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तुलसी की सामाजिक समरसता

तुलसी की सामाजिक समरसता

by ॠषि कुमार मिश्र
in जुलाई -२०१२, सामाजिक
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तुलसीदास जिस समय अपने विश्वप्रसिद्ध प्रबंध ‘रामचरित मानस’ की रचना कर रहे थे, देश में मुस्लिम शासकों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। मुसलमान परम्पराये, रहन-सहन और संस्कृति भारतीय हिन्दू पराम्पराओं और सनातन संस्कृति से मेल नहीं खाती थीं। आराधना और पूजा पद्धतियाँ भी बिल्कुल भिन्न थीं। मुस्लिम शासकों का भारत में प्रवेश आतताइयों के रूप में हुआ था। अत: उनकी स्वेच्छाचारिता और अत्याचारों से हिन्दू समाज में घोर निराशा उत्पन्न हो गयी थी। सनातन धर्म अवतारबाद पर आधारित है जिसमें आरादय की सगुणोपासना की जाती है। किन्तु तत्कालीन शासको के धर्मानुसार ईश्वर के सगुण और साकार रुप का निषेध था। मुसलमानों के बीच रहकर हिन्दू संत महात्माओं के लिए भगवान के उस रुप पर जनता को ले जाने का मार्ग अवरुद्ध हो गया, जो आतताइयों का विनाश कर धर्म की पुनर्स्थापना करने वाला है। इसी कारण उस समय अनेक भक्तों व कवियों को निर्गुण भक्ति का आश्रम लेता पड़ गया जिससे विशुद्ध भारतीय भक्ति मार्ग का स्वरूप बहुत कुछ आच्छान्न हो चला था। तुलसी जैसे सनातनी वैष्णव के लिए यह धर्मय्युति असहनीय थी-

‘‘हरितभूमि तृण संकुल सूझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड विवाद ते तुरत होहिं सदग्रंथ॥’’

वेद प्रणीत धर्म भारतीय जीवन पद्धति का आधार है। हिन्दू जनता का वैयक्तिक और सामाजिक आचरण धर्म नियोजित है। भारतीय भक्ति पद्धति केवल व्यक्तिगत समान्त साधना के रुप में नदोकर, व्यवहार क्षेत्र के भीतर लोक मंगल की प्रेरणा करने वाली है। यही कारण है कि भारतीयों के भगवान मनुष्य रूप में लोक रक्षण करते हुए दिखाई पड़ते है।

धर्म प्रणीत सामाजिक व्यवस्था जिसकी अनुशंसा वेदों द्वारा की गई थी वह वर्णाश्रम धर्म के रुप में प्रचलित थी। वर्णाश्रम व्यवस्था में व्यक्तिगत धर्म और लोकधर्म का पूरा सामंजस्य था। तुलसी के लिए वर्णाश्रमधर्म का परिपालन लोक परलोक के सभी सुखों के लिए अनिवार्य थी-

‘‘बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं मय सोक न रोग॥’’

तुलसी द्वारा कल्पित रामराज में वर्णाश्रम धर्म के अकसर आचरण करने के कारण ही लोग दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त थे। न केवल मनुष्य जाति ऊँच-नीच, वैर-भाव के दोषों से मुक्त थी, प्रकृति और पशु पक्षियों के स्वभाव में भी उत्फुल्लता और परस्पर प्रेम के दर्शन होते थे-

‘‘फूलहिं फलहिं सदा तरू कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन।
खग मृग सहज बयरू बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥’’

वर्णाश्रम व्यवस्था में राजा के कर्तव्य भी निर्धारित थे। प्रजा के सुखों का ध्यान न रखने वाला राजा नरकयामी माना जाता था-

‘‘सासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।’’

राजकुल की महिलाओं और सामान्य घरों की स्त्रियों को अपने पारिवारिक दायित्वों के उच्च आदर्श समानरूप से पालनीय थे-

‘‘जद्यपि गृह सेवक सेवकिनी, विपुल सकल सेवा विधि युती।
निज कर गृहपरिचरजा करडे, रामचंद्र आयमु अनुसरई।’’

तुलसी ने जिस वर्णाश्रम धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा द्वारा समाज को जोड़ने का कार्य किया, हिन्दू जाति को लोकनीति और मर्यादावाद का पाठ पढ़ाया निराशा और दु:ख के वातावरण से उसे उबारने का प्रयत्न किया। उसी के आधार पर आधुनिक साम्यवादी विचारकों ने तुलसी पर आक्षेपों की बौछार कर दीं। उन्हे जातिवादी, स्त्रीविरोधी, रुढिवादी, योगापंथी यहाँ तक कि हिन्दू समाज का पथ भ्रष्टक सिद्ध किया जाने लगा।

तुलसी पर लगाये गये आधारहीन आरोपों के निराकारण हेतु सर्वप्रथम वर्णाश्रम धर्म को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार वर्ण व्यवस्था में ‘‘लोकसंचालन के लिए ज्ञानबल, बाहुबल, घनबल और सेवाबल का सामंजस्य घटित हुआ जिसके अनुसार केवल कर्मों की ही नहीं वाणी और भाव की भी व्यवस्था की गई। जिस प्रकार ब्राह्मण के धर्म पठन पाठन, तत्वचिन्तन, यज्ञादि हुए उसी प्रकार भान्त और मृदु वचन तथा उपकार, बुद्धि, नम्रता, दया, क्षमा आदि भावों का अभ्यास भी। क्षत्रियों के लिए जिस प्रकार शास्त्रग्रहण धर्म हुआ, उसी प्रकार जनता की रक्षा, उसके सुख दु:ख से सहानुभूति आदि भी। और वर्णों के लिए जिस प्रकार अपने नियत व्यवसायों का सम्पादन कर्तव्य ठहराया गया, उसी प्रकार अपने से ऊँचे कर्तव्यवालों अर्थात् लोकरक्षा द्वारा भिन्न-भिन्न व्यवसायों का अवसर देनेवालों के प्रति, आदर सम्मान का भाव भी। वचन व्यवस्था और भाव व्यवस्था के बिना कर्म व्यवस्था निष्फल होती। परिवार में जिस प्रकार ऊँची-नीची श्रेणियाँ होती हैं असी प्रकार शील, विद्या, बुद्धि, शक्ति आदि की विचित्रता से समाज में भी ऊँची-नीची श्रेणियां रहेंगी। कोई आचार्य होगा कोई शिष्य, कोई राजा होगा कोई प्रजा, कोई अवसर होगा, कोई मातदत, कोई सिपाही होगा कोई सेना पति। केवल बाहुबल अथवा दंडमय से इन ऊँची नीची श्रेणियों में परस्पर प्रीति न तो पैदा होगी न दृढ़ रहेगी। राम राज्य में-

‘‘बयरु न करु काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।
सब नर कराहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत स्रुहि नीती।’’

यह अवस्था जिस कारण उत्पन्न हुई उसका विवेचन करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं। भारतीय सभ्यता के बीच राजा धर्म शक्ति स्वरूप है, पारस और काबुल के बादशाहों के समान केवल घनबल और बाहुबल की पराकाष्ठा मात्र नहीं। यहाँ राजा सेवक और सेना के होते हुए भी शरीर से अपने धर्म का पालन करता हुआ दिखाई पड़ता है। फीर प्रजा की पुकार संयोग से उसके कान में पड़ती है, तो वह आप ही रक्षा के लिए दौड़ता है; ज्ञानी महात्माओं को देखकर सिंव्रसन छोड़कर खड़ा हो पाता है; प्रतिज्ञा पालन के लिए शारीरिक कष्ट झेलता है। प्रजा अपने सब प्रकार के उच्च भावों का प्रतिबिम्ब उसमें देखती है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को लोकहित के लिए अपने व्यक्तिगत सुख का हर घड़ी त्याग करने के लिए तैयार रहना पड़ता था। ब्राह्मणों को तो सदा अपने व्यक्तिगत सांसरिक सुख की मात्रा कम रखनी पड़ती थी। क्षत्रियों को अवसर विशेष पर अपना सर्वस्व-प्राण तक-छोड़ने के लिए उद्यत होना पड़ता था। शेष वर्गों को अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक सुख की व्यवस्था के लिए सब अवस्थाओं में पूरा अवकाश रहता था। अत: उच्च वर्ग में अधिक मान या अधिक अधिकार के साथ कठिन कर्तव्यों की योजना और निम्न वर्गो में कम मान और कम सुख के साथ अधिक अवस्थाओं में आराम की योजना जीवन निर्वाह की दृष्टि से सामंजस्य रखती थी।’’
तुलसी ने यहाँ-

‘‘पूजिय बिप्र सील गुन हीता, सूद्रन न गुन गन ग्यान प्रवीना।’’ लिखा है वहीं यह भी कहा है-

‘बिप्र निरक्षर लोलुप कामी, निराचार सठ वृषली स्वामी।’ तुलसी के उपर्युक्त कथनों के आधार पर उनपर लगे पातीक पक्षपात का शमन हो जाता है। छोटे और बड़े के बीच, उच्च और निम्न जातीयों के बीच वे कैसा व्यवहार उचित समझते थे इसका दर्शन केवल और शबरी प्रसंग में किया जा सकता है। केवल श्री राम को देख अत्यन्त प्रेम पूर्वक दण्डवत करता है तो श्री राम उसे अत्यन्त स्नेहपूर्वक अपने पास बैठाकर उसकी कुशल क्षेम पूछते हैं-

करि दंडवत भेंट धरि आगे, प्रभुहिं बिलोकत अति अनुरागे।
सहज सनेह बिबस रघुराई, पूँखी कुसल निकट बैठाई।

शबरी द्वारा प्रदत्त जंगली फल और कंदमूल श्री राम बडे प्रेमपूर्वक ग्रहण करते हैं। जब शबरी अपनी छोटाई और राम की बड़ाई का वर्णन करती है तो राम स्पष्ट कहते हैं कि वे छोटे बड़े का भेद नहीं करते। केवल भक्ति की न्यूनता अधिकता ही किसी को छोटा बड़ा बनाती है, जाति नही-

अद्यम ते अद्यम अद्यम अति नारी, तिन्ह मंद मैं मतिमंद अधारी।
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता, मानहुँ एक भगति कर नाता।

तुलसी की एक चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’’ से चिढ़कर कुछ लोग उन्हें जातिवादी, स्त्रीविरोधी कहते हैं उसका निराकरण करते हुए आचार्य शुक्ल का कथन है कि तुलसी की इस युक्ति को सिद्धान्त रूप में नहीं, अर्थवाद के रुप में देखना चाहिए। चौपाई में ‘ताड़न’ शब्द भी ढोल शब्द के योग में आलंकारिक चमत्कार के रूप में लाया जाता है। बैरागी होने के कारण वे काम, मद लोभ आदि से बचने के लिए बार-बार कंचन, कामिनी की निंदा करते हैं। सब रुपों कें स्त्रियों की निंदा उन्होंने नहीं की है। केवल प्रमदा या कामिनी के रूप में, की है-माता, पुत्री, भगिनी आदि के रुप में नहीं। इससे सिद्ध है कि स्त्री जाति के प्रति उन्हें कोई द्वेष नहीं था। उन्होंने तो सब और से समता की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की है, जो अब तक भारतीय जनता का मार्गदर्शक रहा है और अस दिन भी रहेगा, जिस दिन नया भारत जन्म ले रहा होगा।

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