तंत्र में गण की संपूर्ण प्रतिष्ठापना का लक्ष्य बाकी है

भारत इस मायने में अनूठा है जहां स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस अलग-अलग मनाए जाते हैं। 15 अगस्त, 1947 को हम अंग्रेजों की दासता से स्वतंत्र अवश्य हुए पर  26 जनवरी ,1950 को गणतंत्र यानी अपना तंत्र अपनाया। सामान्य शब्दों में गण का अर्थ आमजन तथा तंत्र का व्यवस्था है। इस तरह गणतंत्र का अर्थ हुआ ऐसी व्यवस्था जिसे देश के आम लोग यानी सर्व सामान्य लोगों ने अपने लिए अंगीकार किया। यहां अपने लिए का अर्थ भी थोड़ा व्यापक है। आप संविधान की प्रस्तावना, राज्य के नीति निर्देशक तत्व , मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य आदि का थोड़ी गहराई से अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि इसमें व्यक्ति के साथ प्रकृति के सारे अवयवों को ध्यान में रखा गया है। यह भारतीय सभ्यता का चरित्र है कि यहां हर व्यवस्था का लक्ष्य संपूर्ण ब्रह्मांड का हित रहा है।

यद्यपि भारतीय संविधान पर अंग्रेजों के संविधान काफी प्रभाव है। वर्तमान संसदीय प्रणाली आधारित लोकतंत्र की जननी ब्रिटेन को माना गया है और इस कारण उसके संविधान का प्रभाव ज्यादातर देशों के संविधान पर है। बावजूद हर देश का चरित्र कुछ न कुछ उनके संविधान में झलकता है। भारतीय संविधान में भारत का संस्कार बार-बार प्रकट हुआ है। यह बात अलग है कि तंत्र यानी व्यवस्था या शासन के स्तर पर यह उस रूप में मुखर नहीं हो पाया जैसा होना चाहिए था। इसका परिणाम केवल भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व को भुगतना पड़ा है। कारण,  भारत एकमात्र ऐसा देश है जो अपनी आदर्श व्यवस्था से संपूर्ण विश्व के समक्ष मानक बन सकता था।

भारत को आज विश्व के सफलतम लोकतंत्र में से एक कहा जाता है। हालांकि लंदन की द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा जारी डेमोक्रेसी इंडेक्स यानी लोकतंत्र सूचकांक में शामिल 167 देशों में भारत को 41 वें स्थान पर रखा गया है। यह सूचकांक 5 परिमितियों पर आधारित है जिसमें सरकार की कार्यशैली, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और व्यक्तियों की स्वतंत्रता शामिल है। जिन 55 देशों को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक श्रेणी में शामिल किया गया है उनमें भारत भी है। इसमें भारत की चुनाव प्रणाली और चुनाव आयोग की प्रशंसा है लेकिन देश की संवैधानिक संस्थाओं के बीच परस्पर टकराव को चिंताजनक माना गया है तथा संस्थानिक सुधारों पर प्रश्न उठाए गए हैं। इसमें रोजगार, कृषि, किसान आदि बातें भी हैं। बावजूद विश्व पटल पर आम बोलचाल में भारत को लोकतंत्र का सफल उदाहरण बताया जाता है। भारत की अचरज भरी विविधताओं को देखते हुए वर्तमान विश्व की कसौटी ऊपर यह काफी हद तक सही भी है। लेकिन क्या हम स्वयं की कसौटी ऊपर भी ऐसा ही मान सकते हैं ? क्या भारत वाकई श्रेष्ठ गणतंत्र है?

श्रेष्ठता का पैमाना क्या हो सकता है? यह बात सही है कि पिछले कुछ वर्षों में तंत्र ने भारतीय संस्कारों की मुखर अभिव्यक्ति की है। इससे आमजन यानी गण के साथ तंत्र के अंदर भी सोच में बदलाव आ रहा है। आमजन के एक समूह में अपनी सभ्यता और विरासत के प्रति गर्व का भाव सशक्त हो रहा है तो तंत्र के अंदर भी इसका असर है। यह सोच प्रबल हो रहा है कि भारतीय गणतंत्र का लक्ष्य अन्य देशों के गणतंत्र से भिन्न है। किंतु न तो यह संतोषजनक स्तर पर है और न ही हमारे तंत्र में गण का महत्व उस रूप में प्रतिष्ठापित हुआ है जैसा होना चाहिए।

वास्तव में बहुत कुछ ऐसा है जो गणतंत्र के रूप में हमें किसी स्तर पर संतुष्ट नहीं करता। अगर गण ने  तंत्र अपने लिए बनाया  और भारतीय संविधान को सर्व प्रभुत्व संपन्न मानकर उसके प्रति स्वयं को अर्पित किया है सब कुछ लक्ष्य के अनुरूप होना चाहिए। सच में तो प्रस्तावना के अनुरूप सारे नागरिकों को प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के साथ उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लक्ष्य से तंत्र काफी दूर है। अनेक मायनों में तो हम इन लक्ष्यों से विलग ही हो गए हैं। इसमें दो राय नहीं कि सर्वसामान्य परिवारों से निकलने वाले देश और राज्यों का नेतृत्व संभाल रहे हैं। इस उपलब्धि पर हम गर्व कर सकते हैं। किंतु व्यापक संदर्भों में यहां आम नागरिक को व्यवहार में समान अधिकार या प्रतिष्ठा प्राप्त है तो इतना ही के 18 वर्ष पूरा करने के बाद सभी मतदान कर सकते हैं।

तंत्र में प्रतिष्ठा केवल आपके एक आम नागरिक होने से नहीं मिल सकती। तंत्र में प्रतिष्ठा और गरिमा पद ,पैसे और अन्य प्रकार के प्रभावों पर आधारित है। अनेक स्तरों पर तंत्र का व्यवहार आम और विशिष्ट के साथ भेदभाव पूर्ण है। किसी सरकारी कार्यालय ,थाना , अस्पताल आदि में एक आम जन के साथ हो रहे व्यवहार तथा विशिष्ट के साथ होने वाले व्यवहार में अंतर बताता है कि तंत्र के लिए आज भी उसके गण यानी आमजन समान नहीं हुए हैं। जब तक यह स्थिति प्राप्त नहीं होती हम स्वयं को सफल गणतंत्र नहीं कह सकते। कोई भी ऐसा समय नहीं रहा और न होगा जहां समाज में अर्थ सहित अन्य योग्यताओं के मामले में सभी व्यक्ति समान होंगे। यह स्थिति भी नहीं होनी चाहिए कि 1% लोगों का 73% धन पर कब्जा हो।  दूसरे, सफल गणतंत्र वही है जहां एक – एक व्यक्ति को प्रतिष्ठा और गरिमामय जीवन का वातावरण उपलब्ध हो। उसमें यह न देखना पड़े कि कौन कितना धनवान, शिक्षित, कितने ऊंचे पद तथा पहुंच वाला है।

आजादी के बाद देश की अखंडता अवश्य बनी हुई है लेकिन एकता नहीं। पिछले कुछ वर्षों में तो एकता ऐसे हुई है कि हम चीन और पाकिस्तान जैसे भारत विरोधी देशों के व्यवहार और उनसे निपटने के मामले में भी विभाजित हैं। किसी गणतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है कि हमारी आपसी फूट को विरोधी देशों की मीडिया उछाल कर देश के रूप में हमें ही कटघरे में खड़ा करती है। जिस राजनीति को एकता की स्थिति पैदा करनी थी वही आज इसके विभाजन का कारण ही नहीं बन रहा उस पर गर्व करने लगा है। संसदीय प्रणाली में राजनीति को शीर्ष स्थान प्राप्त है क्योंकि विधि और नीति निर्माण का दायित्व उसी का है। जब राजनीति इतनी भयावह विकृति का शिकार हो जाए तो फिर एकता ही नहीं तंत्र में गण की उपयुक्त प्रतिष्ठापना का पूरा लक्ष्य दुष्प्रभावित होता है। भारत के लिए उम्मीद इस कारण पैदा हो रही है कि जनता का बड़ा समूह कई रूपों में इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। किंतु उसे भी संगठित, सकारात्मक और सही दिशा दिए जाने का अभाव दिखता है।

दरअसल, भारतीय गणतंत्र को उसके मूल लक्ष्य यानी तंत्र में गण की महत्ता को प्रतिस्थापित करने के लिए जिस दिशा की आवश्यकता थी उसमें कतिपय कारणों से भटकाव आया है। हमने अपनी सोच और व्यवहार में कई प्रकार की विकृतियां पाल ली।  उदाहरण के लिए गांधीजी ने कहा कि धर्म राज्य की आत्मा है और धर्मविहीन राज्य उसी प्रकार है जैसे आत्मा विहीन प्राणी। यह विचार अकेले उनका नहीं था । भारत तथा यहां धर्म की अवधारणा को समझने वाले सभी मनीषियों की सोच यही थी। धर्म से उनका आशय किसी प्रकार का कर्मकांड, पूजा-पाठ या किसी विशेष ईश्वर, गॉड आदि को मानना नहीं था। भारतीय संस्कृति में धर्म का अर्थ व्यापक है। धर्म हमें हर क्षण मनुष्य के रूप में अपने लक्ष्य और दायित्व के प्रति सचेत करता रहता है। सेकुलरवाद यानी पंथनिरपेक्षता की गलत व्याख्या के कारण तंत्र भ्रमित हो गया।

भारतीय संदर्भ में सेकुलरवाद का अर्थ राज्य का अधार्मिक होना कतई नहीं। इसका अर्थ इतना ही है कि राज्य मजहब या पंथ के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। धर्म की शिक्षा हमारे यहां मनुष्य को नैतिक तथा सृष्टि के प्रति संपूर्ण समर्पण का भाव पैदा करती है। यहीं से हर व्यक्ति के साथ प्रत्येक जीव -अजीव के अंदर एक ही आत्मतत्व का बोध पैदा कर सबके साथ संवेदनशील संबंध की स्थापना करता है । इससे उत्पन्न दायित्व बोध के माहौल में तंत्र में व्यक्ति की अप्रतिष्ठा तथा  गरिमा विरुद्ध व्यवहार की संभावनाएं काफी कम हो जाती है। यह धन संचय के साथ पद और प्रभाव की लिप्सा को भी संयमित करता है। इस तरह के और भी दूसरे पहलू हैं जो बताते हैं कि हम से चूकें हुई हैं। इसे समझ कर इसके अनुरूप नीति निर्धारण, भूमिका और दिशानिर्देशों में तंत्र की सोच और व्यवहार को बदले तो गणतंत्र का वास्तविक लक्ष्य हासिल हो सकता है।

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