शिक्षा स्वावलंबन तथा आत्मसन्मान के लिए हो: रमेश पतंगे

सिद्ध विचारक तथा लेखक मा. रमेश पतंगे जी को उनकी पुस्तक ‘सामाजिक समरसता तथा डॉ. बाबासाहब आंबेडकर’ के लिए महाराष्ट्र राज्य सरकार का पुरस्कार प्रदान किया गया है। इस अवसर पर प्रस्तुत पुस्तक तथा समसामयिक विषयों पर उनसे हुए संवाद के कुछ अंश:-

आपको ‘सामाजिक समरसता तथा डॉ बाबासाहब आंबेडकर’ नामक पुस्तक हेतु पुरस्कार प्राप्त हुआ है। पुरस्कार प्राप्त होने के बाद आपकी भावना क्या है?

पुरस्कार प्राप्त होने के बाद निश्चित रूप से खुशी ही होती है। मुझे इसके पहले भी प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी तथा सरसंघचालक मा. मोहन जी भागवत के द्वारा भी पुरस्कार मिले हैं। परंतु इस पुरस्कार को मिलने की खुशी इसलिए अधिक है क्योंकि ‘सामाजिक न्याय और डॉ. बाबासाहब आंबेडकर’ पुस्तक के लिए मुझे उन्हीं के नाम का पुरस्कार मिला है। संघ की विचारधारा में पले-बढ़े व्यक्ति की पुस्तक को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के नाम का पुरस्कार मिलना भी विशेष बात है।

   आप देश के प्रसिद्ध लेखक हैं। तथागत गौतम बुद्ध, डॉ. आंबेडकर और सामाजिक समस्या जैसे सामाजिक विषयों पर विपुल साहित्य की रचना आपने की है। आपने ज्यादातर आंबेडकर विचारों का ही चयन क्यों किया?

मैं संघ की विचारधारा तथा प्रेरणा के कारण ही लेखक बना हूं। लेखक या पत्रकार के रूप में करियर करना है, नाम कमाना है यह कभी मेरा उद्देश्य नहीं था। संघ की जिम्मेदारियों के कारण ही ये काम मुझे सौंपे गए। विभिन्न जिम्मेदारियों की तरह ही समरसता मंच का काम भी मेरे जिम्मे आया। इस काम को बढ़ाने के लिए हिंदू समाज की स्थिति, विभिन्न सामाजिक आंदोलन इत्यादि का गहराई से अध्ययन करना पड़ता है। उपरोक्त बातों का अध्ययन करने के लिए पहले डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के विचारों का गहराई से अध्ययन करने की आवश्यकता है। जब हम बाबासाहब के संदर्भ में लिखे हुए अन्य विचारकों के विचारों को पढ़ते हैं तो कई बार बाबासाहब की नकारात्मक छवि हमारे मन में बन जाती है। परंतु स्वयं बाबासाहब का लिखा साहित्य जब हम पढ़ते हैं तो ध्यान में आता है कि उनके विचारों का किस तरह लोगों ने केवल अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया है। इसे जानने के बाद इसे लोगों तक पहुंचाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। यही मेरे लेखन की प्रेरणा थी।

 आपने अभी कहा कि आपको लिखने की प्रेरणा संघ की विचारधारा से मिली; परंतु संघ पर तो हमेशा ब्राह्मण वर्चस्ववाद का आरोप किया जाता है। इस बारे में आप क्या कहेंगे?

जो लोग संघ पर ब्राह्मण वर्चस्ववाद का आरोप करते हैं उनका संघ के विषय में ज्ञान नर्सरी में जाने वाले बच्चे जितना भी नहीं होता है। अपने-अपने क्षेत्र में ज्ञान की विधा में भले ही वे विशेषज्ञ हों परंतु संघ के बारेे में उन्हें ज्ञान नहीं होता। अत: मेरे जैसा कार्यकर्ता जिसका सारा जीवन संघ में व्यतीत हुआ है, उसे ऐसे वक्तव्य सुन कर कहने वाले की बुद्धि पर तरस आता है।

ऐसे लोग, जो स्वत: को बुद्धिमान मानते हैं, अगर थोड़ा सा भी विचार करेंगे तो उनकी समझ में आएगा कि संघ का ध्येय समग्र हिंदू समाज को संगठित करना है। जब समग्र हिंदू समाज को संगठित करना है तो केवल ब्राह्मण वर्चस्व कैसे चलेगा? यह अपने-आप में विरोधाभास होगा।

भारत में आरंभ किसी भी राजनीतिक सामाजिक आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसमें शामिल होने वाले लोग ब्राह्मण जाति के ही रहे। उसका कारण यह है कि समाज के लिए कुछ करना है यह भावना ब्राह्मणों में संस्कारों, उनकी परंपरा से ही आती है। कम्युनिस्ट आंदोलनों में, कांग्रेस के शुरूआती कालखंड में, ब्राह्मण लोग ही प्रभावी थे; परंतु तब उन पर किसी ने विपरीत टिप्पणी नहीं की।

 संघ के तत्वज्ञान और बाबासाहब के तत्वज्ञान में क्या समानता है?

समानता के बिंदु तो कई हैं; क्रियान्वयन का तरीका अलग है। जातिरहित समाज रचना उनका स्वप्न था। उन्होंने स्वतंत्रता, समता और बंधुता के आधार पर समाज की पुनरर्चना करने के लिए जीवन भर संघर्ष किया। वे चाहते थे कि समाज के सब से दुर्बल तबके को भी न्याय और सम्मान मिले। उन्होंने इस हेतु आंदोलन का रास्ता चुना। संघ का रास्ता थोड़ा भिन्न है। समाज से जातिभेद, ऊंच-नीच भेद मिटाने का काम संघ भी कर रहा है; परंतु संघ आंदोलन नहीं करता। इसलिए नहीं करता क्योंकि जिसे संगठन करना है वह आंदोलन नहीं करेगा। आंदोलन किसी के विरोध में किया जाता है। परंतु संघ किसी के विरोध में नहीं जाना चाहता। अत: संघ आंदोलन के रास्ते से नहीं गया।

 डॉ. आंबेडकर ने जीवन भर जातिभेद निर्मूलन की दिशा में कार्य किया; परंतु समाज में इसका असर दिखाई नहीं दे रहा है, इसका क्या कारण है?

इसका मुख्य कारण यह है कि बाबासाहब का मुख्य उद्देश्य समाज की पुनर्रचना का था यह बात बाबासाहब की मृत्यु के पश्चात उनके अनुयायी भूल गए और केवल राजनीति करने लगे। उन्होंने केवल इतना ही याद रखा कि बाबासाहब ने कहा था कि आपको शासन करने वाला वर्ग बनना है, सत्ता में आना है। जाति निर्मूलन का विषय सभाओं, सम्मेलनों, भाषणों तक ही सीमित रह गया है।

दूसरा इसका मुख्य कारण है चुनाव पद्धति। हमारे यहां लोकतांत्रिक चुनाव पद्धति के अनुसार जिसे सब से अधिक वोट मिलते हैं वह चुनाव जीतता है। यह तंत्र जब समझ में आया तो जाति आधारित समीकरण बनाया गया। अपनी जाति के वोटों को अपनी ओर करने की कवायद शुरू हुई। इस प्रक्रिया में भी बदलाव लाने की आवश्यकता है। अगर यही चलता रहा तो केवल भाषण और पुस्तक लिख कर कुछ नहीं होगा।

 वर्तमान परिस्थति में बाबासाहब के विचारों का अनुकरण किस प्रकार किया जा सकता है?

वर्तमान परिस्थिति में बाबासाहब के विचारों का अनुकरण विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है। जैसे समाज के प्रत्येक क्षेत्र में- चाहे वह मंदिर कमेटी हो, सार्वजनिक ग्रंथालय हो, पत्र-पत्रिकाओं की मैनेजमेंट टीम हो, उनके लेखक हो-  हर वर्ग की सहभागिता होनी चाहिए। यह कानूनी कार्रवाई का विषय नहीं है। यह समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाने का विषय है। सभी को मिल कर इस दिशा में काम करना चाहिए।

 राष्ट्र के सामने राष्ट्रीय तथा सामाजिक स्तर पर वर्तमान में कौन सी चुनौतियां हैं?

अभी राष्ट्र के सामने जो चुनौती है वह सैद्धांतिक चुनौती है। अंग्रजों ने जो शिक्षा पद्धति विकसित की है वह भारतीय मूल्यों तथा संस्कारों से तालमेल रखने वाली नहीं है। समाज में आज जो अव्यवस्था, जो उथल-पुथल दीखती है, यह उसी का नतीजा है। अत: हमें फिर से हमारे चिंतन की ओर जाना होगा। उस चिंतन के आधार पर समाज की रचना का विचार करना होगा।

 इन चुनौतियों का सामना करने के लिए आप जिन बदलावों की अपेक्षा रखते हैं; क्या वह मोदी सरकार के आने से होंगे?

सरकार बदलने से कई बातें सुलभ होती हैं। जैसे अंतरराष्ट्रीय योग दिन मनाया गया। योग करने से हमारी चित्त-मन-बुद्धि स्थिर होती है। मस्तिष्क शांत होता है तो हिंसाचार की भावना नहीं आती। आज विदेशों ने इसे प्रयोगों के माध्यम से भी सिद्ध किया गया है। हम पर्यावरण पूजक हैं। विदेशों में धारणा है कि यह सारी प्रकृति मनुष्य के उपभोग करने के लिए बनाई गई है। भारतीय विचार यह कहता है कि केवल मनुष्य ही नहीं वरन् पशु-पक्षियों तथा सभी जीवों का इस प्रकृति पर अधिकार है; क्योंकि हम एक ही चैतन्य के अंश हैं। इन विचारों का, हिंदू जीवन पद्धति का प्रसार मोदी सरकार के आने से होगा।

 जब भारतीय विचार है कि हम एक ही चैतन्य के अंश हैं; तब भारत में कल भी अस्पृश्यता क्यों थी और आज भी क्यों है। क्या यह भविष्य में भी होगी?

आज अगर हम समाज में चारों ओर देखें तो अस्पृश्यता का भाव मिटता हुआ दिखाई देता है। समाज में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होगा, मनुष्य जितना ज्ञान प्राप्त करेगा, आर्थिक उन्नति होगी वैसे-वैसे मनुष्य निर्मित भेदों से वह ऊपर उठता जाएगा और अस्पृश्यता खत्म हो जाएगी।

 क्या अस्पृश्यता की तरह ही जातिवाद भी समाप्त होने की ओर है?

जातिवाद की बात इसलिए आती है क्योंकि लोग जाति क्या है इसका विचार नहीं करते। मूलत: मनुष्य एक टोली में, समूह में रहना चाहता है। वहां उसे सुरक्षा तथा आनंद दोनों मिलते हैं। पाश्चात्य देशों में इसे क्लास अर्थात वर्ग कहा जाता है। डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि सभी का एक वर्ग होता है। जातियां भी पहले वर्ग ही होती थीं। परंतु जब से वर्ग के अंदर ही विवाह यह नियम शुरू हुआ तब से वर्गों की जातियां बन गईं। जब जातियों के बाहर विवाह शुरू हो जाएंगे तब जातियां पुन: वर्ग बन जाएंगी।

जाति की सकारात्मक ऊर्जा अत्यधिक है। त्रिचूर में निम्न कही जाने वाली जाति के कुछ लोगों ने मिल कर आपस में कुछ रकम (सोशल कैपिटल) इकट्ठा की और उससे वस्त्र उद्योग शुरू किया। आज उनके बनाए वस्त्र सारी दुनिया में बिकते हैं। इस जाति के लोगों ने अपने आपको एक व्यावसायिक वर्ग में परिवर्तित किया। आज वे बहुत समृद्ध हैं।

जाति का नकारात्मक पक्ष है किसी जाति को निम्न या कम समझना। भेदभाव करना। परंतु यह भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा। उपरोक्त उदाहरण के अनुसार अगर प्रत्येक जाति के व्यावसायिक वर्ग बनते हैं तो भी कोई भी वर्ग स्वयंपूर्ण नहीं होगा। जैसे वस्त्रोद्योग के लिए कपड़ा, मालवाहक इत्यादि वर्गों की जरूरत होगी। किसी एक के न होने से सभी का काम रुक जाएगा। तब कोई एक दूसरे को कम नहीं समझेगा; क्योंकि सभी एक दूसरे पर आश्रित रहेंगे। इस प्रकार की व्यवस्था समाज में निर्माण हो और राज्य सरकारें इत्यादि उसे समर्थन दें। व्यर्थ के कानून बना कर उसमें अडंगे न डाले जाएं।

 सामाजिक न्याय और राष्ट्रवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो क्या उनके एकरूप होने पर राष्ट्र सशक्त होगा? क्या यह प्रक्रिया आने वाले समय में संभव है?

सामाजिक न्याय का सबसे सरल भाषा में अर्थ है राष्ट्र के कुल उत्पादन का सभी में समान रूप से वितरण होना। आर्थिक विषमता समाज में असंतोष निर्माण करती है। अत: उसका अनुपात निर्धारित करना चाहिए। समाज में चलने वाली सभी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में सभी का समान प्रतिनिधित्व होना चाहिए।

राष्ट्रवाद का अर्थ है भूमि, संसाधन और लोगों के प्रति आत्मीयता होनी चाहिए। जिस समाज में आपस में अपनेपन की, समानता की भावना होती है वह राष्ट्र बनता है; वरना वह केवल राज्य रह जाता है। सामाजिक न्याय भी सभी की समानता है और राष्ट्रवाद भी। सभी को सामाजिक न्याय मिलते ही राष्ट्रवाद अपने आप मजबूत हो जाएगा।

 आपने अपनी किताब में ‘सामाजिक अन्याय’ शब्द का उपयोग किया है। इस प्रकार की भावना हमारे समाज में क्यों निर्माण हुई है?

जब समाज में किसी वर्ग को यह लगता है कि मुझे जो मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है, मुझे उससे वंचित रखा जा रहा है तो उसे लगता है कि उस वर्ग पर अन्याय हो रहा है। अभी आरक्षण के जो आंदोलन देश में हो रहे हैं इनके पीछे भी यही भावना है। किसी को उसकी प्रगति से वंचित रखना ही अन्याय की परिभाषा बनती है। इसका रास्ता निकालना बड़ा जटिल विषय है।

 क्या आंदोलन करना इसका एक मार्ग हो सकता है?

बिलकुल नहीं! जो लोग इसकी अगुवाई कर रहे हैं वे लोगों को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। आरक्षण तो सरकारी नौकरी तक ही सीमित रहेगा। अगर सरकारी नौकरियों और नौकरी के उम्मीदवारों का अनुपात निकाला जाए तो पता चलेगा कि उसमें बहुत अंतर है। आरक्षण एकमात्र उपाय नहीं है। इसका दीर्घकालीन उपाय यह हो सकता है कि शिक्षा प्राप्ति के साथ-साथ ही हर किसी को उत्पादनक्षम बनाना चाहिए। ‘नौकरी के लिए शिक्षा’ यह विचार छोड़ कर ‘स्वावलंबन तथा आत्मसम्मान के लिए शिक्षा’ का सूत्रपात होना चाहिए। जब इस प्रकार की शिक्षा मिलेगी, तब सभी स्वावलंबी होंगे। किसी को आरक्षण मांगने की जरूरत ही नहीं होगी।

 डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के सपनों का समाज किस प्रकार निर्माण होगा?

बाबासाहब का सपना था कि समाज में ऊंच-नीच न हो, भेदभाव न हो, सभी प्रेम व सद्भाव से रहें। यह उनकी आदर्श संकल्पना थी। आदर्श बोलने में बहुत अच्छा लगता है; परंतु उसे यथार्थ में कैसे लाया जाए? उसे यथार्थ में लाने का काम मेरे हिसाब से संघ ही करेगा। क्योंकि उसकी बुनियाद ही है ‘वयं हिंदूराष्ट्रांग भूता’ अर्थात हम एक राष्ट्र के अंग हैं। अत: कोई अंग छोटा-बड़ा नहीं होता। हममें एक ही खून है, एक ही भावना है। संघ अपना कार्य शांत तरीके से कर रहा है। केवल बाबासाहब ही नहीं, सभी महापुरुषों का सपना पूर्ण करने का कार्य संघ पर है। संघ ने उसे स्वीकारा है और उसे पूर्ण भी करेगा।

 

 मो.: ९५९४९६१८४९

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