शब्दों के जादूगर-साहिर लुधियानवी

“ए क्या बोलती तू?
ए क्या मैं बोलूं?
सुन, सुना,
आती क्या खण्डाला?”

इस तरह के गद्य रूप के गीतों को सुनकर याद आती है पुराने मधुर संगीत की और उन्हें लिखने वाले गीतकारों की। हमारी जैसी पूरी एक पीढ़ी का सांस्कृतिक पोषण इन शायरों की शायरी ने ही किया है। भले ही फिल्मों के लिए लिखा गया हो, परंतु उसमें काव्य भरपूर हुआ करता था।

“मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ न मिला”

ये पंक्तियां हैं शायर साहिर लुधियानवी की। ‘साहिर’! फिल्मी दुनिया का चमचमाता तेजस्वी सितारा। परंतु तारे के नसीब में काली सियाही जैसी रात के अलावा और क्या होता है? कला का वरदान और व्यावहारिक सफलता मिलने के बाद भी साहिर का जीवन स्याह ही रहा। परंतु संसार से मिले क़डवे अनुभवों ने उनकी शायरी में मिठास पैदा कर दी।

अब्दुल हयी ‘साहिर’ का जन्म 8 मार्च 1921 को लुधियाना के जागीरदार घराने में हुआ। जागीरदार अर्थात साहिर के पिता वे सारे ‘शौक’ रखते थे जो सामान्यत: सम्पत्ति के कारण होते हैं। इसी वजह से साहिर की मां उनसे अलग रहने लगी थीं। साहिर की उम्र उस समय लगभग छ: महीने थी। वहीं से उनके कष्टप्रद जीवन की शुरुआत हुई। विद्यालयीन और कॉलेज की शिक्षा लुधियाना में ही हुई। विद्यार्थियों के आंदोलन में शामिल होने के कारण उन्हें कॉलेज भी छोड़ना पड़ा। पैसा खत्म हो चुके थे। मां की जिम्मेदारी भी उन्हीं के कंधों पर थी। उस समय साहिर को जो भी काम मिला, उन्होंने किया। जीवन-मृत्यु का संघर्ष था। इन सभी क़डवे अनुभवों का मिश्रण सियाही में मिल गया। उनका पहला शायरी संग्रह ‘तल्खियां’ लाहौर में प्रकाशित हुआ। वह साल था सन 1943 और साहिर की उम्र थी बाईस। उन्होंने लिखा-

“दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया वही लौटा रहा हूं मैं।”

मतलब यह कि क़डवे अनुभवों और दुखद घटनाओं के द्वारा दुनिया से जो मिला मैं वही (शब्दों में पिरोकर) लौटा रहा हूं।
विभाजन हुआ उस समय साहिर मुंबई में थे। बाद में दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘शाहराह’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन भी वे करते थे। 1949 से साहिर का मुंबई की फिल्मी दुनिया से सम्पर्क हुआ और आखिर तक रहा। उन्होंने पहली बार गुरुदत्त की ‘बाजी’ फिल्म के लिए गीत लिखे जो बहुत लोकप्रिय हुए। अगर यह कहा जाये कि दर्जेदार गीतों का युग तभी से शुरू हुआ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज भी वे गीत हमारे मन से नहीं जाते क्योंकि उनमें संवेदनशील हृदय के स्पंदन होते हैं।

“तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि हम मर जायें
वही आंसू, वही आहें, वही गम है जिधर जायें।”

भगवान तेरी इस दुनिया में जीने से तो मरना ज्यादा अच्छा है क्योंकि यहां चारों तरफ दुख ही दुख है।

“कोई तो ऐसा घर होता, जहां से प्यार मिल जाता
वही बेगाने चेहरे हैं, जहां पहुंचे जिधर जायें”

काश! कोई तो ऐसी जगह होती जहां मुझे प्यार मिलता, मैं जहां भी जाता तो सभी जगह अलिप्त अनजान चेहरे दिखायी देते हैं।

साहिर को कितने भी क़डवे अनुभव मिले हों परंतु उन्होंने जिंदगी से जो मिला उसे स्वीकार किया।

“मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फिक्र को धुएं में उ़डाता चला गया।
गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मकाम पे लाता चला गया।”

जिंदगी से कदम मिलाकर मैंने अभी तक चला आया हूं। सारी चिंताओं को मैंने सिगरेट के धुंए के साथ हवा में उ़डा दिया है। मेरा मन अब उस स्थिति में पहुंच गया है जहां सुख और दुख में फर्क दिखायी नहीं देता।

“बर्बादियों का सोग मनाना फिजूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया।”

जिंदगी अगर बर्बाद भी हो गयी है तो भी उसका दुख मनाने से क्या फायदा? मैंने उसे भी उत्साह से त्यौहार के रूप में मनाना शुरू कर दिया। ये तो हो ही नहीं सकता था कि परिस्थितियां साहिर के कोमल कवि मन की देखभाल करतीं। उन्होंने प्रेम की आराधना भी करके देख ली परंतु वहां भी उन्हें सुख के क्षण नसीब नहीं हुए। कितनी भी सावधानी से उन्होंने कदम उठाये, परंतु उन्हें कांटों ने जखम दिये ही।

“प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है कि नहीं?”

प्रेम करना या न करना मेरे बस में नहीं है, परंतु फिर भी मैं पूछता हूं कि मैं तुमसे प्यार करूं या न करूं। तुम्हारे अंदर की आवाज क्या कहती है? तुम्हारी आंखें क्या कहती हैं? क्या मेरे अंधेरे जीवन की काली रात में कभी कोई आशा की किरण दिखायी देगी?

अगर उनकी प्रेमिका ने उनसे मिलना मंजूर कर भी लिया तो भी साहिर की एक शर्त है। उनकी प्रेमिका चाहती है कि प्रेम का चिरंतन प्रतीक ताजमहल उनके भी प्रेम का गवाह बने और साहिर इस बात के लिए मना कर देते हैं।

“ताज तेरे लिए इक मजहरे-उल्फत ही सही
तुझको इस वदी-ए-रंगी से अकीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज्म-ए-शाही में गरीबों का गुजारा क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए- शाही के निशां
उसपे उल्फत भरी रूहों का क्या मानी”

ताज तुम्हारे लिए प्रेम का द्योतक हो सकता है, परंतु फिर भी हम किसी और जगह मिला करेंगे।

“अनगिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक न थे जज्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वे भी अपनी ही तरह मुफलिस थे।”

दुनिया में अनेक लोगों ने प्रेम किया है। कौन कहता है कि उनका प्यार सच्चा नहीं था। उनके पास प्यार का विज्ञापन करने का साधन नहीं था क्योंकि वे भी मेरी तुम्हारी तरह ही निर्धन और गरीब थे।

“ये चमनजार ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम गरीबों की मोहब्बत का उ़डाया है मजाक
मेरी महबूब! कहीं और मिला कर मुझसे”

यमुना के तीर पर यह शाही उद्यान, यह ताजमहल, ये नक्काशीदार दीवारें। ये सब कितना भव्य कितना वैभवशाली है। पर मुझे लगता है कि एक सम्राट ने सम्पत्ति का सहारा लेकर हम गरीबों के प्यार की खिल्ली उ़डाई है। मेरी महबूब हम किसी और जगह मिला करेंगे।

‘ताजमहल’ कविता ने धूम मचा दी और साहिर सारे कविता प्रेमियों के गले का ताईत बन गये। ताजमहल की ओर देखने का सर्वसामान्य द़ृष्टिकोण आश्चर्य और सुंदरता के सामने शीश झुकाने वाला था। उसे बदलने की चेष्टा करने वाले और उसका दूसरा पहलू सामने लाने वाले साहिर पहले शायर थे। साहिर के बाद भी कई शायरों ने अपनी शायरी में ऐसे विचार व्यक्त किये, परंतु साहिर के ‘ताजमहल’ तक कोई नहीं पहुंच सका। इस तरह कविता प्रेमियों के लिए ‘ताजमहल’ साहिर का स्मारक बन गया है।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि साहिर को ताजमहल बनाने वाले कारीगर याद आये। वे हमेशा ही कम्युनिस्ट आंदोलनों से जु़डे रहे। मजदूर, गरीब, लाचार जनता के दुख से व्याकुल होकर ही उन्होंने लिखा-

“आज से ऐ मजदूर किसानों! मेरे राग तुम्हारे हैं
फाकाकश इन्सानों मेरे जोग बिहाग तुम्हारे हैं
मेरा फन मेरी, मेरी उम्मीदें आज से तुमको अर्पन हैं
आज से मेरे गीत तुम्हारे दुख और सुख का दर्पन हैं”

मेरी शायरी, मेरी कला अब तुम मजदूर-किसानों के लिए, आधा पेट भोजन करने वालों के लिए होगी। मेरी शायरी अब तुम्हारे सुख दुख का आईना होगी। साहिर के नसीब में दुख ही दुख थे, परंतु इस वजह से उनकी शायरी में चमक आ गयी। दुनिया को उनकी शायरी की दाद देनी ही प़डी। उन्हें ‘पद्मश्री’ से नवाजा गया। उनकी किताब ‘आओ, कि कोई ख्वाब बुनें’ को सोवियतलैण्ड नेहरू अवॉर्ड, उर्दू एकेडमी अवॉर्ड और महाराष्ट्र स्टेट अवॉर्ड भी मिला। साहिर की किताबों के अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुए। स्त्री की सामाजिक अवस्था पर व्यक्त किये गए विचार उनके कोमल और विचारशील हृदय की गवाही देते हैं-

“लोग औरत को फकत जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उसमें, ये कहां सोचते हैं?”
और एक गीत में साहिर लिखते हैं-
“औरत ने जनम दिया मर्दों को; मर्दों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा कुचला, मसला; जब जी चाहा दुत्कार दिया”
और गीत का अंतिम अंतरा है-
“औरत संसार की किस्मत है फिर भी तकदीर की होती है
अवतार पयम्बर जनती है फिर भी शैतान की बेटी है
ये वो बदकिस्मत मां है जो बेटों की सेज पर लेटी है”

पुरुषों ने औरतों को क्या दिया? केवल उपेक्षा। उसने संतों को जन्म दिया, परंतु उसके साथ ऐसा बर्ताव किया गया मानो वह खुद किसी शैतान की बेटी है। पुरुषों ने उसे केवल उपभोग की वस्तु बना दिया।

प्रेम से सदैव वंचित रहे साहिर उम्र भर अकेले ही रहे। अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’ नामक आत्मकथा में साहिर और अमृता के गहरे प्रेम की कहानी है। परंतु उस समय के सामाजिक बंधनों के कारण यह प्रेम सभी अर्थों में असफल रहा। अत: साहिर लिखते हैं-

“तंग आ गये हैं कश्मकश-ए-जिंदगी से हम
ठुकरा न दें जहां को कहीं बेदिली से हम”

इस जीवन और संकटों से अब मन ऊब गया है। लगता है इस संसार को अब ठोकर मार दें। वह दिन भी ब़डी जल्दी ही आ गया। हालांकि मरने की उम्र नहीं थी। साहिर केवल उनसठ साल के थे। उन्होंने लिखा-

“मैं शायर बदनाम, मैं चला, मैं चला
महफिल से नाकाम मैं चला, मैं चला

मेरे घर से तुमको कुछ सामान मिलेगा
दीवाने शायर का इक दीवान मिलेगा
और इक चीज मिलेगी, टूटा खाली जाम,

शोलों पे चलना था, कांटों पे सोना था
और अभी जी भर के किस्मत पे रोना था
जाने ऐसे कितने, बाकी छो़ड के काम”

हमारा नसीब अच्छा था कि साहिर अपना ‘दीवान’, अपनी शायरी छो़ड गये और उर्दू साहित्य को और अधिक समृद्ध कर गये।
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