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हिंदुत्व : धर्म की अवधारणा, सत्य एवं भ्रांति

हिंदुत्व : धर्म की अवधारणा, सत्य एवं भ्रांति

by प्रणय कुमार
in विशेष, शिक्षा, संस्कृति, सामाजिक
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हिंदुत्व का दूसरा नाम सनातन संस्कृति या सनातन धर्म है। सनातन का अभिप्राय ही यह है कि जो काल की कसौटी पर सदैव खरा उतरे, जो कभी पुराना न पड़े, जिसमें काल-प्रवाह में आया असत्य प्रक्षालित होकर तलछट में पहुँचता जाय और सत्य सतत प्रवहमान रहे। फिर यह भ्रांति कब, कैसे और क्यों उत्पन्न हुई? उन भ्रांतियों के क्या कारण रहे? इसे जानने के लिए हमें अतीत में झाँकना पड़ेगा। हिंदू-समाज विगत 1000 से अधिक वर्षों से विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं से जूझता रहा है। परंतु प्रचारित यह किया जाता रहा कि हम सतत गुलाम रहे और सच्चाई यह है कि हम संघर्षशील रहे। कभी हारे, कभी जीते, पर हमने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया, हम झुके, टूटे और मिटे नहीं। और जब भी हमें अवसर मिला हमने इन विदेशी-विधर्मी ताकतों को जड़-मूल समेत उखाड़ फेंकने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी। देश का कोई ऐसा भूभाग, कोई ऐसा प्रांत नहीं, जहाँ इन आक्रांताओं को प्रतिकार और प्रतिरोध न झेलना पड़ा हो। यही कारण रहा कि इस्लाम की आँधी के आगे केवल हम, जी केवल हम हिंदू अपनी अस्मिता, अपनी संस्कृति, अपने जीवन-मूल्यों की रक्षा कर पाए। लड़े और क्या खूब लड़े! हम हिंदुओं ने अपनी धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा दी।
विश्व-कल्याण के लिए सभ्यता का यह वैचारिक संघर्ष आज भी सतत ज़ारी है।  हाँ, स्वतंत्र भारत में वह थोड़ा दुर्बल अवश्य पड़ा है। क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात देश की सत्ता जिन हाथों और कालांतर में जिस वंश के हाथों में आई, वे पश्चिमी रंग में रंगे थे। उनमें अंग्रेजियत का भाव कूट-कूटकर भरा था। वे स्वयं को दुर्घटनावश हिंदू मानते थे। उन्हें भारत के मूल स्वरूप एवं स्व की समझ और पहचान नहीं थी। और कोढ़ में खाज का काम वामपंथियों एवं क्षद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों ने किया। उन्होंने मधुवेष्टित (सुगरकोटेड) तरीकों से बड़ी योजना एवं कुटिलतापूर्वक युवा पीढ़ी को देश की जड़ों-संस्कारों-मूल्यों से काट दिया। उनमें शत्रु-मित्र की समझ, सम्यक-संतुलित इतिहास बोध ही नहीं विकसित होने दिया। उन्हें एक निश्चित दिशा में सोचने के लिए षड्यंत्र पूर्वक अनुकूलित कर दिया। वे भारतीय ज्ञान-परंपरा यानी हिंदू ज्ञान-परंपरा को संशय या हीनता की दृष्टि से देखने लगे। उन्हें समझाया गया कि जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वरेण्य है, सब पश्चिम का दिया हुआ है। हम तो साँप के आगे बीन बजाने वाले, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाले, पत्थरों-पर्वतों-नदियों की पूजा करने वाले पिछड़े और प्रतिगामी समाज हैं। इन सबके पीछे के वैज्ञानिक-व्यावहारिक पक्ष को जान-बूझकर उनसे छुपाया गया।
भ्रांति का मूल कारण स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद की यही परकीय-परावलंबी-परमुखापेक्षी, स्वाभिमान-शून्य दृष्टि है, दुर्भाग्य से जिसे आज भी पल्लवित-पोषित किया जा रहा है। यदि इस अज्ञान को दूर कर दिया जाय और स्व, स्वत्व एवं सनातन सत्य का बोध करा दिया जाय तो सब प्रकार की भ्रांतियाँ स्वतः दूर हो जाएँगीं। अज्ञान भ्रम का कारण और ज्ञान ही निवारण है। प्रश्न उठता है कि फिर हिंदुत्व क्या है? हिंदुत्व संपूर्ण सृष्टि में एक ही सत्य, एक ही परम तत्त्व, चैतन्य सत्ता को देखने की जीवन-दृष्टि, उससे अधिक जीवन-पद्धत्ति है। हिंदुत्व ने मनुष्य और संपूर्ण विश्व-ब्रह्मांड का चिंतन समग्रता से किया है। उसने मनुष्य को केवल शरीर, मन, बुद्धि तक सीमित नहीं माना, बल्कि उसने उससे आगे उसकी आत्मिक सत्ता की खोज की। व्यष्टि से समष्टि तक उस आत्मिक सत्ता का विस्तार ही हम हिंदुओं का अंतिम लक्ष्य है। हिंदू-चिंतन के अनुसार हर व्यक्ति – परिवार, कुल-वंश-समुदाय(बिरादरी), समाज, राष्ट्र, विश्व, ब्रह्मांड के साथ अंगागी भाव से जुड़ा है। उसका आपस में अंतःसंबंध है। उस अंतःसंबंध का अनुसंधान और तत्पश्चात आत्म-साक्षात्कार ही हमारी दृष्टि में मोक्ष या अंतिम सत्य है। हम संपूर्ण चराचर में व्याप्त उस एकत्व को प्राप्त एवं आत्मसात करना चाहते हैं।
हिंदू जीवनदृष्टि मानती है कि आत्मा-परमात्मा एक है। अज्ञान और अहंकार के कारण दोनों की दो सत्ताएँ प्रतीत होती हैं, जिसे हमने माया कहा है। आत्मा-परमात्मा का चिंतन करते हुए हमारे ऋषि-मुनियों ने व्याख्या दी- ”आत्मा- सच्चिदानंदमय रूप है, वह निराकार, निर्विकार, निरंहकार, अनादि और अनंत है और परमात्मा भी सच्चिदानंदमय रूप, निराकार, निर्विकार, निरंहकार, अनादि और अनंत है।” चूँकि दो अनंत नहीं हो सकते, इसलिए दोनों एक हैं। गणितीय सूत्र के अनुसार अनंत को अनंत से जोड़ने, घटाने, गुना करने या भाग देने पर परिणाम अनंत ही निकलता है। यानी हमने जीवात्मा को परमात्मा का अंश माना। और हम यहीं नहीं रुके, बल्कि हमने जड़-चेतन सबमें एक ही सत्य, एक ही ऊर्जा, एक ही ईश्वर के दर्शन किए। दोनों के तदरूप हो जाने की संकल्पना की। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, ‘यत्र पिंडे, तत् ब्रह्माण्डे’, ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ हमारे महावाक्य व जीवन-मंत्र रहे। हमने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के पुरुषार्थ-चतुष्ट्य का लक्ष्य रखा। हमने धर्म को नींव माना, पर अर्थ और काम की उपेक्षा नहीं की। बल्कि इनसे गुज़रने के बाद ही कोई हिंदू मोक्ष का सुपात्र बनता है। वहीं बाइबिल ने तो मनुष्य को  ‘पाप की उपज’ माना। ओल्ड टेस्टामेंट में वर्णन मिलता है ”Man is born out of sin.’ हम मनुष्य को पाप की संतान नहीं मानते। जो हमको वैज्ञानिकता का पाठ पढ़ाते हैं, कभी अपने गिरेबान में झाँककर क्यों नहीं देखते! हमारी तो मान्यता है- ‘वयं अमृतस्य पुत्राः।’ हम अमृत-पुत्र यानी ईश्वर की संतान हैं, उनके अंश हैं, शुद्ध-बुद्ध-चैतन्य सत्ता हैं।
विस्तारवादी-वर्चस्ववादी इस्लाम तो सुख की सारी कल्पना ही मनुष्य के मरने के बाद की करता है। उसके लिए यह धरा स्वर्ग नहीं है। बल्कि वह तो अपने मन-मस्तिष्क में एक वायवीय-काल्पनिक जन्नत की अवधारणा और स्वप्न लिए किसी और जीवन के लिए अपने लौकिक जीवन को चिढ़ते-कुढ़ते हुए व्यतीत कर देता है। ईसाइयत का ‘गॉड’ या इस्लाम का ‘अल्लाह’ सातवें आसमान पर रहता है, वह कभी धरती पर नहीं उतरता। उसका स्वरूप हमारे ‘ईश्वर’ से भिन्न है। यदि वहाँ कोई स्वयं को ईश्वर का अंश बता दे या नर और नारायण को समान धरातल पर रखे तो उस पर ईश-निंदा का दंड लगाया जाएगा। उसकी सजा मृत्युदंड है। वहीं हमने ‘अहं ब्रह्मास्मि’ या ‘तत्त्वमसि’ की सार्वजनिक घोषणा की। हम नर से नारायण तक की ऊँचाई तक पहुँचने का ध्येय लेकर जीवन-यात्रा का आरंभ करते हैं। हमारी चिंतन-परंपरा में ईश्वर भी मानव-रूप में अवतरित होते हैं और उसे अपना सौभाग्य समझते हैं। विष्णुपुराण में कहा गया- ”गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे, स्वर्गापवर्गास्पद हेतुभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात।” हमारे देवता भी यह गान करते हैं कि ”धन्य हैं वे लोग, जो भारत-भूमि पर उत्पन्न हुए। यह भूमि स्वर्ग से बढ़कर है, वहाँ स्वर्ग छोड़ मोक्ष की साधना की जा सकती है।”
धर्म की हमारी अवधारणा भी किसी विशेष पूजा या उपासना पद्धत्ति तक सीमित नहीं है। बल्कि पूजा या उपासना पद्धत्ति हमारे लिए अपने चित्त या आत्मा को शांत-शुद्ध-एकाग्र करने व रखने के माध्यम हैं। उस चैतन्य की अनुभूति करने के अनेक उपायों में से एक हैं। हमारे लिए धर्म करणीय-अकरणीय, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का सतत बोध कराने वाला अधिष्ठान है, आधार है। हमने धर्म को कर्त्तव्य का वाचक माना, जो धारण करने योग्य है वह धर्म है- ‘धारयति इति धर्मः।’ हमारे यहाँ राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, पति का धर्म, पत्नी का धर्म आदि शब्द-प्रयोग कर्त्तव्य के अर्थ में ही किए जाते हैं। बल्कि इन अर्थों में धर्म केवल हिंदू या सनातन है। शेष पंथ, मज़हब, रिलीजन या संप्रदाय हैं। मज़हब या रिलीजन एक पंथ, एक ग्रंथ, एक प्रतीक, एक पैगंबर से इतर किसी अन्य सत्ता को स्वीकार नहीं करते। ईसाइयत ने तो समय के साथ अपनी सोच में कुछ बदलाव किया, पर इस्लाम में तो आज भी सारा चिंतन, सारा ज्ञान युग विशेष तक सिमटकर रह गया है। उन्हें उस सीमा तक ही सोचने की आज़ादी है, जहाँ तक वे एक क़िताब में लिखी बात को सही साबित कर सकें।
आप कल्पना कीजिए कि आज के उदार एवं प्रगत दौर में भी उनके मौलवी सरेआम यह घोषणा करते पाए जाते हैं कि धरती चपटी है, वह स्थिर है, सूर्य उसके चारों ओर घूमता है। और उससे घोर आश्चर्य कि उनके अनुयायी उन्हें सुनते और मानते हैं। वहीं हिंदुत्व किसी एक ग्रंथ या पंथ के लिए बाध्य नहीं करता। वह काल-विशेष में प्रचलित रूढ़ियों के शव को चिपकाए नहीं रखता। वह युग की कसौटी पर सत्य को कसता रहता है। वह अपने आराध्य अवतारों के निर्णयों और जीवन के घटनाक्रमों का भी निःसंकोच आकलन-विश्लेषण करता है। उसका ईश्वर सर्वव्यापी है। वह एक है, पर नाना रूपों में अभिव्यक्त होता है। हिंदूओं के अनुष्ठान के जयघोष हैं – ”धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो!” क्या इसमें क्षुद्रता, संकीर्णता, संकुचितता का लवलेश-मात्र भी है? वस्तुतः हिंदू-दर्शन वैश्विक दर्शन है। वह मानव-धर्म है। उसका ”एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’ का उद्घोष हिंसा, कलह एवं आतंक से पीड़ित विश्व-मानवता के लिए वरदान एवं संकटों से मुक्ति का त्राण है।
रेने देकार्त्त, मार्क्स, फ्रायड, डार्विन, न्यूटन प्रणीत विज्ञान एवं चिंतन ने मनुष्य का खंड-खंड चिंतन किया। इन सबने मनुष्य को प्रकृति का अंग न मानकर स्वामी माना। और बाइबिल ने भी कहा कि यह पूरी धरती तुम्हारे उपभोग के लिए है, इस्लाम ने तो उससे आगे माले-ग़नीमत को आपस में बाँट लेने की अतिरंजित-आक्रामक-वर्चस्ववादी धारणा व सोच दी, कुल मिलाकर उन्होंने मनुष्य को विस्तार देने की बजाय वाद या मज़हब-रिलीज़न के संकुचित दायरे में आबद्ध कर दिया। जबकि हिंदुत्व ने मनुष्य को इस विश्व-ब्रह्मांड का स्वामी न मानकर एक घटक माना। उसने विश्व-ब्रह्मांड से बाहर उसकी कोई स्वतंत्र-इतर सत्ता नहीं स्वीकार की। उसने मनुष्य को वाद या पंथ के सीमित दायरे में बाँधने की बजाय उसकी मुक्ति के मार्ग ढूंढ़े। उसके विस्तार के रास्ते सुझाए। मार्क्स कहता है ‘कमाने वाला खाएगा, जबकि हिंदुत्व कहता है जो जन्मा है सो खाएगा, जो कमाएगा सो खिलाएगा। उसने जीवन दिया है तो वही भोजन भी देगा। हमारा सामान्य मानवी भी कहता है – ‘सबै भूमि गोपाल की।’ खुद कमाना और खुद खाना यह तो प्रकृति है।
दूसरों का छीनकर खाना विकृति है और  खुद कमाना और अपने लिए सबसे कम रखकर उसे सबमें बाँट देना यही संस्कृति है।” इसीलिए हमारे उपनिषदों में अखिल ब्रह्मांड को ईश्वर की संपत्ति मानकर उसके त्यागयुक्त उपभोग की सीख देते हुए कहा गया -”ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।” कार्ल मार्क्स ने मनुष्य को केवल देह और भूख से जोड़कर देखा, देकार्त्त ने बुद्धि से और फ्रायड ने मन से। वे आत्मा की सत्ता तक नहीं पहुँच पाए। मार्क्स के अनुसार मनुष्य के सभी कर्मों के मूल में अर्थोपार्जन है, रोटी की चिंता है तो क्या महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे तमाम मनीषियों-महापुरुषों के कार्यों की प्रेरणा के मूल में रोटी की चिंता थी, अर्थोपार्जन की भावना थी? ऐसा सोचना भी कितना अन्यायपूर्ण होगा?
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि पश्चिमी जगत व हिंदूतर-दर्शन व चिंतन के मूल में ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’, ‘शक्तिशाली का ही अस्तित्व’, ‘प्रकृति का शोषण’ और ‘वैयक्तिक अधिकार’ ही सर्वोपरि है। जबकि हिंदू दर्शन के अनुसार अस्तित्व के लिए संघर्ष से अधिक सहयोग और समन्वय की आवश्यकता है। भारत की सनातन संस्कृति सर्वत्र सहयोग एवं सामंजस्य देखती आई है। सृष्टि के अणु-रेणु में एक ही परम ब्रह्म परमात्मा या चेतना के दर्शन करती आई है। उनका मानना है कि संपूर्ण जगत में जो संघर्ष एवं कोलाहल दिखाई देता है, वह मनुष्य की भेद-बुद्धि का परिणाम है। उनके अनुसार हिंदू जीवन-दृष्टि केवल शक्तिशाली के अस्तित्व-रक्षा में नहीं, अपितु सबके अस्तित्व की रक्षा में जीवन और जगत का कल्याण देखती है। इसीलिए यहाँ के चिंतन में सबसे पूर्व बाल-वृद्ध-विकलांग, अशक्त एवं दुर्बल की चिंता की गई है, न कि शक्तिशाली की। यहाँ प्रकृति को दासी या भोग्या नहीं, अपितु जीवन प्रदायिनी शक्ति या पालन-पोषण करने वाली जननी माना गया है। प्रकृति को भोग्या या दासी मानने के  दुष्परिणाम आज हमारे सम्मुख हैं। तरह-तरह की संक्रामक महामारी एवं विध्वंसक प्रदूषण आज संपूर्ण विश्व को निगलने को तैयार हैं। और वैयक्तिक अधिकार से पूर्व भारत वर्ष में कर्त्तव्यों के पालन की परंपरा रही है।
हमने माना कि एक के कर्त्तव्य-पालन में ही दूसरे का अधिकार संरक्षित होता है। व्यक्ति परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, बदले में परिवार उसके अधिकारों की रक्षा करता है। परिवार समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, बदले में समाज उसके अधिकारों की रक्षा करता है। समाज राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है, बदले में राष्ट्र उसके अधिकारों की रक्षा करता है और राष्ट्र विश्व के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है, बदले में विश्व उसके अधिकारों की रक्षा करता है। इस प्रकार व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से परमेष्टि तक संपूर्ण मानव-समाज अन्योन्याश्रित एवं अंगागी भाव से एक-दूसरे से जुड़ा है। कोई किसी से विलग नहीं, कोई किसी से निरपेक्ष, स्वयंभू या पृथक नहीं। संपूर्ण चराचर में व्याप्त उस एक ही सत्य या परम तत्त्व को पाने और देखने की दृष्टि का ही दूसरा नाम हिंदुत्व या सनातन जीवन-दर्शन है। इसलिए यह केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व-समाज के लिए कल्याणकारी है। यदि हमने हिंदुत्व के इस सत्य को गहराई से जान लिया तो सारा भ्रम, सारा संशय अपने-आप ही जाता रहेगा।

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