उत्तराखंड की कुम्भ परम्परा

कुम्भ भारत की चिरन्तन परम्परा हैं। कुम्भ भारतीय संस्कृति के अनूठे विस्तार की कहानी है। यह विश्व का सबसे बड़ा जन समागम है। कुम्भ भारतीय संस्कृति की विराटता का भी परिचायक हैै।

कुम्भ का संस्कृत भाषा में अर्थ है- कलश। कलश भारतीय संस्कृति में पवित्रता एवं मांगल्य का भी प्रतीक है। इससे अमृत कलश की कथा भी जुड़ी है। अमृत अर्थात् अमरत्व।

कुम्भ की परम्परा कितनी प्राचीन है इसका निर्णय करना कठिन है, परन्तु किसी न किसी रूप में इसके साक्ष्य हमारे कई प्राचीन ग्रन्थों में मिलते है। इसका आदिमूल समुद्र मन्थन की पौराणिक कथा में बताया जाता है।

उत्तराखण्ड में स्थित हरिद्वार नगर को कुम्भ नगर के रूप मे भी जाना जाता है।ं भारतवर्ष के चार स्थानों प्रयाग, उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में कुम्भ पर्व की सांस्कृतिक मान्यता अनादि काल से चली आ रही है।

इन स्थलों में अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण हरिद्वार अति पावन माना जाता है। हरिद्वार की सांस्कृतिक परम्परा अति पुरातन है।

हरिद्वार का उल्लेख रामायण, महाभारत, आदि कई प्राचीन ग्रन्थों में है। पाण्डवों ने अपनी स्वर्गारोहण यात्रा हरिद्वार से ही प्रारम्भ की थी।

उल्लेख मिलता है कि ईसा से 1000 वर्ष पूर्व प्रथम जैन तीर्थंकर श्री आदिनाथ ने मायापुरी क्षेत्र में आकर तपस्या की थी। मायापुरी हरिद्वार का ही प्राचीन नाम है।

कुम्भ का निर्धारण आकाशीय ग्रह नक्षत्रों की विषेश स्थितियों के आधार पर होता है। ज्योतिषीय गणना के आधार पर ग्रह नक्षत्रों की कुछ विषेश स्थितियां प्रति 12 वर्ष उपरान्त उपस्थित होती हैं।

हरिद्वार में जो कुम्भ होता है वस्तुत: वह गुरू के कुम्भ राशि में होने अर्थात् कुम्भस्थ होने पर ही होता है। गुरू बड़ा प्रभावशाली ग्रह है और इसकी प्रकृति कल्याणकारी मानी गई है अत: हमारे ज्योतिर्विदों ने विभिन्न राशियों में गुरू (बृहस्पति) के प्रवेश को अत्यन्त मांगलिक काल माना है। जब सूर्य मेष राशि में हो और गुरू कुम्भ राशि में हो तो हरिद्वार में गंगा किनारे स्नान का पुण्य मनाने की परम्परा के पीछे निश्चय ही ज्योतिषियों की यह अवधारणा रही है कि उक्त ग्रह स्थिति सूर्य किरणों को अधिक औषधियुक्त व मांगलिक बनाती है।

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में भी कुम्भ पर्व की महत्ता का वर्णन किया गया है-

पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशि गतो गुरू:।

गंगाद्वारे भवेद्योग: कुम्भनामा तदोत्तम:॥

-विष्णुयाग

मेष में सूर्य और कुम्भ राषि में बृहस्पति के आ जाने से हरिद्वार में कुम्भ योग होता है।

सहस्त्र कार्तिको स्नानं माघे स्नानं शतानि च।

वैशाखे नर्मदा कोटि कुम्भस्नानेन तत्फलम्॥

-विष्णुयाग

एक हजार कार्तिक स्नान, एक सौ माघ स्नान और नर्मदा में एक करोड वैशाख स्नान के बराबर कुम्भ स्नान का फल है।

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेय शतानि च ।

लक्षप्रदक्षिणा पृथ्व्या: कुम्भस्नानेनतफलम् ॥

-विष्णुयाग

एक हजार अष्वमेध यज्ञ, एक सौ वाजपेय यज्ञ और पृथ्वी की एक लाख परिक्रमा के पुण्य के बराबर अकेला कुम्भ स्नान का फल है।

आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती वर्ष 1867 में हरिद्वार कुम्भ में पधारे और हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के खंडन हेतु पाखण्ड खण्डिनी नामक पताका को स्थापित किया। यहां वे विभिन्न मत-मतान्तरों के अनेक लोगों से मिले और उनसे धार्मिक सुधारों पर विचार-विमर्श किया। आर्यसमाज के इतिहास में यह एक चर्चित घटना है।

वर्ष 1915 में महात्मा गांधी हरिद्वार कुम्भ गये थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में इसका वर्णन करते हुए लिखा है- ‘कुम्भ का दिन आया। मेरे लिए वह धन्य घड़ी थी। मैं यात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गया था। तीर्थ क्षेत्र में पवित्रता की शोध में भटकने का मोह मुझे कभी नहीं रहा। किन्तु 17 लाख लोग पाखण्डी नहीं हो सकते थे। कहा गया था कि मेले में 17 लाख लोग आये होंगे। इसमें असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए, शुद्धि प्राप्त करने के लिए आये थे, इसमें मुझे कोई शंका न थी। यह कहना असंभव नहीं ंतो कठिन अवश्य है कि इस प्रकार की श्रद्धा आत्मा को किस हद तक ऊपर उठाती होगी।’

हरिद्वार कुम्भ में शाही स्नान की परम्परा अति दर्शनीय है।

कुल मिलाकर आज तेरह विभिन्न अखाडे कुम्भ में आकर पूरे राजसी ठाट-बाट के साथ ‘शाही स्नान’ करते है। जब यह अखाड़े चलते हैं तो लाखों श्रद्वालुजन इन्हें देखने के लिए कुम्भ स्थल पर एकत्रित हो जाते है। परम्परा तो यह थी कि इन विरक्त साधु-संन्यासियों की इन शाही सवारियों को स्वयं राजा-महाराजा और सम्राट कंधा दिया करते थे और उस एक दिन के लिए अपने तमाम राजसी अलंकार संन्यासियों को समर्पित कर दिया करते थे। धूनी रमाने वालों को राजसी वैभव इस रूप में समर्पित किया जाना और यह राजकीय सम्मान दिया जाना वस्तुत: विराग के चरणों में अनुराग का समर्पण ही था जो कि भारतीय अध्यात्म परम्परा का सार्थक लक्षण है।

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