रिपब्लिक भारत के मालिक संपादक अर्णव गोस्वामी की पत्रकारिता से असहमत होने का अधिकार किसी को भी हो सकता है लेकिन असहमति का तत्व सत्ता के बल पर दमन की इजाजत नही देता है।जिस तरीके से अर्नब को मुंबई पुलिस ने निशाने पर लिया है वह महाराष्ट्र सरकार के उसी फासीवाद का परम्परागत नमूना है जो बाला साहेब के समय इंदिरा गांधी के आपातकालीन अत्याचार की वकालत में खड़ा हुआ था।अर्णब के मामले में महाराष्ट्र सरकार ने जो करवाई की है वह इस विमर्श को भी केंद्र में लाने के लिए पर्याप्त है कि मोदी सरकार में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल कितने प्रायोजित तरीके से उठाया जाता रहा है।
निःसन्देह आप अपने वैचारिक आग्रह दुराग्रह के चलते किसी से असहमति रख सकते है लेकिन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में आपको इन तौर तरीकों की अनुमति नही हो सकती है जो रिपब्लिक भारत को लेकर उद्धव ठाकरे सरकार ने अपनाए है।खासकर मौजूदा माहौल में जब बीजेपी के सभी विरोधी राजनीतिक दल एवं कथित बुद्धिजीवी इन्टॉलरेंस और अभिव्यक्ति की आजादी के सिलेक्टिव सवालों के साथ दुनियांभर में मोदी सरकार के चरित्रहनन का प्रयास सुगठित तरीके से करते आ रहे है।
सवाल यह है कि क्या अर्णब गोस्वामी को केवल इसलिए बार बार निशाने पर लिया जा रहा है क्योंकि वे महाराष्ट्र सरकार और कांग्रेस के प्रति हमलावर रहते है?इस आधार पर देखें तो 2014 के बाद तो भारत में अभिजात्य वर्ग की पत्रकारिता पर कभी के ताले गिर जाना चाहिये थे।गुजरात में तो मीडिया का अस्तित्व ही खत्म हो जाना चाहिए था क्योंकि यह तथ्य है कि भारत में अगर किसी एक व्यक्ति के विरुद्ध सर्वाधिक औऱ सतत घृणास्पद दुष्प्रचार मीडिया के माध्यम से किया गया है तो वह नरेंद्र मोदी और बाद में अमित शाह ही है।सत्ता की हनक अगर उद्धव सरकार की तरह मुख्यमंत्री को असहमति के स्वर कुचलने के लिए दुःसाहस पैदा करती तो गुजरात में मोदी तो सर्वशक्तिमान सीएम रहे है।आज वे भारत के सबसे ताकतवर पीएम भी है लेकिन एक भी मामला ऐसा नही है जो मीडिया मर्दन की प्रमाणिकता को साबित करता हो।
सवाल मौजूदा महाराष्ट्र सरकार के चरित्र पर इसलिए भी उठाए जाने आवश्यक है क्योंकि इस सरकार का वैचारिक समुच्चय तानाशाही और वंशवाद की नींव पर ही खड़ा है।कांग्रेसी बैशाखीयों पर टिकी उद्धव सरकार को तानाशाही औऱ नाजिज्म की मानसिकता में ही आनन्द आता है। शिवसेना की राजनीति कांग्रेस की तरह एक परिवार पर टिकी है और परिवार परे पार्टी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है।आपातकाल में जब समूचा विपक्ष औऱ विचार प्रधान समाज इंदिरा गांधी के विरुद्ध सड़कों पर खड़ा था शिवसेना तानाशाही के समर्थन में थी। लोकतंत्र की आड़ में शिवसेना का बुनियादी चरित्र तो वस्तुतः असहिष्णुता औऱ संकीर्णता का दर्शन ही कराता है।
सत्ता से असहमति के प्रश्न शिवसेना को शूल की तरह चुभ जाते है इसीलिए हाल ही में अभिनेत्री कंगना रणौत के मामले में भी उद्धव सरकार ने विरोधियों को कुचलने की मानसिकता से काम किया है।ताजा अर्णब विवाद असल में असहमति को अस्वीकार्य करने का फासीवाद दर्शन ही है।
कमाल की बात यह है कि दिन रात मोदी सरकार को कोसने वाली बुद्धिजीवियों की जमात आज उद्धव सरकार के इन कृत्यों पर चुप्पी ओढ़े हुए है क्योंकि निशाने पर उद्धव, कंगना जैसे लोग है जो वामपंथियों,कांग्रेसीयों के प्रयोजित एजेंडे के सबसे अप्रिय पात्र है।आजादी के झंडाबरदारों की यह चुप्पी असल में क्षद्म सेक्युलरिज्म को भी बेनकाब करने का काम कर रही है।
आज उद्धव ठीकरा ( ठाकरे नहीं ) ने स्वयं ही अपने मुँह पर कालिख पोत ली है। सत्ता के लिये आदमी कितना गिर सकता है? इस ठीकरे ने आदरणीय श्री बाल ठाकरे जी की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया है।
यह धृतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधा और पाषाण हृदय हो चूका है.
चाहे सत्ता की पूरी शक्ति लगालो लेकिन दो निर्दोष कलाकारों के जघन्य हत्यारे बेबी पैंग्विन बचेगा नहीं।
संविधान द्वारा प्रदत अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार को अविलम्ब विधिसम्मत कार्रवाई करना चाहिये…
आतंकवादियों के लिए आधी रात को अपने दरवाजे खोलकर सुनवाई के लिए बैठने वाला सुप्रीम कोर्ट, मुंबई में दही हांडी की ऊंचाई तय करने वाले सुप्रीम कोर्ट को प्रेस की स्वतंत्रता की चिंता कहीं दिखाई नहीं देती।मजे की बात यह है कि जो भाजपा आज अर्नब गोस्वामी के पक्ष में खड़ी दिखाई दे रही है उसी भाजपा की छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के इशारे पर करीब एक साल पहले उनकी पुलिस ने दिल्ली में रहने वाले छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा के घर में आधी रात को इसी तरह की दबिश देकर झूठे सीडी कांड में फंसाकर जेल भेज दिया था। इसका मतलब है कि जो सत्ता में होता है उसे मीडिया की साफगोई फूटी आंख नहीं सुहाती।सच का गला घोंटने के लिए सरकारें किसी भी हद तक जा सकतीं हैं।