साहित्य में वह जमाना लद चुका है जब गुरु या वरिष्ठ अपने शिष्य से खूब लिखवाते थे और उसे तराश कर हीरा बना देते थे। जमाना कैसे बदला है देखिए कि आज के गुरु या वरिष्ठ अपने शिष्य से कसरत तो खूब करवाते हैं लेकिन शिष्य की नहीं अपनी छवि उजली बना लेते हैं। इसी विडम्बना पर पेश है यह करारा व्यंग्यात्मक जवाब!
युवा- सर कविता की परिभाषा आपके हिसाब से क्या है?
वरिष्ठ- कविता सत्य से साक्षात्कार है।
युवा- सर जरा स्पष्ट करें।
वरिष्ठ- तुम मेरा एक लम्बा साक्षात्कार लो। छपवाओ। स्पष्ट हो जाएगा।
युवा- ओके सर मेरे लिए गर्व की बात होगी।
वरिष्ठ- सत्य से साक्षात्कार गर्व की बात ही है लेकिन सत्य से सवाल करना अत्यंत कठिन कर्म है।
युवा- फिर क्या करूं सर?
वरिष्ठ- सवाल मैं बता दूंगा प्रिय।
2.
वरिष्ठ लेखक ने तीस पन्नों का शोध आलेख- ‘कविता के आधुनिक संदर्भ-विस्तृत विवेचना’ एक पत्रिका में छपने के लिए दिया। सम्पादक ने सधन्यवाद यह कहते हुए रचना वापस कर दी कि मेरी पत्रिका के हिसाब से विवेचना काफी लम्बी है। उन्होंने तुरंत युवा को फोन लगाया
वरिष्ठ- बेटा तेरा कविता संग्रह तैयार हो गया क्या?
युवा- जी सर, अभी बीस पन्ने हुए हैं।
वरिष्ठ- बीस पन्ने बहुत होते हैं। ले आओ।
युवा- लेकिन कल आप कह रहे थे कि कम से कम पचास पन्ने होने चाहिए।
वरिष्ठ- मैंने आज काफी विचार किया। तुलसीदास, कबीर से लेकर निराला, दिनकर तक, खूब लिखा इन्होंने लेकिन किसी पाठक को बीस पन्ने से ज्यादा याद है क्या? और तूने याद करने योग्य पन्ने पूरे कर लिए हैं। अमर होने के लिए एक दोहा ही काफी होता है प्रिय!
युवा- वाह सर। लेकिन फिर भी बीस पन्नों का संग्रह किताब जैसा कैसे दिखेगा?
वरिष्ठ- चिंता मत कर पन्ने पचास ही होंगे।
युवा- वो कैसे सर?
वरिष्ठ- तीस पन्नों की भूमिका लिख रहा हूं, तुम्हारे लिए।
युवा- सर इतनी बड़ी भूमिका?
वरिष्ठ- भूमिका ही कविता को श्रेष्ठ बनाती है प्रिय। जितनी बड़ी भूमिका उतनी बड़ी रचना। तुम मेरे बहुत आत्मीय हो।
युवा- धन्यवाद सर। आशीर्वाद के लिए आभार!
(वरिष्ठ फोन काटने के बाद)
हो हो हो। अच्छा फंसाया साले को।
(वरिष्ठ ने तीस पन्नों के आलेख के लिए पूरी किताब छपवा डाली। आलेख के अंतिम पैराग्राफ में युवा कवि का भी जिक्र था।)
3.
आज युवा के मोबाइल पर पूरी रिंग बजी तो समझ गया कि वरिष्ठ जरूर उससे नाराज हैं। सामान्य परिस्थिति में वह मिस्ड काल ही करते थे। युवा ने पहले सोचा कि शायद मिस करना भूल गए हैं। लेकिन जब लगातार तीसरी बार पूरी घण्टी बजी तो युवा समझ गया कि आज तीसरा नेत्र खुला है वरिष्ठ का।
युवा- जी सर, प्रणाम
वरिष्ठ- प्रणाम नहीं, चरण स्पर्श किया करो। अभी इतने उच्च कोटि के नहीं हो गए कि अभी प्रणाम करने लगोगे।
युवा- सॉरी सर, कोई गलती हुई क्या हमसे?
वरिष्ठ- तुमने मेरी पिछली तीन फेसबुक पोस्ट लाइक नहीं की। क्या बात है?
युवा- सर वो इंटरनेट डेटा पैक खत्म हो गया था।
वरिष्ठ- अच्छा तो खुद का स्टेटस अपडेट कैसे किया? स्तरहीन कहीं का! मैं बाराबंकी मुशायरे में तेरा नाम देने वाला था। लेकिन गुस्से में अपने दूसरे शिष्य कट्टा कानपुरी का नाम दे दिया।
(युवा को बुरा लगा लेकिन आश्चर्य इस बात का हुआ कि उसकी पोस्ट को कभी लाइक न करने वाला वरिष्ठ उसकी वाल पर नज़र रखता है। खास तौर पर तब जब युवा उसको लाइक करना बंद कर दे।)
युवा- सर गलती हो गई। मैं इसकी भरपाई करूंगा। आज से आपकी हर पोस्ट शेयर करूंगा।
वरिष्ठ- अब सजा भी तू ही डिसाइड करेगा? ये तो कर ही। साथ में फेसबुक पर मेरे नाम से फैन क्लब बना और एक सप्ताह में हजार लोगों को जोड़।
युवा- सर हजार लोग कैसे जुड़ेंगे?
वरिष्ठ- अच्छा अभी हजार मिसरे जोड़ने को कह दो तो दिन भर में जोड़ डालेगा तू। अभी अगले महीने मडियांव मुशायरा है बेटे।
युवा- जी सर, आप चिंता न करें। मैं करूंगा। हरगिज करूंगा।
वरिष्ठ- हां, एक बात और! कभी भी मेरी पोस्ट पर कमेंट न किया करो।
युवा- सर, क्यों?
वरिष्ठ- शागिर्द को सिर्फ कम्प्लीमेंट करने का अधिकार है। कमेंट करने का सर्वाधिकार उस्ताद के पास सुरक्षित होता है।
युवा- नमन सर। आज आपने ब्रह्मज्ञान दे दिया।
लेखक ने शहर में एक सेमिनार कराया। विषय था- उत्तर आधुनिक कहानी और बाजारवाद। युवा ने मुख्य वक्ता के तौर पर बनारस के वरिष्ठ लेखक (जिससे उसकी सिर्फ फोन पर बात होती थी) बाबुल बंजारा को आमंत्रित किया। बाबुल बंजारा किसी नई जगह पर जाते तो पत्रपुष्प यानी लिफाफा पहले ले लेते थे। क्या पता बाद में माल की जगह सिर्फ माला ही हाथ लगे। यहां भी उन्होंने यही किया।
कार्यक्रम शुरू हुआ। संचालक ने मुख्य वक्ता को आमंत्रित किया। बंजारा जी ने भक्तिकालीन साहित्य पर ठांस कर बोलना शुरू किया। तुलसी, मीरा, सूर, जायसी किसी को नहीं छोड़ा। निराकार ब्रह्म की ऐसी व्याख्या कर दी कि कुर्सियां साकार और श्रोता निराकार हो गए। संयोजक भक्ति भाव में विह्वल होकर हाथ जोड़ता रहा। लेकिन यह हठयोगी टस से मस नहीं हुआ। कुछ श्रोता इड़ा पिंगला जागरण की व्याख्या सुनकर सो गए थे। संचालक की पर्ची आदि असरहीन साबित हुई।
एक घण्टे में कार्यक्रम की ऐसी तैसी करने के बाद ही वे शांत हुए।
युवा- सर, उत्तर आधुनिक साहित्य और बाजारवाद विषय था। आपने यह क्या बोल डाला।
वरिष्ठ- इसमें गलती तुम्हारी है। पेमेंट भक्तिकालीन दोगे और बुलवाओगे उत्तर आधुनिकता पर। ऊपर से बाजारवाद।
खैर, इस विषय का प्रयोगात्मक अर्थ युवा को पता चल चुका था।
युवा- सर बड़ा लेखक कैसे बना जाय?
वरिष्ठ- चार ’स’ संयोजन, साधना, सम्पादन और सहयात्रा द्वारा। लेखक को अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति इन्हीं चार शब्दों द्वारा संभव है।
युवा- अर्थात शब्दों का संयोजन, साहित्य की साधना, पत्रिका का सम्पादन और बड़े लेखकों की साहित्य यात्रा अर्थात उनकी रचनाधर्मिता को समझना।
वरिष्ठ- तुम्हारी व्याख्या के अनुसार ऐसा करने से मात्र मोक्ष की प्राप्ति होगी। जिसके लिए तुम्हें मरना पड़ेगा। अर्थ और काम की प्राप्ति जीवित रहते होती है। मेरी व्याख्या तुम को जीते जी सारे सुख मुहैया करा देगी।
युवा- सर कैसे?
वरिष्ठ- इन शब्दों के वर्तमान अर्थों पर गौर करो-’संयोजन कार्यक्रमों का, साधना पुरस्कार साधने की, सम्पादन मेरे ऊपर केंद्रित विशेषांक का और सहयात्रा अर्थात तुम जहां जहां भी संयोजन करो मुझे साथ ले चलो।’
युवा- क्या कहने सर। यानी लिखना जरूरी नहीं है!
वरिष्ठ- लिखते तो वे अकर्मण्य हैं जिनके पास शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। निरीह प्राणी उसी को सम्पदा मान खुशफहमी में जीता है। कर्मठ संयोजन करता है और वास्तविक सम्पदा हासिल करता है।
युवा- वाह सर। आभासी सम्पदा त्याग दूं क्या?
वरिष्ठ- नहीं। आभासी सम्पदा के सहारे वास्तविक सम्पदा हासिल करो।
आज गुरु जी युवा से आहत थे। नाराजगी का कारण समर्पण के बीच रिश्तों का आ जाना था। उसने अपनी किताब वरिष्ठ को समर्पित करने के बजाय पिता को समर्पित कर दी थी। नाराजगी भी जायज थी। पिता ने उसको महज जीवन की राह पर चलना सिखाया था। साहित्य की राह के पथ प्रदर्शक तो आखिर वही थे। फिर क्या जरूरत पड़ी थी, पिता को समर्पित करने की।
उन्होंने प्रण कर लिया था कि इस किताब को पुरस्कार मिलने नहीं दूंगा
उन्होंने युवा को घर बुलवाया।
वरिष्ठ- तेरी कविताओं में प्रतिरोध के मुखर स्वर हैं प्रिय। लेकिन यह प्रतिरोध कर्म में भी दिखना चाहिए।
युवा- जी सर, बिलकुल। बताइये क्या करूं?
वरिष्ठ- मैं तुम्हें प्रतिरोध का नया तरीका बताता हूं। अपने पंसदीदा प्रेरक कवियों और साथ में उनकी कविताओं का जिक्र करते हुए लेख लिखो। उसमें दिल्ली के उस कवि का जिक्र न करना।
युवा- लेकिन इसमें प्रतिरोध कहां हुआ?
वरिष्ठ- साहित्य में प्रतिरोध की यही परम्परा है। अगर तीन कवियों का उल्लेख करो, चौथे का न करो तो यह चौथे के प्रति मौन प्रतिरोध है।
युवा- लेकिन क्या उनके ऊपर असर होगा?
वरिष्ठ- सदमे में आ जाएंगे। पाठक लाख उपेक्षा करे कवि की उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर साहित्यकार ने कहीं उपेक्षा कर दी तो निश्चित रूप से पीड़ा होगी।
युवा- लेकिन वे तो आपके मित्र हैं न।
वरिष्ठ- मित्र अच्छे हैं लेकिन कवि बुरे हैं। मैं पूरी ईमानदारी से ये बात कह रहा हूं।
युवा- आप की इसी साफगोई का तो फैन हूं सर। जल्द ही लेख लिखता हूं।
वरिष्ठ- हां, कल ही लिखो।
युवा- लेकिन छपेगा तो पत्रिका के अगले ही अंक में।
वरिष्ठ- प्रतिरोध का स्वर दबाना नहीं चाहिए, प्रिय। आवाज कमजोर हो जाती है। आज ही लिखो। मेरे सामने लिखो, फेसबुक पर।
युवा ने लिख दिया। जिनका जिक्र नहीं हुआ उन्होंने दिल पर ले लिया।
युवा को कहां पता था कि वे उस पुरस्कार कमेटी के सदस्य थे जिसके लिए वह किताब जमा करने वाला था।
युवा ने फेसबुक पर कविता पोस्ट की। कविता के नीचे अपना नाम लिखा।
कुछ वरिष्ठों के कमेंट-
’प्रतिभा है लेकिन सरोकार स्पष्ट नहीं हैं।’
’कलापक्ष भावपक्ष पर हावी हो रहा है।’
’अभी और मेहनत करने की जरूरत है।’
’इसको रीराइट करो।’
’मंचीय कविता जैसी है, साहित्यिक मूल्य नदारद है।’
’लम्बी ज्यादा हो गई है, तीसरी पंक्ति हटा दो।‘
’विषय ठीक उठाया, लेकिन उसके निर्वहन में कमी है।’
’पोस्ट करने से पहले एक बार दिखा लिया करो तो गलतियां नहीं होंगी।’
युवा ने अगले दिन दूसरी कविता पोस्ट की, कविता के नीचे नागार्जुन का नाम लिखा।
वरिष्ठों के कमेंट-
’सीखो इस कविता से।’
’नागार्जुन बाबा को नमन।’
’ये होती है असली कविता।’
’बेजोड़ शिल्प, प्रणाम नागार्जुन को।’
’आज ऐसी कविताएं मंच पर पढ़ी जाएं, तो मंच साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध होगा।’
’सरोकार का उदाहरण।’
पुनश्च-
पहली वाली कविता नागार्जुन की थी जो युवा ने अपने नाम से पोस्ट की थी।
दूसरी रचना युवा की थी जो उसने नागार्जुन के नाम से पोस्ट की थी।
पच्चीस वर्ष पहले का दौर-
युवा (शिष्य) कविता लिख कर वरिष्ठ (गुरु) के पास ले जाता है। वरिष्ठ उसको फाड़ देता है। कहता है -बेकार है। दूसरी लिखो। युवा दूसरी लिख कर ले जाता है। वह उस रचना को भी फाड़ देता है। इसी तरह उसकी सैकड़ों रचनाएं वह डस्टबिन के हवाले कर देता है। युवा में उत्तरोत्तर सुधार आता जाता है। आगे चलकर युवा एक महान कवि बनता है। एक दिन उसे पद्मश्री मिलने को घोषणा होती है।
यह खबर सुनकर वे बधाई देने उसके वर्तमान घर दिल्ली चले आए। हाथ में फाइलें लिए हुए। फाइल में कुछ पन्ने चिपके हुए। जिसे देखकर शिष्य की आंखों में आंसू आ गए।
ये तो वही रचनाएं थीं जो गुरु जी ने फाड़ के डस्ट बिन में फेंक दी थीं।
आज का दौर-
युवा (शिष्य) कविता लिख कर वरिष्ठ (गुरु) के पास ले जाता है। वरिष्ठ उसको फाड़ देता है। कहता है -बेकार है। दूसरी लिखो। युवा दूसरी लिख कर ले जाता है। वह उस रचना को भी फाड़ देता है। इसी तरह उसकी सैकड़ों रचनाएं वह डस्टबिन के हवाले कर देता है।
वरिष्ठ में उत्तरोत्तर सुधार आता जाता है। आगे चलकर वरिष्ठ एक महान कवि बनता है। उसे पद्मश्री मिलने को घोषणा होती है।
युवा बधाई देने दिल्ली पहुंचा। वरिष्ठ घर पर नहीं थे। वह इंतजार कर रहा था। कैबिनेट से एक किताब उठा ली।
युवा की आँखों में आंसू आ गए।
असल में ये वही कविताएं थीं, जो उन्होंने डस्ट बिन में डाल दी थीं।
Very bayangatamak and funy wah bahut achha laga
सम सामयिक व्यंग्य। स्थितियां पहले से बहुत बदलती जा रही हैं।
सत्य परिस्थिती।