंगे। संस्कृत में ‘अद्’ का अर्थ है ‘खाना’।

ईरान में ‘खाद्’ से खाने के सिलसिले में ‘खुरदन’ और ‘खुरीश’ शब्द बने। भारत में स्वाद, सुस्वादु से ज्यादा जायकेदार और कोई शब्द नहीं है। स्वाद (स्वादु) में अधिकतम बोधक ‘इष्ठन’ प्रत्यय लगाकर बना ‘स्वादिष्ठ’ (अधिकतम स्वादवाला)। आज के भारत में ज्यादातर को ‘ठ’ का स्वाद पसंद नहीं आया, या उनकी जबान पर नहीं चढ़ा। उन्होंने ‘ठ’ को ‘ट’ में बदल कर ‘स्वादिष्ठ’ को ‘स्वादिष्ट’ कर दिया; लेकिन ‘बलिष्ठ’ में ‘ठ’ रहने दिया। संस्कृत ‘इष्ठन्’ प्रत्यय. ‘इस्ट’ एस्ट होकर कई यूरोपीय भाषाओं में भी अधिकतम अर्थ में लगता है जैसे ‘स्वीट’ से ‘स्वीटेस्ट’, ‘डीयर’ से ‘डीयरेस्ट’।

यूरोपीय भाषाओं के ‘स्वीट’ (मिष्ट, मीठा मधुर) का आदि पूर्वज ‘स्वादु’ शब्द है। ‘स्वादु’ का एक अर्थ मीठा भी है। ‘स्वीट’ से सबसे प्रिय शब्द बना ‘स्वीट हार्ट’।

भारत की आधुनिक भाषाओं तक आते-आते संस्कृत ‘मिष्ट’ से मीठा और मीठा से ‘मिठाई’ शब्द बन गये।
मिठाई की चर्चा अधूरी रह जायेगी अगर चीनी और ‘गुड़’ और ‘शक्कर’ की चर्चा न करें। ‘गुड़’ संस्कृत के ‘गुड’ का बोलने में सरल वर्तमान रूप है। मराठी में ‘गोड’ का अर्थ मीठा, मधुर है।

शक्कर शब्द बना है संस्कृत से। ‘शर्करा’ हिंदी पूर्व की प्राकृत भाषा में ‘सक्करा’ हुआ, अरबी-फारसी में ‘शहर’, मराठी में ‘साखर’ फ्रेंच में ‘शुकरे’, अंग्रेजी में ‘शुगर’। यूरोपीय व दक्षिणपूर्व एशिया की भाषाओं में मिठास ‘शर्करा’ शब्द ने भरी है।

फिर ‘चीनी’ शब्द शक्कर अर्थ में कैसे हो गया, यह गहरी खोज का विषय है; क्योंकि ‘चीनी’ का अर्थ है चीन का रहनेवाला। क्या ईख, चुकंदर या खजूर से रस को सफेद चीनी के रूप में बदलने की विद्या या कला भारत ने चीन से सीखी थी?

अटपटी ‘ग्लानि’

हिंदी में धर्म के साथ यहां ‘ग्लानि’ शब्द का प्रयोग कुछ अटपटा-सा लगता है। योगीराज कृष्ण को ऐसा नहीं लगा था और न ‘महाभारत’ के रचयिता महर्षि व्यास को यह प्रयोग अखरा था।

गीता में कृष्ण ने अधर्म और पापाचार से त्रस्त संसार को आश्वासन देते हुए कहा है कि ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सूजाम्यहम्’ (जब जब धर्म की ग्लानि (क्षय, क्षीण, हास, ग्लान) होती है, अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं इस संसार में जन्म लेता हूँ)।

कृष्ण-युग में ‘ग्लानि’ शब्द का यह अर्थ नहीं था, जो आज हिंदी में है। हिंदी में ‘ग्लानि’ का अर्थ हो गया है- अपनी दशा, कर्म या बुराई या दोष देखकर खिन्नता, अनुत्साह, अरुचि। हिंदी में ‘ग्लानि’ मानसिक या शारीरिक शिथिलता पश्चाताप और खेद के अर्थ में इस्तेमाल होने लगा है। (पश्चाताप भी हिंदी में सरल उच्चारण की दृष्टि से ‘पश्चाताप’ हो गया है।

संस्कृत शब्द ‘ग्लानि’ ‘ग्लै’ धातु से बना है। ‘ग्लै’ का मूल अर्थ है – ह्रास होना, क्षीण होना, ग्लान होना, अरुचि होना। कालिदास युग में ‘ग्लानि’ शब्द का भावसमानता के कारण नया अर्थ विकसित हुआ ‘थकावट’ क्योंकि थकावट शक्ति हृास से होती है। वैसे मनुस्मृति (1-53) में ‘ग्लानि’ शब्द ‘शिथिलता’ के अर्थ में आ चुका था- ‘मनश्च’ ग्लानिमृच्छति (मन शिथिलता को प्राप्त होता है)।

मराठी में ‘ग्लानि’ का क्लांति, मानसिक शिथिलता, शारीरिक थकावट अर्थ आज भी हैं, लेकिन हिंदी ने अर्थान्तर कर खेद, पश्चाताप अर्थ विकसित किया। ‘ग्लान’ अर्थ ने खेद और पश्चाताप अर्थ के विकास में अवश्य मदद की होगी।

संस्कृत में ‘खेद’ प्राय: शारीरिक कष्ट या पीड़ा के अर्थ में इस्तेमाल होता था। इसका अर्थ आलस्य, अवसाद, उदासी, थकान भी था। कालिदास-कृत ‘रघुवंश’ (13.35) में ‘तरंगवातेन विनीत खेद: (लहरों की वायु से थकावटरहित होकर)’ में ‘खेद’ थकावट अर्थ में है।
हिंदी में ‘खेद’ के संस्कृत अर्थ नहीं रहे हैं। अर्थ है किसी इच्छित बात के न होने पर मन में उत्पन्न दुख, अफसोस। हिंदी में ‘खेद’ में शारीरिक कष्ट के बदले मानसिक कष्ट प्रबलतर है।

भारत की कई भाषाओं-तमिल, तेलुगु, कन्नड, मराठी, गुजराती में ‘खेद’ का अर्थ ‘दु:ख’ और ‘शोक’ है। ‘शोक’ अर्थ संस्कृत में विकसित हो चुका था। इन भाषाओं को यह अर्थ संस्कृत से विरासत में मिला है। बाल्मीकि रामायण (4.49.7) में ‘खेद’ ‘शोक’ अर्थ में है – ‘खेदं त्वत्तवा पुन: सर्व वनमेल विचिन्वताम्’ (शोक को छोड़ फिर से सारे वन में खोजो)।

हिंदी में ‘खेद’ का अर्थ ‘सौरी’ तो है; जो औपचारिकतावश यूं ही कहा जा सकता है और मुंह लटका कर या बना कर भी, लेकिन विलापवाला शोक नहीं है।

रहा शब्द ‘ग्लानि’ इसका संस्कृत अर्थ हिंदी में अकाल मृत्यु- का शिकार हो चुका है; अगर जिंदा है तो ‘गलना’ शब्द में, क्योंकि ‘गलना’ एक प्रकार से क्षीण होना ही है। फारसी में उर्दू-हिंदी में आया ‘अफसोस’ और ‘खेद’ अब समानार्थी हो गये हैं। ‘अफसोस’ का संस्कृत शब्द ‘अभिशोच’ ‘अभिशोचन’ से निकट का संबंध हो सकता है। संस्कृत शब्द का अर्थ है अत्यन्त शोक, पीड़ा। फारसी ‘अफसोस’ में पीड़ा तो है, लेकिन गहरी नहीं।

संस्कृत ने सागर की गहराइयों और आकाश की अपरिसितता को नापने की कोशिश की है। मानवी सभ्मता को उसने इतने उपहार दिए कि वह विश्व-भ्रमण करती रही और देश-देशांतर की भाषाओं में समाती रही।

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