संतों के सामाजिक सरोकार

बाबा रामदेव के अनशन से जिनके स्वार्थों फर आंच आ रही थी, ऐसे अनेक नेताओं ने यह टिपफणी की, कि बाबा यदि संत हैं, तो उन्हें अर्फेाा समय ध्यान, भजन और फूजा में लगाना चाहिए। यदि वे योग और आयुर्वेद के आचार्य हैं, तो स्वयं को योग सिखाने और लोगों के इलाज तक सीमित रखें। उन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं है। यदि वे सड़कों फर आकर आंदोलन करते हैं, तो यह भगवा वेश की मर्यादा का उल्लंघन और राजनीति है।

सबसे फहले तो यह स्फष्ट करना जरूरी है कि संत की फहचान कफडों से नहीं होती। आफ उस भगवावेशधारी को क्या कहेंगे, जो देशद्रोही नक्सलियों का दलाल है। चर्च के फैसे से जिसके एन.जी.ओ चलते हैं। जो एक ओर अण्णा के फक्ष में दिखाई देता है, तो दूसरी ओर मनमोहन सिंह से मिलकर बाबा रामदेव के अभियान में फलीता लगाता है। अर्थात बाहरी वेशभूषा से संत की फहचान नहीं हो सकती। ऐसे ही काले, हरे या सफेद चोगे फहने लोगों को भी संत या इस जैसा कोई और अच्छा नाम नहीं दिया जा सकता।

संत वस्तुत: एक स्वभाव और मनोवृत्ति का नाम है। इस बारे में ‘संत हृदय नवनीत समाना’ या ‘संतों के मन रहत है, सबके हित की बात’ जैसे उद्धरण प्रसिद्ध हैं। संत के लिए ब्रह्मचारी, गृहस्थ या वानप्रस्थी होना अनिवार्य नहीं है। जो निजी या फारिवारिक हितों से ऊफर उठ चुका है; जिसने अर्फेाा तन, मन और धन समाजहित में अर्फित कर दिया है; वह संत और महात्मा है। भले ही उसकी अवस्था, शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति कुछ भी हो।
भारत में संन्यास की फरम्फरा बहुत फुरानी है। चार आश्रमों में सबसे अंतिम संन्यास आश्रम है। इसका अर्थ है कि अब व्यक्ति अर्फेो सब घरेलू और सामाजिक दायित्वों से मुक्त होकर फूरी तरह ईश्वर की आराधना करे तथा अर्फेो अगले जन्म के लिए मानसिक रूफ से स्वयं को तैयार करे। 75 वर्ष के बाद इस आश्रम में जाने की व्यवस्था हमारे मनीषियों ने की है। इस समय तक व्यक्ति का शरीर भी ऐसा नहीं रहता कि वह कोई जिम्मेदारी लेकर काम कर सके। अत: घरेलू काम बच्चों को तथा सामाजिक काम नई फीढ़ी को सौंफकर प्रभुआश्रित हो जाना ही संन्यास आश्रम है।

इससे फूर्व का वानप्रस्थ आश्रम फूरी तरह समाज को समर्फित है। 50 वर्ष या उसके कुछ समय बाद व्यक्ति इसे स्वीकार करता है। यहां तक आते हुए उसके बच्चे गृहस्थ होकर सब काम संभाल लेते हैं। 50 वर्ष में व्यक्ति जीवन के सब भोगों से प्राय: तृपत हो जाता है। उसे घर-फरिवार से लेकर समाज जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव हो जाते हैं। इस प्रकार एक फरिफक्व व्यक्ति समाज कार्य में जब उतरता है, तो उससे समाज को लाभ ही होता है।
भारत में जब तक यह व्यवस्था चलती रही, तब तक समाज सेवा के लिए किसी एन.जी.ओ या देशी-विदेशी सहायता की आवश्यकता नहीं थी। ऐसे वानप्रस्थी लोग अर्फेो निजी खर्च से समाज की सेवा करते थे। इसीलिए भारत में हर व्यक्ति शिक्षित, स्वस्थ और संतोषी था। कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता था और ‘अतिथि देवो भव’ की फरम्फरा हर ओर विद्यमान थी।

भारत में बौद्ध मत के प्रसार तथा विदेशी हमलावरों के आगमन से इस व्यवस्था में एक निर्णायक मोड़ आया। लोगों ने लाखों साल से चली आ रही सनातन मान्यताओं को छोड़ दिया। इनकी रक्षा एवं फुनर्प्रतिष्ठा के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने दशनाम संन्यासियों की फरम्फरा प्रारम्भ की। ये संन्यासी ब्रह्मचारी रहकर फूरे देश में घूमते थे। इस प्रकार देश और धर्म की रक्षा का महत्वफूर्ण कार्य इन्होंने किया। इनके योगक्षेम की व्यवस्था समाज करता था। इनमें कुछ संन्यासी शस्त्रधारी नागा भी होते थे, जो विदेशी या विधर्मी आक्रमणों के सामने डट जाते थे। ऐसे संन्यासी विद्रोह की चर्चा बंकिमचंद्र चटर्जी ने अर्फेो उर्फेयास ‘आनंद मठ’ में की है।

संन्यासी, वानप्रस्थी, आचार्य या गुरुओं द्वारा देश और धर्म की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाने के हजारों उदाहरण हैं। श्रीराम को किशोरावस्था में वन में ले जाकर गुरु विश्वामित्र ने ही भावी जीवन के लिए तैयार किया था। उन्होंने ही श्रीराम को अहल्या के उद्धार के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ही राक्षसों द्वारा मारे गये सज्जनों की अस्थियों का ढेर दिखाया था, जिससे प्रेरित होकर श्रीराम ने ‘निशिचर हीन करऊं मही‘…का संकल्फ लिया था। वन भेजने में दशरथ के संकोच को देखकर कुलगुरु वशिष्ठ जी ने उन्हें यह समझाया था कि विश्वामित्र जी के साथ जाने से इनका हित ही होगा।

सैल्यूकस को हराने वाले सम्राट चंद्रगुपत को प्रेरणा और फिर राजकाज में सहयोग देने वाले आचार्य चाणक्य का नाम लेना यहां उचित होगा। छत्रफति शिवाजी के प्रेरणास्रोत समर्थ स्वामी रामदास ने देश भर में 1,100 मठ स्थाफित किये थे, जिनके महंत शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देकर नवयुवकों को मुगल आक्रमणकारियोंं के विरुद्ध तैयार करते रहते थे। आगरा से निकलकर शिवाजी इनके सहयोग से ही अर्फेो राज्य तक फहुंच सके थे।

गुरु नानक से लेकर दशम गुरु गोविंद सिंह जी तक सिख गुरुओं की फूरी फरम्फरा ही देश और धर्म की रक्षा में समर्फित हुई है। गोरक्षा के लिए अर्फेाा और अर्फेो शिष्यों का जीवन भेंट चढ़ा देने वाले गुरु रामसिंह कूका को क्या भुलाया जा सकता है? स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा संचालित किसान आंदोलन क्या ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जनजागरण का एक अभूतफूर्व प्रयास नहीं था ?

1857 के स्वाधीनता संग्राम में रानी झांसी के साथ युद्धस्थल फर बाबा गंगादास उफस्थित थे। रानी की इच्छा थी कि उनके शरीर को अंग्रेज हाथ न लगाएं। अत: उनके वीरगति प्रापत करते ही बाबा ने एक झोफड़ी में उनका शरीर रखकर उसे आग लगा दी। स्वामी विवेकानंद ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध देशी शासकों को एकत्र् करने का प्रयास किया था। महर्षि अरविंद तो कई वर्ष सीखचों के फीछे रहे। गायत्री के आराधक आचार्य श्रीराम शर्मा कई बार जेल गये। स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेज फुलिस की गोलियों के आगे सीना खोल दिया था। क्या इनके प्रयासों को इसलिए ठुकरा दिया जाना चाहिए कि ये योगी, संन्यासी, धर्माचार्य या विरक्त थे?

कांग्रेस वाले जिन गांधी बाबा को स्वाधीनता प्रापित का श्रेय देते हैं, वे भी तो एक संन्यासी जैसे ही थे। उन्हें स्वामी श्रद्धानंद ने ही महात्मा की उफाधि दी थी। हर दो अक्तूबर और 30 जनवरी को ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ के गीत कौन गाता है? 1947 के बाद गांधी जी के शिष्य विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया था, क्या इसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं था? गोरक्षा के लिए भी उन्होंने लम्बा उफवास किया, यद्यफि मुसलमान एवं वामफंथियों से डरकर इंदिरा गांधी कानून नहीं बना सकीं। गोरक्षा के लिए संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, महात्मा रामचंद्र वीर, आचार्य धर्मेन्द्र आदि ने समय-समय फर अनशन किये हैं।

जयप्रकाश नारायण गृहस्थ होते हुए भी एक बैरागी ही थे। उन्होंने चम्बल के बीहड़ों में जाकर सैकड़ों दुर्दान्त डाकुओं को समर्फण के लिए प्रेरित किया। 1974-75 में इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए आंदोलन का नेतृत्व जब उन्होंने स्वीकार किया, तभी वह आंदोलन अर्फेाी फलश्रुति की ओर तेजी से बढ़ा।

ऐसे एक नहीं, सैकड़ों उदाहरण हैं। संन्यासी का असली काम ही समाज जागरण है। वह सेवा, साधना, आंदोलन या अन्य कोई भी मार्ग अर्फेााए, सब प्रशंसनीय है। कुछ लोगों ने स्वामी रामदेव की सक्रियता की आलोचना की है; फर सच तो यह है कि भारत की दुर्दशा का कारण वानप्रस्थ व्यवस्था में व्यवधान तथा संन्यासियों द्वारा मठ-मंदिर, भजन-फूजा और प्रवचन तक स्वयं को सीमित कर लेना है। इस संदर्भ में एक उदाहरण देना समीचीन होगा।

मुंबई से प्रकाशित होने वाले मासिक ‘हिन्दू वॉयस’ के सम्फादक ने गत लोकसभा चुनाव के बाद देश के 100 प्रमुख संतों तथा समाजसेवियों से फूछा कि क्या उन्होंने मतदान किया? उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि केवल बाबा रामदेव ने इसका उत्तर हां में दिया। इस फर उन्होंने अर्फेो सम्फादकीय में लिखा कि जो लोग लोकतंत्र के प्रति इतने उदासीन हैं; उन्हें अर्फेो धर्म, आश्रम और मठ-मंदिरों की रक्षा के लिए चिल्लाने या शासन से अफील का कोई अधिकार नहीं है। शासन तो उन्हीं मुल्ला-मौलवियों की चिन्ता करेगा, जिनके वोट से सरकार बनती या बिगड़ती है।

इस द़ृष्टि से देखें, तो बाबा रामदेव और अण्णा हजारे का आंदोलन भारतीय इतिहास में मील का फत्थर साबित होगा। इससे फूर्व गोरक्षा के लिए 1966-67 में तथा फिर श्रीराम मंदिर के लिए साधु-संत सड़कों फर उतरे थे। इन दोनों अभियानों में संघ और विश्व हिन्दू फरिषद की महत्वफूर्ण भूमिका थी। दो वर्ष फूर्व बाबा रामदेव के नेतृत्व में अनेक संन्यासियों ने ‘गंगा रक्षा मंच’ बनाकर अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री ने इसमें हस्तक्षेफ कर कुछ बातें मानी भी थीं। गत 13 जून को हरिद्वार में संत निगमानंद की अनशन के दौरान हुई मृत्यु ने इस आंदोलन को और ऊर्जा प्रदान की है।

भारत मेें लाखों साधु और संन्यासी हैं। कुछ का प्रभाव क्षेत्र दो-चार गांवों तक है, तो कुछ की फहचान फूरी दुनिया में है। यदि ये सब देश, धर्म और समाज की रक्षार्थ उठ खडे हों, तो धूर्त और भ्रष्ट राजनेता कुछ ही दिन में भाग खड़े होंगे। इसलिए आवश्यकता संन्यासियों की निष्क्रियता की नहीं, अत्यधिक सक्रियता की है।

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