पहाड़ी क्षेत्रों में बादल का फटना एवं भूस्खलन एक साधारण घटना है, लेकिन केदारनाथ क्षेत्र में इतनी बड़ी आपदा पहली बार हुई है। इसी तरह से बादल का फटना, भूस्खलन, नदी की धारा बाधित होना, अल्पकालिक झील का निर्माण, झील का ध्वस्त होना एवं त्वरित बाढ़ का आना एवं अवसाद के अपवहित होने की घटना पर गंगोत्री हिमनदीय क्षेत्र में शोध अध्ययन किए गए हैं।
प्रकृति एवं मानव संस्कृति एक दूसरे के पर्याय हैं। हिमालय क्षेत्र उत्तराखंड में इसका विशेष महत्व है। पर्यावरण, हमारे चारों ओर का व्याप्त वातावरण मुख्यतः स्थलमण्डल, जलमण्डल एवं वायुमण्डल का ही योग है, जिसमें जीवन पाया जाता है। पृथ्वी पर जीवन इन तीनों मण्डलों के अन्तः सम्बन्ध एवं प्राकृतिक सन्तुलन से ही मिलकर बना है। पर्यावरण का भौतिक भाग जो मानव नियन्त्रण से परे है, वही प्रकृति है। विकास के लिए मानव द्वारा प्रकृति से निरन्तर छेड़खानी की जा रही है।
देवभूमि उत्तराखंड को प्रकृति ने भरपूर अनुपम उपहार दिए हैं, तभी तो हमारी जैव-विविधता सबसे निराली व अद्वितीय है। हिमाच्छादित हिमालय के शिखरों से लेकर बुग्यालों, अनूठे उच्च बांज व देवदार के वनों से लेकर साल, सागौन व शीशम वन के विभिन्न प्रकार के वन व पर्यावास उत्तराखंड में हैं। इनमें अनेकानेक पुष्पीय, औषधीय, सुगन्धित वानस्पतिक पादप पाए जाते हैं।
उत्तराखंड में लगभग 4048 प्रकार के एंजियोओस्पर्म और जिमनोस्पर्म की 1198 कुल और 192 परिवार की वनस्पति पाई जाती है। इनमें से 116 प्रजातियां तो केवल उत्तराखंड में ही मिलती हैं, अन्य स्थानों में नहीं। 161 प्रजातियों को तो संकटापन्न श्रेणी में रखा गया है। उत्तर-पश्चिम हिमालय में पाई जाने वाली आर्किड की कुल 223 प्रजातियों में से 150 उत्तराखंड में मिलती हैं।
हमारी समृद्ध जैव-विविधता इसी बात से जानी जा सकती है कि हमारे राज्य में 102 प्रजातियां दुग्धधारी जानवरों की, 650 प्रजातियां पक्षियों की, 124 तरह की मछलियां, 69 प्रकार के सरीसृप पाए जाते हैं। राष्ट्रीय प्राणी उद्यान, पशुविहार व संरक्षण केन्द्र हमारे प्रदेश की शान है।
इन सबका संरक्षण करने के लिए उत्तराखंड में 2 टाइगर रिज़र्व, एक शिवालिक हाथी रिज़र्व, एक बायोस्फियर रिज़र्व नंदा देवी, एक यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त विश्व धरोहर हैं। भारत का सबसे पहला नेशनल पार्क कॉर्बेट नेशनल पार्क उत्तराखंड में ही है, जिसकी स्थापना 8 अगस्त 1936 को हुई थी। अतः हमें अपनी प्राकृतिक विरासत पर गर्व है।
प्रकृति ने वन सम्पदा के सारे संसाधन हमें प्रदान किए हैं। प्रकृति ने वह मृदा जिसमें हम अन्न पैदा करते हैं, पानी जिसे हम पीते हैं, एवं हवा जिसमें हम सांस लेते हैं तथा जिनके अभाव में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं है, बिना किसी सीमा एवं शुल्क के उपलब्ध कराया है। इतने वैज्ञानिक विकास के पश्चात भी हम इन मूलभूत आवश्यकताओं के निर्माण में स्वयं को अक्षम पाते हैं।
उत्तराखंड में वन और जन का नाता बहुत सघन है। यूं तो जन पर्यावरण का ही एक अंग है, और इसका अस्तित्व प्रकृति के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिए मानव का उत्कर्ष, उसकी संस्कृति एवं सभ्यता प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर पल्लवित एवं पुष्पित हुई है। इनकी रक्षा का दायित्व भी मानव पर ही है।
मानव ने जब विकास की प्रक्रिया को प्रारम्भ किया होगा तो उसे यह भान भी नहीं रहा होगा कि इस अनियन्त्रित, असंतुलित एवं अनियोजित विकास से वह अपने ही विनाश का मार्ग बना रहा है किन्तु आज विश्व के तमाम देश चाहे तो विकासशील हों या विकसित, विगत वर्षों में आई हुई आपदाओं के बाद भली-भांति जान गए हैं कि प्रकृति कितनी बड़ी है और मानव उसके सामने कितना बौना है। विकास के साथ-साथ मानव ने प्राकृतिक सीमा पार कर दी है और अब वह प्रकृति की कीमत पर विकास कर रहा है। अब वह सारी सुख सम्पदा प्राप्त करना चाहता है जिसको किसी ने भी पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए, प्राकृतिक नियमों की अनदेखी करते हुए एवं प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से प्राप्त किया है। जिसके परिणामस्वरूप वरदान स्वरूप जीवन दायिनी प्रकृति अभिशाप बनती हुई दिखाई दे रही है। प्रकृति के सारे घटक एवं तत्व साम्यावस्था में हैं। मानवीय गतिविधियों ने विगत वर्षों में प्रकृति को असंतुलित किया है जो आपदाओं का कारण बन रहा है।
गंगोत्री हिमनद उत्तरकाशी जिले में स्थित है जहां से भगीरथी नदी निकलती है। सतोपन्थ एवं भगीरथ खरक हिमनद बद्रीनाथ के पास जोशीमठ जिले में स्थित है जहां से अलकनन्दा नदी निकलती है। भागीरथी एवं अलकनन्दा देवप्रयाग में मिलती है जहां से इसका नाम गंगा हो जाता है। चोराबारी एवं साथी हिमनद केदारनाथ के पास रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है जहां से मन्दाकिनी नदी निकलती है जो रूद्रप्रयाग के पास अलकनन्दा से मिलती है। केदारनाथ, गढ़वाल हिमालय में 3440 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। चोरावारी से निकलकर दक्षिण पश्चिम दिशा में लगभग 85 किमी. दूरी तय करने के बाद मन्दाकिनी, अलकनन्दा में मिल जाती है। सरस्वती, काशी गंगा एवं मदमहेश्वर गंगा बाईं तरफ से एवं सोनगंगा दाहिनी तरफ से मन्दाकिनी नदी में मिलती है। सरस्वती नदी की एक धारा मन्दिर से उत्तर में केदारनाथ के पीछे मन्दाकिनी नदी में मिलती है तथा एक धारा जो अब निष्क्रिय हो गयी है, केदारनाथ के सामने मन्दिर के दक्षिण दिशा में मिलती है।
15-17 जून 2013 को दक्षिणी मानसून एवं पश्चिमी विक्षोभ दोनों सक्रिय थे। इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण उत्तराखंड में बहुत तेज बरसात हुई जिसे बादल फटना कहा जाता है। जिसके कारण मन्दिर के पीछे उत्तर दिशा में स्थित गांधी सरोवर एवं मन्दिर से दक्षिण दिशा में स्थित वासुकी ताल जो कि 2-3 किमी दूर स्थित है पूरी जलप्लावित हो गए। तेज एवं लगातार हो रही वर्षा के कारण भूस्खलन होने लगा। भूस्खलन से आने वाले अवसाद ने मन्दाकिनी एवं उसकी उपशाखाओं की धारा को रोक दिया। धारा अवरूद्ध हो जाने के कारण अल्पकालिक झीलों का निर्माण हो गया। कुछ देर बाद स्थायी एवं अल्पकालिक झीलें ध्वस्त हो गयीं जिसके कारण त्वरित बाढ़ आ गयी। त्वरित आयी बाढ़ ने मन्दिर के पास बायें तट पर स्थित निष्क्रिय धारा को सक्रिय कर दिया एवं कई नई धाराओं को भी उत्पन्न कर दिया। क्योंकि हिमजलीय मैदान पर, नदी की निष्क्रिय धारा पर एवं मंदाकिनी नदी की घाटी में बस्तियों का निर्माण हो गया था, जिसके कारण नदी की घाटी, नदी के अधिकतम बहाव को धारण करने में सक्षम नहीं थी। अधिक ऊर्जा वाले त्वरित बाढ़ ने केदारनाथ को पूरी तरह से तबाह कर दिया। इस बाढ़ एवं भूस्खलन ने केदारनाथ के नीचे भी मन्दाकिनी घाटी में रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, सोनप्रयाग एवं फाटा में भी ऐसी बर्बादी की जैसा इस क्षेत्र में पहले कभी भी देखने को नहीं मिला। उत्तराखंड, मुख्य रूप से केदारनाथ की इस त्रासदी में कितने परिवार एवं लोग समाप्त हो गए, कितने लापता हो गए, कितने घर विहीन हो गए, कितने गांव, मुख्य मार्ग से कट गए, कितनी सड़कें एवं पगडंडियां बह गईं, कितने मकान, दुकानें एवं होटल बह गए एवं क्षतिग्रस्त हो गए यह अभी भी शत-प्रतिशत प्रामाणिकता के साथ नहीं पता है।
ऐसी घटना हिमालय या उत्तराखंड में नई नहीं है। पहाड़ी क्षेत्रों में बादल का फटना एवं भूस्खलन एक साधारण घटना है, लेकिन केदारनाथ क्षेत्र में इतनी बड़ी आपदा पहली बार हुई है। इसी तरह से बादल का फटना, भूस्खलन, नदी की धारा बाधित होना, अल्पकालिक झील का निर्माण, झील का ध्वस्त होना एवं त्वरित बाढ़ का आना एवं अवसाद के अपवहित होने की घटना पर गंगोत्री हिमनदीय क्षेत्र में शोध अध्ययन किए गए हैं।
इस प्रकार की दुर्घटनाओं से एक संदेश प्राप्त होता है कि प्राकृतिक घटनाएं मानव नियन्त्रण एवं पूर्वानुमान से परे हैं, परन्तु इतना अवश्य है कि बेहतर नियोजन एवं प्रबन्धन के द्वारा इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को न्यूनतम किया जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में विकास प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी करके किया गया। एवं आपदाग्रस्त्र क्षेत्रों में भी बस्तियां बसाई गईं। आज हम प्रकृति के साथ नहीं बल्कि उसकी कीमत पर विकास कर रहे हैं। यह समस्या सिर्फ किसी व्यक्ति, गांव, नगर, शहर या राज्य की समस्या नहीं है, अपितु यह पूरे जनमानस की समस्या है। सभी इसके निराकरण के लिए प्रयासरत हैं फिर भी यह समस्या दिनों-दिन विशालकाय होती जा रही है। आज मानव का अस्तित्व अपने ही क्रियाकलापों के कारण खतरे में दिखाई दे रहा है। अतः इसके समाधान के लिए जन-जन की सहभागिता की आवश्यकता है। तभी हमारी पृथ्वी हरी-भरी एवं साफ-सुथरी दिखाई देगी एवं हम पूरे विश्व को यह संदेश दे पायेंगे कि हम उस देश के रहने वाले है जहां पर प्रकृति को संरक्षित करने के लिए पूरा जनमानस कृत संकल्प है।
1974 में ग्राम रेणी जनपद चमोली की महिलाओं द्वारा पेड़ों के संरक्षण हेतु गौरा देवी के नेतृत्व में किया गया चिपको आन्दोलन विश्व विख्यात है। इन्ही संकल्पों के क्रम में वर्ष 2019 से पर्यावरण गतिविधि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा उत्तराखंड में अनेकानेक कार्य प्रारंभ किए गए हैं, जिनमें पानी, पेड़ और पॉलीथिन को केन्द्र में रखा गया है। वृक्षारोपण अभियान के अन्तर्गत सघन वन, हरेला तथा वन महोत्सव के माध्यम से, जल संरक्षण सामाजिक जागरूकता से और पॉलीथिन के कम से कम प्रसार हेतु ’ईको ब्रिक निर्माण’ करके पर्यावरण संरक्षण किया जा रहा है। इन सभी आयामों को एक साथ लेकर ’हरित गृह निर्माण’ नामक पर्यावरण संरक्षण योजना में ऐसे कार्य प्रारंभ किए गए हैं, जिसके आशातीत परिणाम मिले हैं। जागृति हेतु विद्यार्थियों की पर्यावरण संरक्षण प्रतियोगिता, समाचार पत्र संपादकीय लेखन, चित्रकला प्रतियोगिता आदि आयोजित करके युवाओं पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया है।
प्रकृति हमें इतने जीवनदायिनी तत्व प्रदान कर रही है, अतः हमें उसकी रक्षा करनी है एवं प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऐसा विकास करना है जिसमें पर्यावरण कुप्रभावित न हो। प्रकृति भी संरक्षित रहे एवं प्राकृतिक संसाधन भी आने वाले पीढ़ी के लिए शेष रहें। हमें पर्यावरण रक्षक के रूप में अपनी भूमिका को सक्रिय होकर निभाने हेतु तत्पर रहना होगा, तभी प्रकृति को इन ’पांच ज’ यथा जल, जमीन, जंगल, जन और जन्तु में संतुलन स्थापित करके इन प्राकृतिक आपदाओं का सामना सक्षम तरह से करने में निपुण होना है तथा प्रकृति और संस्कृति को समृद्ध बनाना होगा। इससे पर्यावरण व विकास में तालमेल भी बना रहेगा।