एक ओर मैदानी क्षेत्रों के लोग कृषि को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, जबकि पहाड़ों में इस व्यवसाय को उपेक्षित या हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। इस कारण से भी उत्तराखंड के लोगों ने अपने प्राचीन व परंपरागत व्यवसाय को अपनाने की अपेक्षा शहरों में जाकर नौकरी करना उपयुक्त समझा। इसलिए हमें चाहिए कि हम लोगों के मन में अपनी खेती, पशुपालन व परंपरागत व्यवसाय को अपनाने के प्रति पुनः आकर्षण उत्पन्न करें।
यदि मनुष्य की उत्पत्ति भारत में हुई, तो फिर वह स्थान कौन सा है, जहां से मानव जाति का प्रारंभ होता है। जल प्लावन के समय जहां मनु ने हिमालय पर्वत में शरण ली थी, उस स्थान का नाम अल्कापुरी है। कहा जाता है कि मनु की नाव हिमालय के त्रायमाण नामक स्थान तक आई थी, यही त्रायमाण आज का माणा गांव है, जो कि बदरीनाथ से थोड़ा आगे भारत का अंतिम गांव है। जल प्लावन के बाद धरती पर यही हिमालय पर्वत बचा था। इसीलिए उत्तराखंड को सृष्टि का उत्पत्ति स्थल भी कहा गया है। जयशंकर प्रसाद ने भी कामायिनी में हिमगिरी को उत्पत्ति स्थली के रूप में प्रस्तुत किया है –
हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह,
एक पुरूष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।
मध्य हिमालय में अवस्थित नवगठित उत्तराखंड राज्य भारत के 11 हिमालयी राज्यों में से सबसे नया राज्य है। इस राज्य के दो मंडल हैं, जिनके नाम गढ़वाल व कुमाऊं हैं। हालांकि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र का आधुनिक समाज जिसे अभिजात्य समाज भी कहा जाता है, लगभग एक जैसा ही है, लेकिन प्राचीन समाज, जिसे लोक-जातियां भी कहा जा सकता है, उनके आचार-विचार व पहनावा आदि में थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य देखने को मिलता है।
आज से लगभग दो-तीन शतक पूर्व तक उत्तराखंड आर्थिक रूप से समृद्ध क्षेत्र था। यह बात इससे भी प्रमाणित होती है कि भारत के विभिन्न भागों से कई जातियों ने उत्तराखंड के अलग-अलग भागों में जाकर वास करना प्रारंभ किया। उस समय तक वहां की आय का मुख्य साधन कृषि कार्य तथा पशुपालन था।
देवभूमि होने के कारण इस राज्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां के लोग आत्मसंतोषी होते हैं। वे थोड़ा-सा पाकर भी बहुत सुखी जीवन जीते रहे। परन्तु उत्तराखंड में सन 1803 में भयंकर भूकंप आया था। उस भूकंप का प्रभाव मुख्यत: गढ़वाल क्षेत्र में अधिक पड़ा। लगभग 60-70 प्रतिशत लोग भूकंप की चपेट में आकर मर गए थे। प्राकृतिक जलस्त्रोत बंद हो गए। ठीक उसी दौरान गोरखाओं के अत्याचार व कुशासन तथा अंग्रेजों की अदूरदर्शिता के कारण कुछ विकास नहीं हो सका। इन सब कारणों से पहाड़ों में आर्थिक विपन्नता प्रारंभ हो गई। अंग्रेजों के राज के बाद व विशेषकर 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों को भारतीय सैनिकों की आवश्यकता होने लगी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तो अंग्रेजों ने सेना में भरती का अभियान सा चला दिया। जगह-जगह सैनिक भर्ती होने लगे। पहाड़ी युवक क्योंकि परिश्रमी होते थे, इसलिए सेना में उनकी मांग ज्यादा होने लगी। अब जो सेना के योग्य थे, वे सेना में भरती होने लगे, बाकी लोगों ने लखनऊ, दिल्ली व मुंबई जैसे शहरों की ओर प्रस्थान करना प्रारंभ किया। जिसे जो भी काम मिला, उसने उसे ही स्वीकार किया।
स्वतंत्रता से पहले पहाडों में उच्च शिक्षा की कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी, इसलिए पहले अशिक्षित युवक ही पलायन करते थे। स्वतंत्रता के बाद अर्धशिक्षित, शिक्षित एवं अब उच्च शिक्षित, प्रशिक्षित व प्रतिभाशाली युवक अधिक पलायन कर रहे हैं। उत्तराखंड से प्रतिभा पलायन के साथ ही नैसर्गिक पलायन व भौतिक पलायन भी हो रहा है। हालांकि हम नैसर्गिक व भौतिक संपदा का पलायन रोक तो नहीं सकते हैं, परंतु हमें उस संपदा का समुचित उपयोग कर उसका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए।
यदि हम उत्तराखंड के विकास हेतु पलायन संपदा का उचित प्रबंधन करें, तो इसका अच्छा परिणाम देखने को मिल सकता है। उत्तराचंल राज्य हेतु संघर्ष में भी प्रवासी उत्तराखण्डियों ने महत्वपूर्ण व सक्रिय भूमिका निभाई थी। उत्तराखंड के विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका प्रवासी प्रतिभाओं की हो सकती है। वर्तमान में उत्तराखंड की जनसंख्या लगभग 115 लाख है, जिसमें से पहाड़ी अंचल की जनसंख्या लगभग 70-80 लाख तक की है। प्रवासी उत्तराखंडी भले ही आर्थिक रूप से इतने साधन-सम्पन्न न हों कि वे स्वयं उत्तराखंड के विकास में आर्थिक योगदान दे सकें, परन्तु उत्तराखंड में पर्यटन को बढ़ावा देने हेतु पर्यटकों को प्रेरित करने, वहां उद्योग-धंधे लगाने हेतु उद्योगपतियों को आवश्यक सहयोग देने तथा वहां के विकास हेतु पूंजी निवेश के प्रति प्रवासी लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि अब उत्तराखंड में नदियों में जगह-जगह बांध बनाए जा रहे। इसी प्रकार छोटे-छोटे कूलों, जलधाराओं व नहरों आदि में घट या घराट (पनचक्की) आदि बनाकर ग्रामीण विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। नदियों, नहरों को जगह-जगह रोककर उनमें बाड़ा एवं पिंजड़ा मछली पालन भी किया जा सकता है। पहाड़ों में हवा बहुत चलती है। उत्तराखंड में जगह-जगह पवन चक्कियां बनाकर विद्युत उत्पादन को नई गति दी जा सकती है। पहाडों से जंगलों की अंधाधुंद कटाई कर उन्हें मैदानी क्षेत्रों में पहुंचाया जाता है। इस क्षेत्र में सुदृढ नीति बनाकर पहाड़ों में ही काष्ठकला उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा तथा राज्य सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा। इसी तरह वनस्पती पदार्थों से जड़ी-बूटी उद्योग, जैविक संवर्धन केन्द्रों की स्थापना व परिसंस्करण संयंत्र आदि कई महत्वपूर्ण कार्य किए जा सकते हैं। इस प्रकार हम समुचित प्रबंध कर इस प्राकृतिक संपदा का भरपूर उपयोग कर सकते हैं।
इसी के साथ पहाड़ों के भोले-भाले लोगों के मन मस्तिष्क में कुछ तत्वों द्वारा सुनियोजित ढंग से यह भर दिया गया कि जंगल से लकड़ी घास लाने वाली औरतें या अपनी खेती व पशुपालन करने वाले ग्रामीण लोग अनपढ़ या गंवार होते हैं। एक ओर मैदानी क्षेत्रों के लोग कृषि को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, जबकि पहाड़ों में इस व्यवसाय को उपेक्षित या हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। इस कारण से भी उत्तराखंड के लोगों ने अपने प्राचीन व परंपरागत व्यवसाय को अपनाने की अपेक्षा शहरों में जाकर नौकरी करना उपयुक्त समझा। इसलिए हमें चाहिए कि हम लोगों के मन में अपनी खेती, पशुपालन व परंपरागत व्यवसाय को अपनाने के प्रति पुनः आकर्षण उत्पन्न करें। इस संबंध में सरकार को भी आगे बढ़ना होगा तथा घस्यारी (घास काटने वाली) व गोपालक जैसे व्यवसायियों को वित्तीय व सामाजिक सुविधाएं एवं पुरस्कार आदि देकर प्रोत्साहित करना चाहिए।
उत्तराखंड से पलायन होती जा रही नैसर्गिक, प्राकृतिक, भौतिक व प्रतिभाओं के सर्वेक्षण, रिकार्डिंग तथा समन्वय हेतु एक पृथक पलायन संपदा विभाग का गठन किया जाना चाहिए। यह विभाग मुख्यत: प्रवासी संपदा के साथ उचित संपर्क कर उत्तराखंड के विकास हेतु कार्य करे। इससे प्रवासियों को भी सुविधा होगी।
हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि उत्तराखंड के लोग पशुपालन एवं कृषि कार्य करते तो हैं, परंतु वे लोग इसे व्यवसाय की अपेक्षा केवल अपने परिवार के भरण-पोषण व जैविक स्वाद हेतु ही उपयोग में लाते हैं, जबकि हमें चाहिए कि हम उन्हें विक्रय संबंधी वह सभी सुविधाएं उपलब्ध कराएं, ताकि वह इसे व्यावसायिक रूप से अपनाएं। इस हेतु हम उन्हें गावों में पंचायती व्यवसाय या सहकारी समितियां बनाकर इनके सामुहिक उत्पादन व पालन हेतु प्रोत्साहित करें। इसी के साथ हमें इस ओर विशेषकर नवपीढ़ी को प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें शिक्षा व्यवस्था तथा प्रशिक्षण संस्थानों में कृषि को महत्व देना होगा। महाकवि कालीदास की जन्मभूमि और अभिज्ञान शाकुंतलम की नायिका शकुंतला की रंग भूमि उत्तराखंड, रंगमंच और चित्रपट हेतु प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा अत्यंत उपयुक्त स्थल है। यहां मसूरी, कौसानी और नैनीताल जैसे अनेकों पर्यटन स्थल हैं। अगर फिल्मी भाषा में कहा जाए तो हमारा उत्तराखंडी फिल्म उद्योग प्राकृतिक एवं जनसंपदाओं से भरा हुआ एक सागर-सा है। इसी के साथ यदि उत्तराखंड में फिल्म निर्माण का व्यवसाय बढ़ने लगे, तो इससे राज्य के आर्थिक विकास के साथ ही वहां के लोक-कलाकारों, तकनीकिशिनों व व्यावसायियों विशेषकर पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिल सकेगा। वैसे भी हमारी आधुनिक पीढ़ी का एक वर्ग अब फिल्म निर्माण तथा फिल्मोध्योग से जुड़ रहा है। यदि हम उन्हें समुचित सुविधाएं प्रदान करेंगे तो वे इस क्षेत्र में भी अपना व्यवसाय बढ़ा सकेंगे। यदि हम उपरोक्त सभी बिन्दुओं पर समुचित ध्यान दें, तो हम उत्तराखंड को एक विकसित राज्य बना सकते हैं। लेकिन उत्तराखंड के आर्थिक विकास हेतु समुचित योजना बनाते एवं उसे क्रियान्वित करने से पहले हमें उत्तराखंड के पौराणिक, प्राचीन, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक व ऐतिहासिक महत्व एवं परंपराओं का भी पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा, ताकि सृष्टि के सृजनकर्ता से लेकर समस्त मानव एवं भौतिक व अभौतिक तत्व, देवभूमि उत्तराखंड का सदैव गुणगान का सकें।