उत्तर प्रदेश का चुनावी दंगल

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा एवं मणिपुर में जल्द ही राज्य विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया प्रारंभ होने जा रही है और चूंकि ये चुनाव केन्द्र की मोदी सरकार को नोटबंदी की घोषणा के महज तीन महीनों के अंदर ही कराए जा रहे हैं इसलिए भारतीय जनता पार्टी के लिए इनका विशेष महत्व हैं। भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने का सुनहरा स्वप्न देख रही है इसलिए वह इन चुनावों में अपनी सारी शक्ति झोंक देने के लिए कमर कस कर तैयार हो चुकी है।

बहुजन समाजवादी पार्टी भी सत्ता में आने की उम्मीद लगाए बैठी है परंतु पांच साल पहले सत्ता की बागड़ोर इसी के हाथों में थी इसलिए उसकी व्याकुलता भारतीय जनता पार्टी से तो कम ही मानी जा सकती है। पिछले पांच सालों से उत्तर प्रदेश सरकार की बागड़ोर थामे समाजवादी पार्टी में इस समय जो उठापटक चल रही है वह तो दुबारा सत्ता में लौटने के लिए ही है और यही उठापटक पार्टी को सत्ता से बाहर का दरवाजा दिखाने का एक बड़ा कारण भी बन सकती है।
कांग्रेस अगर समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी तालमेल करने की जुगत भिड़ा रही है तो उसका उद्देश्य राज्य में केवल अपने अस्तित्व की रक्षा करना भर है। वह इसी उम्मीद में है कि जिस तरह बिहार में महागठबंधन में शामिल होकर वह सत्ता का स्वाद चखने में सफल हो गई थी कुछ वैसी ही खुशी उसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ करके भी हासिल हो सकती है परंतु उसकी इस उम्मीद पर पानी फिरने की संभावनाएं ही अधिक नजर आ रही हैं।

उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी नीत केन्द्र सरकार को नई ऊर्जा भी प्रदान कर सकते हैं और अपनी रीति-नीति में बदलाव के लिए भी विवश कर सकते हैं। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता एवं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी रणनीतिक चातुर्य की परीक्षा भी इन चुनावों में होना है।

गौरतलब है कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने जो शानदार बहुमत हासिल किया था उनमें उत्तर प्रदेश का योगदान सर्वाधिक था जहां पार्टी ने ८० में से ७३ लोकसभा सीटों पर कब्जा करने में सफलता अर्जित की थी। इस सफलता का श्रेय भाजपा के तत्कालीन उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह के रणनीतिक चातुर्य को दिया गया था जिन्हें बाद में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से नवाजा गया। मोदी को उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से चुनाव लड़ाने का फैसला भी भाजपा की राज्य में ऐतिहासिक सफलता का मार्ग प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण कारक बना।

प्रधान मंत्री लोकसभा में जिस राज्य के एक लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हों उस राज्य के विधान सभा चुनाव निश्चित रूप से प्रधान मंत्री के खुद के लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए। इसलिए इनमें दो राय नहीं हो सकतीं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लिए अन्य दलों के सुप्रीमो से कही अधिक महत्वपूर्ण हैं। उत्तर प्रदेश विधान सभा में चुनाव में भाजपा की उम्मीदें कितनी फलीभूत होती हैं यह तो चुनाव परिणामों से ही पता चलेगा परंतु इतना तो तय है कि यह चुनाव भाजपा के लिए २०१९ में होने वाले लोकसभा चुनावों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

केन्द्र सरकार ने यह सोचकर नोटबंदी का फैसला लिया था कि देश के सबसे बड़े राज्य के विधानसभा चुनावों में अब कालेधन का प्रयोग रोका जा सकेगा। उसकी उद्देश्य की पूर्ति की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। बहुजन समाजवादी पार्टी और समाजवादी पार्टी को नोटबंदी ने अवश्य परेशान किया है, परंतु समाजवादी पार्टी में चले बीते कुछ दिनों के पारिवारिक ड्रामें ने अखिलेश की छवि सुधार दी है। उस पर चुनाव आयोग ने अखिलेश साइकिल सौंप देने के कारण अब सपा कि गति बढने का भी अनुमान लगाया जा सकता है।

भाजपा ने उत्तरप्रदेश में अपने किसी भी नेता को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया है। इसका कुछ असर तो चुनाव परिणामों पर पडने की संभावना है परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश के ही वाराणासी क्षेत्र से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं सांसद हैं अत: उनका पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश की विजय पर ही केंद्रित होगा।

प्रधान मंत्री मोदी ने गत वर्ष विजयादशमी के अवसर पर लखनऊ में दशहरा उत्सव के अवसर पर एक विशाल जनसभा में अपने भाषण का प्रारंभ एवं समापन जय श्रीराम के उद्घोष के साथ किया था तब उसका मतलब यह निकाला गया था कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश विधान सभा के आगामी चुनावों में हिन्दुत्व में अपनी आस्था का प्रदर्शन करके चुनाव जीतने की रणनीति बनाने जा रही है। परंतु अभी हाल में ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों में जाति, धर्म अथवा संप्रदाय के नाम पर वोट मांगने वाले राजनीतिक दलों के विरूद्ध जो टिप्पणी की है उसका सभी दलों पर क्या असर पड़ता है यह उत्सुकता का विषय है। चुनाव चाहे विधान सभा के हो अथवा लोकसभा के लेकिन लगभग सभी दलों के उम्मीदवारों की सूची दागी नेताओं के नामों से अछूती नहीं रह पाती और और दल इस तर्क का सहारा लेता है कि जब तक कोर्ट किसी को अपराधी न मान लें तब तक वह दागी नहीं माना जा सकता।

भारतीय जनता पार्टी ने सभी दलों की भीड़ में अपना एक अलग चेहरा स्थापित करने का प्रयास किया है और केन्द्र में प्रधान मंत्री पद की बागड़ोर नरेन्द्र मोदी के हाथों में आने के बाद से भाजपा ने साफ सुथरी पार्टी के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने की कटिबद्धता भी जाहिर की है। परंतु भाजपा की इस कटिबद्धता का प्रमाण तो उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में ही मिल सकेगा। उसके लिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव ऐसी कसौटी है जिस पर अपने को खरा साबित कर २०१९ के लोकसभा चुनावों में भी अपनी विजय का मार्ग अभी से प्रशस्त कर सकती है।

बिहार विधान सभा चुनावों में राजद, जदयू एवं कांगेस के महागठबंधन ने उसकी जीत की संभावनाओं को धूमिल कर दिया था। उत्तर प्रदेश में ऐसे महागठबंधन की तैयारियां चल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी को इसलिए और भी चौकन्ना रहने की जरूरत है। अगर उत्तर प्रदेश में भी सपा, जदयू, कांग्रेस व रालोद ऐसा महागठबंधन बनाने में सफल हो जाते हैं तो भाजपा का उत्तर प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने का मार्ग दुरूह भी हो सकता है।

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