दाह-क्रिया एवं श्राद्धकर्म का विज्ञान

दाह-क्रिया एवं श्राद्धकर्म का विज्ञानमादा कौवा सावन-भादों यानी अगस्त-सितंबर में अंडे देती है। इन्हीं माहों में श्राद्ध पक्ष पड़ता है इसलिए ऋषि-मुनियों ने कौवों को पौष्टिक आहार खिलाने की परंपरा श्राद्ध पक्ष से जोड़ दी, जो आज भी प्रचलन में है। दरअसल इस मान्यता की पृष्ठभूमि में बरगद और पीपल वृक्षों की सुरक्षा जुड़ी है, जिससे मनुष्य को 24 घंटे ऑक्सीजन मिलती रहे।

जीवन का अंतिम संस्कार ही अंत्येष्टि संस्कार है। इसके साथ जीवन का समापन हो जाता है। तत्पश्चात भी अपने वंश के सदस्य की स्मृति और पूर्वजन्म की सनातन हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं के चलते मृत्यु के बाद भी कुछ परंपराओं के निर्वहन की निरंतरता बनी रहती है। इसमें श्राद्ध क्रिया की निरंतरता प्रतिवर्ष रहती है। इस क्रिया को हम अपने दिवंगतों के प्रति आदर का भाव प्रकट करने का माध्यम भी कह सकते हैं। वैसे मृत्यु से लेकर श्राद्ध कर्म तक जो भी क्रियाएं अस्तित्व में हैं, उनके पीछे शरीर और प्रकृति का विज्ञान जुड़ा है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है। श्राद्ध की मान्यता आत्मा के गमन से जुड़ी है। चूड़ामण्युनिषद् में कहा है कि ब्रह्म अर्थात ब्रह्मांड के अंश से ही प्रकाशमयी आत्मा की उत्पत्ति हुई है। इस आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन्हीं पांच तत्वों के समन्वित रूप से मनुष्य व समस्त प्राणी जगत और ब्रह्मांड के सभी आयाम अस्तित्व में हैं। अतएव हिंदुओं के अंतिम घटी संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके पांचों तत्वों में विलीन करने की परंपरा है।

विज्ञान ने स्वीकारा आत्मा को

आत्मा या शरीर के अंशों के इस विलय को संस्कृत में ’प्रैती’ कहा है। इसे ही बोलचाल की भाषा में ’प्रेत’ कहा जाने लगा। इसे ही धन के लालचियों ने भूत-प्रेत या अतीन्द्रीय शक्तियों की हानि पहुंचाने वाली मानसिक व्याधियों से जोड़ दिया जबकि शरीर में आत्मा के साथ-साथ मन व प्राण भी होते हैं। आत्मा के अजर-अमर रहने वाले अस्तित्व को अब विज्ञान ने भी स्वीकार लिया है। मन और प्राण जब शरीर से मुक्त होते हैं, तब भी शरीर में इनका असर बना रहता है। इस कारण ये शरीर के चहूंओर भ्रमण करते रहते हैं। मन चंद्रमा का प्रतीक माना है। भारतीय दर्शन में इसलिए स्थूल व सूक्ष्म शरीर की कल्पना कर विवेचना की गई है। पितृपक्ष की अवधि में ऐसी धारणा है कि मृतकों के सूक्ष्म अंश श्राद्ध की अवधि में परिजनों के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं और श्राद्ध क्रिया से संतुष्ट होकर लौट जाते हैं।

हालांकि संपूर्ण शरीर सत्रह सूक्ष्म इंद्रियों का आवास होता है। इनमें पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच प्राणेद्रियां, एक मन और एक बुद्धि हैं। यही इंद्रियां छह धातुओं त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा और अस्थि निर्मित स्थूल शरीर में प्रवेश कर उसे संपूर्ण बनाती हैं। अतएव स्थूल शरीर से जब ये सूक्ष्म इंद्रियां निकलती हैं, तब सूक्ष्म शरीर की रक्षा के लिए वायवीय अर्थात वायुचालित या काल्पनिक शरीर धारण कर लेती हैं। इसे ही प्रेत-संज्ञा दी गई है। यह वायु तत्व से प्रधान शरीर माया-मोह से मुक्त नहीं होने के कारण परिजनों के निकट भटकता रहता है। इसी प्रेतत्व से छुटकारे का उपाय दशगात्र एवं श्राद्ध आदि क्रियाएं हैं।

आखिर क्या है कपाल प्रक्रिया?

हिंदुओं में दाहक्रिया के समय कपाल क्रिया प्रचलन में है। गरुड़ पुराण के अनुसार शवदाह के समय मृतक की खोपड़ी को घी की आहुति देकर डंडे से प्रहार करके फोड़ा जाता है। चूंकि खोपड़ी का अस्थिरूपी कवच इतना मजबूत होता है कि सामान्य आग में वह आसानी से भस्मीभूत नहीं हो पाता है इसलिए उसे घी डालकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है, जिससे यह भाग पूर्णरूप से पंचतत्वों में विलय हो जाए। इस क्रिया के प्रचलन से मान्यता जुड़ी है कि कपाल का भेदन हो जाने से प्राण तत्व पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं और पुनर्जन्म की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं।  मस्तिष्क में ब्रह्मा का निवास माना गया है, जो ब्रह्मरंध्र में प्राण के रूप में स्थिर रहता है। ऐसा माना जाता है कि शिशु जब गर्भ में जीवन ग्रहण करता है, तो वह इसी रंध्र से होकर भू्रण के शरीर में प्रवेश पाता है। यह बिंदु सिर के सबसे ऊपरी भाग में होता है। इसी भाग पर चोटी रखने का विधान है। यह भाग अत्यंत मुलायम होता है। चूंकि जीवन इस छिद्र से होकर शरीर में प्रवेश करता है, इसलिए कपाल क्रिया के माध्यम से इसे संपूर्ण रूप से बाहर निकालने का विधान किया जाता है, जिससे शरीर में पूर्व की कोई स्मृति शेष न रह जाए। इसे भौतिक शरीर का एंटीना भी कह सकते हैं।

गंगा में अस्थियों के विसर्जन के पीछे भी विज्ञान सम्मत धारणा है। चूंकि अस्थियों में बड़ी मात्रा में फास्फोरस होता है, जो भूमि को उर्वरा बनाने का काम करता है। गंगा का प्रवाह आदिकाल से भूमि को उपजाऊ बनाए रखने के लिए उपयोगी रहा है। अतएव हड्डियों का गंगा में विसर्जन खाद का काम करता है। इससे तय होता है कि ऋषि-मुनियों ने अस्थियों में फास्फोरस उपलब्ध होने और उससे उपज अच्छी होने के महत्व को जान लिया था।

 क्या होता है मृत्यु के बाद?

आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की धारणा को अब वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के गणित व भौतिकी के प्राध्यापक सर रोगर पेनरोज और एरीजोना विवि के भौतिक विज्ञानी डॉ स्टूअर्ट हामरॉफ ने दो दशक अध्ययनरत रहने के बाद स्वीकारा है कि ‘मानव-मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की भांति है। इस जैविक संगणक की पृष्ठभूमि में अभिकलन (प्रोग्रामिंग) आत्मा या चेतना है, जो दिमाग के भीतर उपलब्ध एक कणीय (क्वांटम) कंप्यूटर के माध्यम में संचालित होती है। इससे तात्पर्य मस्तिष्क कोशिकाओं में स्थित उन सूक्ष्म नलिकाओं से है, जो प्रोटीन आधारित अणुओं से निर्मित हैं। बड़ी संख्या में ऊर्जा के सूक्ष्म सा्रेत अणु मिलकर एक क्वांटम क्षेत्र तैयार करते हैं, जिसका वास्तविक रूप चेतना या आत्मा है। जब व्यक्ति दिमागी रूप से मृत्यु को प्राप्त होने लगता है, तब ये सूक्ष्म नलिकाएं क्वांटम क्षेत्र खोने लगती हैं। परिणामतः सूक्ष्म ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलिकाओं से निकलकर ब्रह्मांड में चले जाते हैं। यानी आत्मा या चेतना की अमरता बनी रहती है।

श्राद्ध पक्ष में कौओं का भोजन

बरगद और पीपल के वृक्षों को देववृक्ष माना जाता है क्योंकि वे हमें प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन और रोगमुक्त शरीर के लिए औषधियां देते हैं। इन सबके लिए इन पेड़ों का अस्तित्व बनाए रखना है, तो कौओं को श्राद्ध पक्ष में खीर-पुड़ी खिलाने होंगे। श्राद्ध पक्ष में पंचबति अर्थात पांच जीवों को आहार कराने की परंपरा है। इसमें एक काल बलि यानी कौवों को भोजन कराने की परंपरा है। इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं। इनके उदर में ही इन फलों के बीज अंकुरित होने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां-वहां पीपल और बरगद उग आते हैं इसलिए ये वृक्ष पुराने मकानों की दीवारों पर भी उगते देखने में आ जाते हैं। मादा कौवा सावन-भादों यानी अगस्त-सितंबर में अंडे देती है। इन्हीं माहों में श्राद्ध पक्ष पड़ता है इसलिए ऋषि-मुनियों ने कौवों को पौष्टिक आहार खिलाने की परंपरा श्राद्ध पक्ष से जोड़ दी, जो आज भी प्रचलन में है। दरअसल इस मान्यता की पृष्ठभूमि में बरगद और पीपल वृक्षों की सुरक्षा जुड़ी है, जिससे मनुष्य को 24 घंटे ऑक्सीजन मिलती रहे।

 

इसी क्रम में प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डॉ रैना रूथ ने पदार्थात रूपांतर को ही पुनर्जन्म माना है। उनका कहना है कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा नष्ट नहीं होती परंतु रूपांतरति व अदृश्य हो जाती है, इसलिए डीएनए यानी महा रसायन मृत्यु के बाद भी संस्कारों के रूप में अदृश्य अवस्था में उपस्थित रहता है और नए जन्म के रूप में पुनः अस्तित्व में आ जाता है। हमें जो विलक्षण प्रतिभाएं देखने में आती हैं, वे पूर्वजन्म के संचित ज्ञान का ही प्रतिफल होती हैं। अतएव कहा जा सकता है कि जीवात्मा वर्तमान जन्म के संचित संस्कारों को साथ लेकर ही अगला जन्म लेती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जींस (डीएनए) में पूर्वजन्म या पैतृक संस्कार मौजूद रहते हैं, इसी शेष से निर्मित नूतन सरंचना के चैतन्य अर्थात प्रकाशकीय भाग को प्राण कहते हैं। आधुनिक विज्ञान तो जीवन-मृत्यु के रहस्य को आज समझ पाया है, किंतु हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले ही शरीर और आत्मा के इस विज्ञान को समझकर विभिन्न संस्कारों से जोड़ दिया था, जिससे रक्त संबंधों की अक्षुण्ण्ता जन्म-जन्मांतर स्मृति पटल पर अंकित रहे।

 

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