उत्तराखंड भारत की सांस्कृतिक धरोहर – स्वामी विश्वेश्वरानंद महाराज

 

उत्तराखंड भारत की सांस्कृतिक धरोहर – स्वामी विश्वेश्वरानंद महाराज

सनातन धर्म की पुनर्स्थापना आद्य शंकराचार्य ने की। उन्होंने शस्त्र नहीं चलाया, केवल शास्त्र के माध्यम से ही समाज में सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की। इसलिए शास्त्र परम्परा का संरक्षण व संवर्धन होना चाहिए। यह उद्गार व्यक्त करते हुए अपने साक्षात्कार में संन्यास आश्रम के महामंडलेश्वर आचार्य स्वामी विश्वेश्वरानंद गिरि महाराज ने उत्तराखंड के आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला। पेश है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश –

देवभूमि उत्तराखंड विश्व का आध्यात्मिक केंद्र बनना चाहिए, यह भावना प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रकट की है। इस दिशा में जाने हेतु मार्गदर्शन करें?

यह देवभूमि परम उत्कर्ष को प्राप्त हो, यह हम सभी संतों की इच्छा और भूमिका है। मुझे लगता है कि पर्यटन के साथ ही इसका महत्व बताना आवश्यक है। इसकी पवित्रता बनाए रखना परम आवश्यक है। मांस, मदिरा का सार्वजानिक रूप से यहां सेवन न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। गंगा को बचाना हम सब का दायित्व है, केवल सरकार का नहीं। गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए हमें कुछ ऐसा कार्य करना होगा, जिससे जीवनदायिनी गंगा को जीवनदान मिल सके। इस क्षेत्र को आप औद्योगिक क्षेत्र बनाना चाहेंगे तो इसका विनाश हो जायेगा या फिर यह देवभूमि नहीं रह जाएगी। दुनिया के किसी भी कोने में जो हिन्दू है वह चाहते है कि माता-पिता का अंतिम संस्कार करने के बाद उनकी अस्थियां वह गंगा में प्रवाहित करें। इसलिए इस पवित्र भूमि का व्यवसायिक उपयोग नहीं करना चाहिए। पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए लेकिन वह धार्मिक रूप से हो। ऐसा होने पर मुझे लगता है कि इसका और महत्व बढ़ेगा। प्रधान मंत्री मोदी स्वयं अपने चरित्र और व्यवहार से इसे सिद्ध कर रहे हैं। आज देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी केदारनाथ धाम में जाकर स्वयं ध्यान साधना करते है, इसका बहुत महत्व है।

 उत्तराखंड को आत्मनिर्भर राज्य बनाने के लिए क्या केवल राजनैतिक प्रयास काफी हैं?

आत्मनिर्भर भारत बनाना मोदी जी का सपना है उसके लिए राज्यों को सर्वप्रथम आत्मनिर्भर बनना होगा। उत्तराखंड में पर्यटन की अपार संभावनाएं है। इसलिए पर्यटन पर अधिक बल देना चाहिए लेकिन इसमें सबसे अधिक महत्व स्वच्छता एवं सुरक्षा को देना होगा। जो लोग देश दुनिया से यहां आते है उन्हें ऐसा लगे कि हम पवित्र जगह और अपने देश में आये है। यहां आने पर सभी में आत्मीयता व अपनत्व का भाव जागृत हो, ऐसा वातावरण यहां उत्पन्न करना चाहिए। यदि केवल व्यापारिक दृष्टीकोण से चलेंगे तो इसका महत्व समाप्त हो जायेगा। यदि यहां पर बड़े-बड़े उद्योग लगाने की पहल करेंगे तो यहां का पर्यावरण दूषित, प्रदूषित हो जाएगा। इसलिए हिमालय का पर्यावरण बचाए रखना बहुत जरुरी है। उत्तराखंड भारत की सांस्कृतिक धरोहर है, इसे संरक्षित व संवर्धित करते हुए विकास कार्य किये जाने चाहिए। विकास और पर्यावरण में संतुलन बनाना समय की मांग है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि बहुत जल्द ही उत्तराखंड आत्मनिर्भर बन जायेगा और अपनी आवश्यकता से कहीं अधिक आय की आवक होगी।

 गंगा, यमुना देश की जीवनदायिनी नदियां है। इनकी निर्मल अविरल धारा हरिद्वार के आगे भी प्राकृतिक रूप से प्रवाहित होती रहे, इसके लिए आपके क्या दिशानिर्देश हैं?

अंग्रेजों ने यहां पर सबसे पहले नहर बनाई। इसके बाद एक बांध बनाया। उस समय महामना मदनमोहन मालवीय को लगा कि इससे गंगा की धारा यहां पर खंडित हो रही है। गंगा से देश की आस्था जुड़ी हुई है और वह हमारे भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। हमारे देशवासियों में वह गहरी रची बसी है। आज की स्थिति यह हो गई है कि हरिद्वार के बाद गंगा का बहुत कम जल बहता है। सरकार को इसे गंभीरता से लेते हुए निश्चित ही प्रभावी नीति बनानी चाहिए ताकि गंगा की अविरल धारा हमेशा के लिए बनी रहे। पहले हम यह मानते थे कि गंगा हरिद्वार तक बिलकुल शुद्ध है परन्तु अब ऋषिकेश, देवप्रयाग, चारों धाम, वहां पर बहुत अधिक भौतिक विकास हुआ है और उसके कारण गंदगी बढ़ी है। यमुना की स्थिति तो और भी विकट है। उत्तराखंड से दिल्ली आते ही यमुना की धारा बहुत ही बुरी तरह से प्रदूषित हो जाती है। मेरा मानना है कि जब तक गंगा और यमुना की धारा सुरक्षित नहीं होगी तब तक इनका अस्तित्व संकट में रहेगा।

 दुनिया भर से पर्यटक उत्तराखंड यात्रा पर आते हैं। उनकी सेवा सुविधा के लिए कौन से उपयुक्त कदम उठाये जाने चाहिए?

विदेशों से बड़ी संख्या में लोग अस्थि विसर्जन के लिए यहां आते हैं। वे यहां-वहां भटकते रहते हैं, इसलिए सर्वप्रथम यहां आनेवाले पर्यटकों की सुविधा के लिए मार्गदर्शक स्तंभ (खम्बे) लगाए जाने चाहिए। सरकार के पर्यटन विभाग की ओर से शिकायतों के निवारण के लिए भी कुछ व्यवस्था की जानी चाहिए। कभी-कभी पर्यटकों के साथ दुर्व्यवहार या धोखाधड़ी की घटनाएं होती हैं, इस तरह के कड़वे अनुभव के बाद जब वे यहां से जाते हैं तो वे मन ही मन यह तय कर लेते है कि ‘मैं फिर कभी यहां पर नहीं आऊंगा।’ इस तरह की घटनाएं पर्यटकों के साथ न हों इस ओर भी हमें ध्यान देने की आवश्यकता है। मूलभत समस्या और कमियां हमारे अन्दर ही हैं, इसलिए इस दिशा में भी हमें सुधार करना जरुरी है क्योंकि इस तरह की छोटी-छोटी घटनाएं हिन्दू समाज और देश का नाम ख़राब करती हैं और इससे हमें ही सर्वाधिक नुकसान होता है।

 भूकंम्प और कोरोना काल में संन्यास आश्रम की ओर से उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर सेवाकार्य किये गए, उस संदर्भ में जानकारी दीजिये ?

जब भी कभी इस तरह की घटना होती है, तब संन्यास आश्रम की ओर से व्यापक स्तर पर सेवाकार्य किये जाते रहे हैं। मुंबई में संन्यास आश्रम है और इसकी मूल उपलब्धि यही है कि वह देव, देश, धर्म के साथ ही सामाजिक कार्यों में भी बढ़चढ़ कर अपना योगदान देते है। हमारा उत्तराखंड से गहरा नाता है। हमारे कुछ लोग उत्तराखंड में है। जब केदारनाथ में आपदा आई, तब उस समय वहां के सभी रास्ते बंद थे, तो हम दूरदराज के मार्गों से होते हुए गुप्त काशी तक गए और जरुरतमन्दों तक सहायता पहुंचाई। जो लोग दूर-दूर से आये थे ऐसे लोगों को चिन्हित कर सबसे पहले हमने उन्हें राहत देते हुए सहायता प्रदान की।

 संन्यास आश्रम की परम्परा और धरोहर के संदर्भ में प्रकाश डाले?

संन्यास आश्रम की परम्परा ही हमारी मुख्य धरोहर है। यह देवाधिदेव महादेव से जुड़ी हुई है, जिसे संत महात्मा चला रहे हैं। हमारे यहां गुरु शिष्य परम्परा है। आदिगुरू हमारे शिव और नारायण हैं।

सदाशिवसमारम्भां शङ्कराचार्यमध्यमाम्।

अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे गुरु परम्पराम्॥

गुरु-शिष्य परम्परा का उद्देश्य यही है कि हमारी मूल संस्कृति सदैव बनी रहे। इसके साथ -साथ केवल संस्कृत ही नहीं, हमारे जो वेद हैं, शास्त्र हैं, उपनिषद हैं, दर्शन हैं, इनका भी परम्परागत अध्ययन होना चाहिए। इसके लिए ही मठ, मंदिर और आश्रम संचालित किये जाते हैं। यह पहले से थे, लेकिन अब थोड़ी सी शिथिलता आ गई है। शिथिल होने से हमारी पुरातन संस्कृति आगे बढ़ नहीं पाएगी इसलिए हमारी धरोहर और अतीत को वर्तमान व भविष्य से जोड़ना हमारा मुख्य उदेश्य है।

 शैव परम्परा समाज पर किस तरह से सकारात्मक प्रभाव डालती है?

हमारे जितने आश्रम हरिद्वार में बने हुए हैं, नियमित रूप से वहां पर संस्कृत का अध्ययन एवं स्वाध्याय होता है। शास्त्र पढ़ाये जाते हैं, मंदिरों में पूजा आरती होती है। गंगा का पूजन अर्चन होता है और अतिथियों की सेवा होती है। सनातन धर्म की पुनर्स्थापना शंकराचार्य ने की। उन्होंने शस्त्र नहीं चलाया, केवल शास्त्र के माध्यम से ही समाज में सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की। इसलिए शास्त्र परम्परा का संरक्षण व संवर्धन होना चाहिए। अत: संत इस परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। आद्य शंकराचार्य के दिखाए मार्ग का अनुसरण करने से निश्चित ही समाज को उसका सकारात्मक लाभ मिलेगा।

 वर्तमान समय में अध्यात्म और भौतिक विकास दोनों की परम आवश्यकता है, इनमें संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है?

निश्चित ही आज समाज को दोनों की बहुत आवश्यकता है और इनमें संतुलन स्थापित करके ही जीवन का आनंद लिया जा सकता है। आधुनिक उन्नति के लिए भौतिक विकास आवश्यक है तो मानसिक व आत्मिक शांति व उन्नति के लिए अध्यात्म जरुरी है। लेकिन भौतिकता आज के समाज पर इतनी हावी हो चूकी है, उसका इतना प्रबल प्रभाव दिखाई दे रहा है कि लोग आध्यात्म से दूर होते जा रहे हैं। हमारे पास अध्यात्मिक विचार करने के लिए समय नहीं है। इसलिए लोगों में मानसिक बीमारियां पनपती जा रही हैं। लोग तनाव, चिंता, भय आदि के शिकार हो रहे हैं। जबसे इंटरनेट का प्रादुर्भाव हुआ है तब से हमारा जीवन पूरी तरह से बदल चुका है। हमारी जीवनशैली बदल गई है। मां-बाप भी बच्चों से छुटकारा पाने के लिए उसके हाथ में मोबाईल दे देते हैं और वह मोबाईल से खेलता रहता है। ऐसे सामाजिक माहौल में अपनी संस्कृति टिकाये रखने के लिए विद्यालयों में प्राच्य विद्या का अध्ययन आवश्यक है, अध्यात्म जीवन का सार है। यदि आध्यात्मिक चिंतन चलता रहेगा तो सामाजिक स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। तभी हमारी आनेवाली पीढ़ी हमारे धर्म, संस्कृति, सभ्यता आदि भारतीय विरासत को समझ पाएंगी और छात्र भी आसानी से तनाव रहित एवं चिंता से मुक्त रहेंगे।

 संस्कृत भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार को लेकर आपके आश्रम द्वारा क्या प्रयास किये जा रहे है ?

हमारे यहां संस्कृत के विद्यालय हैं, जहां पर विशेष रूप से संस्कृत का अध्ययन व स्वाध्याय किया जाता है। मुंबई में भी हैं और हरिद्वार में भी संस्कृत के विद्यालय हैं। मूल रूप से संस्कृत के व्याकरण और साहित्य की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है। संस्कृति की परीक्षाएं होती हैं। प्रथम खंड से लेकर आचार्य तक सभी इन परीक्षाओं में भाग लेते हैं। इसके साथ ही वैदिक शिक्षा भी दी जाती है। वेद पढ़ने वाले छात्र भी हमारे यहां पर हैं। प्रात:काल से लेकर रात्रि तक वे वैदिक पाठ करते हैं। छात्र बहुत ही सात्विक एवं सकारात्मक जीवन जीते है। आजकल संस्कृत कोई पढ़ना नहीं चाहता क्योंकि वह आजीविका का साधन नहीं है और संस्कृत को आगे बढ़ाना है तो उस दृष्टि से उसे व्यावहारिक रूप में लाना अनिवार्य है। आज भी संस्कृत भाषा के साहित्य में ज्ञान के भंडार छुपे पड़े हैं। समाज और सरकार को अपनी ओर से इस पर सार्थक पहल करनी चाहिए। दुनिया ने माना है कि वैज्ञानिक दृष्टि से संस्कृत सबसे शुद्ध भाषा है और सुपर कम्पुटर के लिए भी सबसे उपयुक्त है। दक्षिण भारत में एक गांव है जहां पर सभी लोग संस्कृत में ही वार्तालाप करते हैं और सारे काम-काज करते हैं। यह हमारे देश के लिए एक आदर्श है।

 युवा मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंड का नेतृत्व कर रहे है। उन्हें किस तरह से राज्य के विकास में अपना योगदान देना चाहिए? 

मुख्य मंत्री राज्य का प्रधान कार्यकर्ता होता है। जैसे प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी भारत सहित पूरे विश्व पर अपनी नजर रख रहे हैं, उसी तरह पुष्कर सिंह धामी की भी दृष्टि पूरे प्रदेश पर बनी रहे। वे राज्य का सर्वांगीण विकास करें। उन्हें सही-गलत का निर्णय स्वविवेक से लेना चाहिए ताकि उत्तराखंड का भविष्य सुरक्षित रहे। उनका व्यक्तित्व सरल है, मृदुभाषी हैं। उनकी साफ़, निर्मल एवं बेदाग छवि के कारण उन्हें जनता और संत समाज का समर्थन प्राप्त है। उनसे देश-प्रदेश की जनता की बहुत सारी उम्मीदें और अपेक्षाएं हैं। वे थोड़ा सा योगी आदित्यनाथ का अनुकरण करें क्योंकि केवल सरलता से काम नहीं होता है, शासन में कभी-कभी कठोरता का भी प्रयोग करना पड़ता है। मुख्य मंत्री को मैं आश्वस्त करता हूं कि उन्हें संतों का आशीर्वाद है।

 उत्तराखंड के निवासियों सहित हिंदी विवेक के पाठकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

विवेक के सुधि पाठक विवेकवान हैं, इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है। उत्तराखंड को अपना माननेवाले, हालांकि बहुत से लोग यहां से रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों में जाते है, उन्हें भी अपने गृह राज्य उत्तराखंड के प्रति आस्था रखनी चाहिए। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’। जो इस धरती के पुत्र हैं, वंश हैं उन्हें अपने गृह राज्य में योगदान अवश्य ही देना चाहिए। आज भी यह देखने में आता है कि यहां के लोग बहुत ही भोलेभाले और सज्जन हैं। यह देवभूमि है यदि इसका भान रखते हुए हम सभी व्यवहार करेंगे तो नर में ही नारायण के दर्शन भी होंगे और बाहर से आनेवाले लोग भी इसे देवभूमि के रूप में स्वीकार करेंगे।

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