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भारतीय नजरिया ही संविधान की मौलिकता

भारतीय नजरिया ही संविधान की मौलिकता

by अमोल पेडणेकर
in आत्मनिर्भर भारत विशेषांक २०२०, ट्रेंडींग, देश-विदेश, मीडिया, युवा, राजनीति, विशेष, विषय, संघ, साक्षात्कार, सामाजिक, साहित्य
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प्रसिद्ध संघ विचारक और लेखक श्री रमेश पतंगे ने वेब पर ‘हिंदी विवेक’ की आत्मनिर्भर भारत भेंटवार्ता शृंखला के दौरान जो सबसे मार्के की बात कही वह यह कि देश के संविधान को भारतीय नजरिये से देखना चाहिए, न कि पश्चिम के नजरिये से। तभी हमारे संविधान की मौलिकता का पता चल जाएगा। हमारा संविधान समानता और न्याय की बात करता है। इस पर ठीक से अमल हो तो भारत आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से बढ़ेगा। प्रस्तुत है इस प्रदीर्घ मुलाकात के कुछ महत्वपूर्ण सम्पादित अंशः-
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आप राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर चिंतनशील लेख लिखने के लिए जाने जाते हैं; लेकिन आपने अचानक संविधान पर लिखना शुरु कर दिया। आखिर इसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली?

संविधान पर लिखने की प्रेरणा की दो वजहें हैं। पहली वजह यह है कि केंद्र में 2014 में मोदी भाई का शासन आया। इसका विरोध करने के लिए राजनीति में अपनी पूरी जिंदगी बिताने वाले विपक्ष के लोगों और बुद्धिजीवियों ने काफी सोच-विचार करने के बाद एक विषय खोज निकाला। उनका यह विषय था कि यह भाजपा की सरकार याने आरएसएस (रा.स्व.संघ) की सरकार है और आरएसएस वालों का एक छिपा एजेंडा है। यह छिपा एजेंडा है संविधान को बदलना, बाबासाहब आंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान को बदलकर मनुवादी संविधान लाना और इसीलिए इससे सावधान रहना चाहिए। इसके लिए ये लोग कोई सबूत भी नहीं देते। क्योंकि कुछ भी आरोप लगाने भर से उनकी राजनीति चलती है।

मेरे जैसे कार्यकर्ता के मन में तब यह बात आई कि, मेरी सारी जिंदगी संघ में बीती, मैं संघ की बैठकों में जाता रहता हूं। वहां हर तरह की चर्चाएं होती हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि कई विषयों पर चर्चाएं होती हैं, लेकिन संविधान को लेकर कभी भी कोई चर्चा नहीं हुई। बाद में यह बात मन में घर कर गई कि जिसे बदलने का आरोप लगा रहे हैं, वह है क्या इसे जानें। आखिर इसकी प्रक्रिया क्या है, उसका चिंतन क्या है इसे समझना चाहिए। इसके लिए मैंने अध्ययन प्रारंभ कर दिया। वैसे तो मैं सविधान को जानता था; क्योंकि मैने एमए की पढ़ाई राजनीति शास्त्र से ही की थी। वह 100 नंबर का पर्चा हुआ करता था, जिसमें से मुझे अच्छे नंबर मिले हैं। लेकिन, उस समय मुझे कोई पूछता कि मुझे संविधान कितना समझ में आया तो मैं यही उत्तर देता कि मैने सिर्फ इतना समझा कि संविधान के बारे में क्या प्रश्न पूछे जाने वाले हैं और क्या उत्तर देना है और वह क्या है यह सब मैंने रट्टा मारकर याद कर लिया था।

यह अपनी शिक्षा पद्धति है जो ज्ञान नहीं देती बल्कि रट्टा मारकर याद करवा देती है। लेकिन जब संविधान को लेकर जिज्ञासा पैदा हुई तो सबसे पहले मन में यह सवाल आया कि संविधान आखिर है क्या? संविधान की संकल्पना आधुनिक काल में कहां विकसित हुई और वह समाज का संगठन कैसे करता है? यह सब चिंतन का विषय हो गया और जब आप एक विषय की ओर जाते हैं तो दस और सवाल खड़े होते हैं। जब दस सवाल के उत्तर ढूंढ़ो तो 25 और सवाल खड़े होते हैं। मैने संविधान को लेकर करीब 30 हजार की पुस्तकें खरीद ली हैं और बहुत पढ़ा है जिसके बाद मुझे लगा कि जो मैंने पढ़ा है उसे साधारण शब्दों में दूसरों तक पहुंचाना चाहिए। क्योंकि संघ के जो कार्यकर्ता होते हैं वे अलग-अलग शहरों से आते हैं और उन्हें संवैधानिक भाषा की पुस्तक पढ़ने में कोई रुचि नहीं होती है। इसलिए संविधान पर ऐसी पुस्तक लिखनी चाहिए जो सभी को समझ आए। जिसके बाद मैंने पुस्तक लिखी, इस किताब ने रिकार्ड किया; क्योंकि 3 से 4 महीने में इसकी 12 हजार कॉपियां बिक चुकी हैं। ‘हिंदी विवेक’ ने उसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया। किसी विषय को लेकर पहले जिज्ञासा उत्पन्न होनी चाहिए। किसी विषय को गहराई से समझना है तो जैसे हमारा मंत्र है ‘अथा तो ज्ञान जिज्ञासा’ यानी पहले जिज्ञासा उत्पन्न होनी चाहिए। उसका प्रश्न क्या है और उत्तर क्या होगा, यह बाद की बात है। उसमें छिपा ज्ञान क्या है, यह जानना जरूरी है और यह मैं करता रहता हूं।

आपके मन में भारतीय संविधान के प्रति जिज्ञासा जागरूक हुई और आपने दो किताबें लिखी ’हम और हमारा संविधान’ और ’हमारा मौलिक संविधान’। इन दोनों की विषयवस्तु में क्या अंतर है?

इन दोनों की विषयवस्तु में अंतर है। पहली किताब किसी भी आम आदमी के लिए है। जिसने संविधान शब्द सुना है, अखबार में यहां वहां जो चर्चा चलती है, संविधान बचाओ के मोर्चे निकलते हैं, उनमें जो उटपटांग मूर्खतापूर्ण भाषण होते हैं, उनसे जो प्रश्न मन में निर्माण होते हैं, इसे आम आदमी इस किताब सं आसानी से समझ सकता है और संविधान की गहराई को महसूस कर सकता है। किताब में 14 अध्याय हैं और एक एक पहलू को सात से आठ पन्नों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। यह संविधान की ऐसी छोटी सी खुराक देने का प्रयास है जैसे 10 या 12 साल के बालक को उसकी तबियत सुधारने के लिए अल्पमात्रा में खुराक दी जाती है। दूसरी किताब में मैं थोड़ा गहराई में गया हूं। पहले तो अपने संविधान की संकल्पना पर सोचा। संविधान की उद्देशिका याने प्रियंबल से यह स्पष्ट होता है। अमेरिका के संविधान की उद्देशिका है, आयरलैंड के संविधान की उद्देशिका है, आस्ट्रेलिया के संविधान की उद्देशिका है। हमारे संविधान की उद्देशिका में पहला वाक्य है ‘वी द पीपल ऑफ इंडिया’ याने हम भारत के लोग। इस तरह की पहली उद्देशिका बनी अमेरिका की और उसके शब्द हैं ‘वी द पीपल ऑफ यूनाटेड स्टेट ऑफ अमेरिका’ तो वहां से यह हमने लिया है। अमेरिकी संविधान बनाने वाले अमेरिका में सिर्फ 55 लोग थे, जबकि भारत में 288 लोग थे। हमारे यहां संविधान में ईश्वर को संबोधित नहीं किया गया है लेकिन आयरलैंड के संविधान में ‘होली बायबल’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। आस्ट्रेलिया के संविधान में भी ईश्वर का जिक्र किया गया है। मतलब जहां का जैसा मानस होता है। अगर समाज एक धर्म को मानने वाला होता है तो संविधान में उसका जिक्र जरुर होगा। इस प्रकार से ज्ञान का जो पहलू उसमें आता है वह है ‘रूल ऑफ लॉ’ यानी कानून का राज। उदाहरण के तौर पर अगर आप को कोई अच्छा वकील मिलता है तो उससे आप पूछिए कि मुझे 10 मिनट में कानून का राज क्या होता है वह बताओ, तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वह आपको नहीं समझा पाएगा। वह कहेगा कि यह क्रिमिनल लॉज, क्या है वह मुझे मालूम है सिविल लॉज क्या है, वह भी मुझे मालूम है अगर आप की कोई समस्या है तो वह आप मुझे बताओ। कुल मिलाकर कानून की जानकारी के लिए एक बहुत ही गहरे अध्यन की जरूरत होती है। जैसे एक उपन्यास है या कथा की पुस्तक है, जिसमें शब्दों के भंडार से एक कथा तैयार की गई है। शब्दों का ऐसा ही भंडार संविधान में भी है लेकिन संविधान को हम ऐसा कहते हैं कि वह एक जैविक डाक्यूमेंट्स यानी जीवमान है। लेकिन अब सवाल यह भी उठता है कि एक पुस्तक जीवमान कैसे हो सकती है? यह जीवनाम ऐसे होती है कि इसमें काल के अनुसार परिवर्तन होता रहता है।

भारतीय संविधान में करीब 120 बार संशोधन हो चुका है, जिस पर लोग कहते हैं कि कैसा संविधान है जिसे 68 साल में 120 बार बदला जा चुका है। लेकिन वे लोग यह नहीं जानते कि संविधान को काल के अनुसार बदलना ही पड़ता है।

आपने एक बात अच्छी कही कि अध्ययन करते समय संविधान के संदर्भ में बहुत सी बातें आपको समझ आईं; लेकिन अध्ययन करने से पहले संविधान के संदर्भ में आपके मन में कौन से सवाल पैदा हुए थे और उन सवालों के जवाब आपने किस प्रकार से ढूंढ निकाले?

वैसे सवाल तो असंख्य पैदा होते थे- जैसे संविधान का मतलब क्या होता है, संविधान की कोई किताब पढ़ी तो उसमें उसकी व्याख्या होती है लेकिन इस व्याख्या से कुछ समझ में नहीं आता है। वह रट्टा मारकर परीक्षा में उत्तर देने के लिए ठीक होता है। लेकिन उसका मतलब क्या है उसके लिए बहुत चिंतन करना पड़ता है। मन में दूसरा सवाल था कि संविधान को लिखित क्यों करना पड़ता है और लिखित करने का जो काम है यह कैसे होता है और कौन लोग करते हैं? तीसरा सवाल था कि क्या इसका कोई तत्वज्ञान भी होता है? और इस तत्वज्ञान का भी क्या कोई उत्तर देना पड़ता है? अगर लिखने बैठे तो सैकड़ों प्रश्न खड़े हो जाते हैं। फिर प्रश्न के ऊपर और नीचे भी बहुत से प्रश्न होते हैं और फिर इन सभी के उत्तर ढूंढ़ने पड़ते हैं।

संविधान का तत्वज्ञान किस प्रकार से होता है और संविधान का तत्वज्ञान संविधान के अनुच्छेदों में किस प्रकार से प्रकट होता है?

भारत के संविधान या किसी अन्य देश के संविधान को बगल में रखकर हम सिर्फ संविधान पर बात करते हैं। किसी भी प्रजातांत्रिक देश का संविधान हो तो उसका एक बुनियादी अवधारणा होती है जिसके उत्तर वह खुद देता है। हर देश की परिस्थिति, संस्कृति, विचारधारा, लोकमानस सब भिन्न भिन्न होता है। कोई भी एक दूसरे की नकल नहीं कर सकता है। अगर नकल करेंगे तो फंस जाएंगे। संविधान का पहला प्रश्न यह होता है कि जिस राज्य के लिए यह संविधान बनने जा रहा है वह राज्य क्या है? उसकी भौगोलिक सीमाएं क्या हैं? राज्य के लोगों के बारे में संविधान को कुछ बातें निश्चित करनी पड़ती हैं। यत तय करना होता है कि ये लोग जो इस राज्य में रहते हैं उन पर कौन सी पद्धति से शासन करना चाहिए? समाज को शासन विहीन समाज एक आदर्श अवस्था मानी गई है। समाज में शासन जरूरी है वरना सुरक्षित समाज का निर्माण नहीं हो सकेगा और सबल लोग दुर्बल को खत्म कर देंगे और समाज की जो बुरी अवस्था होगी उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए शासन होना जरूरी है और लोगों के लिए वह सुखकारक होना चाहिए। सुखकारक समाज की पद्धति क्या होनी चाहिए? जैसे अमेरिका ने तय किया कि हमारा शासन राष्ट्रपति शासन पद्धति का होना चाहिए और राष्ट्रपति कैसे चुना जाएगा, वह अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाएगा; क्योंकि अमेरिका को डेमोक्रेसी स्वीकार नहीं थी। उनका मानना था कि लोगों को इतनी अकल नहीं होती कि कौन अच्छा है, कौन बुरा है, जनता किसी का भी भाषण सुनकर बहक सकती है, ऐसा अमेरिका के संविधान बनाने वालों को लगा। इसलिए उन्होंने यह नियम बना दिया कि पहले आप प्रतिनिधि चुनो और फिर ये प्रतिनिधि राष्ट्रपति का चुनाव करेंगे। इस प्रक्रिया का निर्माण इसलिए किया गया ताकि वहां एक अच्छा इंसान जाए।

इंग्लैंड का डेमोक्रेटिक संविधान है। वहां लोग प्रतिनिधि चुनते हैं। वे बहुमत प्राप्त दल का नेता प्रधानमंत्री बनता है। संविधान को एक और निर्णय करना पड़ता है कि संप्रभुता किसके पास होगी। भारत के संविधान ने संप्रभुता का अधिकार भारत की जनता को दिया है। भारत की जनता जैसा सोचेगी वैसा ही देश का प्रधानमंत्री होगा। लेकिन यह बात सब लोगों के समझ में नहीं आती है। भारत की जनता को यह समझना होगा कि वही देश की निर्णायक है। वह जैसा सोचेगी वैसा ही देश खड़ा होगा। हमारे यहां मूलभूत अधिकारों को लेकर बहुत गलतफहमियां होती हैं। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि मुझे मूलभूत अधिकार मिला हुआ है तो मैं कुछ भी कर सकता हूं। कुछ भी लिखना, बोलना, भाषण देना और बकवास करना यह किसी का भी अधिकार नहीं है। मूलभूत अधिकारों का मतलब यह है कि राज्य किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता, किसी को जेल में नहीं डाल सकता और किसी की संपत्ति जब्त नहीं कर सकता है।

प्रजातंत्र में शासन पद्धति उस देश के अनुसार चलती रहती है जैसे इग्लैंड का स्वभाव यह कि वहां की जनता यह चाहती है कि उनके यहां एक राजा हो; क्योंकि ‘राजा है तो इंग्लैण्ड है’ यह पद्धति चलती है। राजा कैसा होना चाहिए, जो गलती नहीं करें। जनता गलती करें तो चल सकता है लेकिन राजा को गलती नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वह पूरे देश का आदर्श होता है। इसलिए राजा को बड़े और कड़े नियमों का पालन करना होता है। वह कैथोलिक महिला के साथ विवाह नहीं कर सकता। वह तलाकशुदा स्त्री के साथ ही विवाह नहीं कर सकता। इसलिए यह प्रथा बनाई गई है कि राजा एक आदर्शवादी होना चाहिए जिससे समाज में एक अच्छा संदेश जा सके। वैसे ही अमेरिका और भारत का स्वभाव भिन्न है। यहां किसी को राजा नहीं चाहिए। भारत ने संसदीय प्रणाली तो इंग्लैड से ली, लेकिन राष्ट्रपति प्रणाली अमेरिका से ली है। हमारा राष्ट्रपति भी अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। भारत ने इंग्लैण्ड और अमेरिका की संसदीय पद्धति को जोड़ दिया और एक तीसरी पद्धति का इस्तेमाल शुरु कर दिया। भारत के संविधान निर्माताओं ने यह काम बहुत ही सुंदर ढंग से किया है।

संविधान निर्माण में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के योगदान को आप किस दृष्टिकोण से देखते हैं?

बाबासाहब का पूरा जीवन एक बहुत ही संघर्षमय जीवन रहा है और संघर्ष जिसे करना पड़ता है, जैसे कि सामाजिक और राजनैतिक संघर्ष, काल के अनुसार उसकी भूमिकाएं बदलती रहती हैं। लेकिन कुछ मौलिक बातें हमेशा कायम रहती हैं और उसे कभी नहीं छोड़ते। सैद्धांतिक राजनीति बहुत ही कम लोग कर पाते हैं, लेकिन बाबासाहब आंबेडकर ने यह किया है। बाबासाहब जब प्रारूप समिति के अध्यक्ष बने तो उन्होंने कहा कि मेरा संविधान सभा में आने का मकसद इतना ही था कि अनुसूचित जातियों को भी नई व्यवस्था में कुछ ना कुछ मिलना चाहिए और उनके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए लेकिन जब मुझे प्रारूप समिति में लिया गया और फिर उसका अध्यक्ष बनाया गया तो मुझे आश्चर्य हुआ। भारतीय संविधान के लिए जिन भी लोगों ने अपना योगदान दिया उनके चरणों में नतमस्तक होने का दिल करता है। बाबासाहब के पास जो संविधान का ज्ञान था उसका प्रकाश भारतीय संविधान में देखने को मिलता है। इस संविधान को उन्होंने एक चेहरा दिया है कि राज्य को अगर एक राष्ट्र बनना है तो सबसे पहले उस समाज से कुरीतियों को खत्म करना होगा।

भारत एक गणतंत्र देश है और संविधान गणतंत्र देश की आधारशिला है। लेकिन संविधान को लेकर भारत में मतभिन्नता बहुत दिखाई देती है। आखिर इसकी वजह क्या है? भारतीय नागरिकों को संविधान साक्षर किस प्रकार से बनाया जा सकता है?

अपने देश में हर चीज पर राजनीति करना राजनीतिक पार्टियों का स्वभाव बन चुका है। इसलिए कोई भी विषय हो उस पर ये लोग राजनीति करते हैं। कुछ ऐसे भी विषय होने चाहिए जिस पर राजनीति नहीं करनी चाहिए जैसे संविधान। सभी विषयों पर राजनीति होती है- यहां तक की कोविड-19 पर भी जमकर राजनीति हुई है। भारत की राजनीतिक पार्टियों को यह संकल्प लेना चाहिए कि भारत के संविधान पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक पार्टियां लोगों को भड़काती हैं और गलत संदेश फैलाती हैं। कुछ लोग यह कहते हैं कि बाबासाहब ने हमें संविधान के तहत आरक्षण दिया है इसलिए यह संविधान पवित्र है; जबकि बाबासाहब ने जो कुछ लिखा है उसमें आरक्षण सिर्फ एक बिंदु है जबकि नेता लोग आरक्षण के अलावा और कुछ तो बताते नहीं हैं। इसलिए ही संविधान साक्षर होने की बहुत आवश्यकता है। तत्वज्ञान रुपी संविधान को समझाना चाहिए और संविधान का अध्ययन निरंतर चलते रहना चाहिए।

संविधान राजनीतिक तत्वज्ञान का विषय है या सामाजिक तत्तवज्ञान का?

भारतीय संविधान और अमेरिका का संविधान या आस्ट्रेलिया या कनाडा का संविधान अगर इसकी तुलना करें तो इसमें और हममें यह अंतर है कि बाहरी देशों के संविधान राजनीतिक संविधान हैं जबकि भारत का संविधान ऐसा नहीं है। भारत में तमाम प्रकार की भिन्नता है। सामाजिक भिन्नता, छुआछूत की भिन्नता, वनों में रहने वाले लोग हैं, अलग अलग धर्मों के लोग हैं, इतनी विविधता दुनिया के किसी और देश में देखने को नहीं मिलती है। दुनिया के बाकी देशों में ज्यादातर एक ही धर्म के लोग रहते हैं जैसे आस्ट्रेलिया व अमेरिका में कैथलिक लोग ज्यादा हैं। भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। इसलिए उनके जैसा संविधान बनाकर भारत का काम नहीं चलेगा। संविधान तो राजनीति को ही परिभाषित करने वाला है लेकिन वह सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। वह समाज में भी परिवतर्न लाता है, जाति और धर्म की भी रक्षा करता है, सभी के लिए समान नियम और कानून बनाता है और सभी के लिए फौजदारी व दीवानी कानून समान रखता है, लेकिन ऐसा संविधान दुनिया के बाकी देशों में नहीं देखने को मिलता है क्योंकि वहां के समाज को इसकी आवश्यकता नहीं है। भारत का संविधान किसी और देश की नकल है यह कहना गलत है।

भारतीय संविधान की मौलिकता किन शब्दों में स्पष्ट करेंगे?

हमारे संविधान की मौलिकता को अगर स्पष्ट करना है तो वह भारतीय चिंतन, भारतीय विचार, भारतीय आदर्श, संविधान की नींव पर खड़ा है। संविधान का अर्थ निकालते समय और इसके शब्दों का अर्थ लगाते समय अगर हम पश्चिम की तरफ देखते रहेंगे तो फिर संविधान का अर्थ भी पश्चिमी भाषा लगेगी। इसे नम्रता से सभी का सम्मान करते हुए मुझे यह कहना पड़ेगा कि हमारे सुप्रीम कोर्ट के बहुत से जज भी इसी में फंस जाते हैं कि लिबर्टी का मतलब क्या है? लिबर्टी का भारतीय भी अर्थ है जिसे उपनिषद में ढूंढ़ना चाहिए, भगवान बुद्ध के तत्वज्ञान में खोजना चाहिए। इक्वैलिटी का अर्थ होता है समता। लोगों को यह बताना चाहिए कि मनुष्य जीवन में समता प्राप्त करना असंभव है। हर किसी का रंग अलग है, खानपान अलग है, व्यक्तित्व अलग है। फिर समता का होना असंभव है। हां, समाज में समानता हो सकती है। समाज में सभी कानून के लिए समान होते हैं। सभी को अवसर की समानता होनी चाहिए, संघर्ष करने का रास्ता समान होना चाहिए, संविधान ने जो मौलिकता दी है सभी को उसका पालन करना चाहिए और भारतीय संविधान को भारतीयता की नजर से देखना चाहिए।

आत्मनिर्भर भारत बनाने की विचार प्रक्रिया सभी भारतीयों के मन में निर्माण हुई है और इस मार्ग पर सभी भारतीय चल पड़े हैं। इस प्रक्रिया में भारतीय संविधान का किस तरह से योगदान हो सकता है?

आत्मनिर्भर भारत के लिए संविधान का योगदान बहुत हो सकता है। संविधान के योगदान को समझने के लिए इतिहास को समझना होगा। आत्मनिर्भर भारत कोई नया शब्द नहीं है लेकिन आजकल यह चर्चा में बना हुआ है। इससे पहले महात्मा गांधी ने भी आत्मनिर्भर शब्द का इस्तेमाल किया था। हिंदवी स्वराज में भी इसका जिक्र हुआ है। भारत में जब संविधान बनाने का समय आया तब उस समय के कांग्रेस नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जोर देकर इस बात को कहा था कि हमारा संविधान हम बनाएंगे। यह भी आत्मनिर्भरता का एक जबरदस्त हुंकार है और फिर उन्हीं के कारण संविधान सभा का गठन हुआ है, जिसका श्रेय हमें नेहरू को देना चाहिए। आत्मनिर्भरता का जब विषय आता है पूज्य बाबासाहब ने कहा कि लिबर्टी, इक्वालिटी और फ्रैटर्निटी ये जो तीन शब्द हैं जिन पर हमारा संविधान खड़ा है, न्याय का एक तत्व है जो हमने पश्चिम से उधार नहीं लिया है। इनका उद्गम भारत के तत्वज्ञान में है, गौतम बुद्ध के तत्वज्ञान में है। यही आत्मनिर्भरता है। अब आत्मनिर्भरता के मुद्दे को समझकर हमें हर क्षेत्र में अपनी जड़ों को मजबूत करना होगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पश्चिम की सभ्यता बिल्कुल बेकार है और हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। हमारे लिए जो भी अनुकूल है उसे हम ग्रहण करेंगे। हमें किसी की बाहरी चीज को ग्रहण करने से पहले यह देखना होगा कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या खराब। आखों पर पट्टी बांधकर हम कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते। हमारा संविधान विवेकवाद का एक बहुत ही सुंदर उदाहरण है। उसकी प्रक्रिया के नीति निर्धारण करने वालों को संविधान का अध्ययन करना चाहिए। आम आदमी आत्मनिर्भरता की बात तो करेगा लेकिन देश के लिए जो नीति बनाई जाएगी देश उसीके हिसाब से ही चलेगा।

संविधान राजनीति का विषय नहीं है बल्कि गंभीरता से समझ लेने का विषय है। लेकिन हम देख रहे हैं कि भारत के संविधान का उल्लेख राजनीति के संदर्भ में ज्यादा किया जाता है। संविधान बदलने की भाषा को लेकर तरह-तरह के भ्रम निर्माण करना यह देश की राजनीति का एक हिस्सा बना हुआ है। इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?

थोड़े शब्दों में कहूं तो संविधान पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। संविधान के अमल में कुछ त्रुटियां आ रही हैं जैसे कि कार्यपालिका की त्रुटियां होती हैं, कभी कभी हमारे न्यायालय भी कुछ गलती कर देते हैं। ऐसे समय में शांतिपूर्वक और संविधान का जो मूलभूत ढांचा है, उसे समझ लेना चाहिए, संविधान क्या कहता है यह जानना चाहिए। संविधान कहता है कि उसे राजनीतिक न्याय, सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय को कायम करना है। यहां हर शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक एक शब्द पर एक एक किताब लिखी जा सकती है। इन सबका मतलब आम जनता को बताना चाहिए। मुंबई की हालत यह है कि एक 50 मंजिला इमारत में करीब 250 परिवार रहते हैं, लेकिन उस इमारत की बगल में झोपड़पट्टी है जहां पर करीब 10 हजार परिवार रहते हैं। यह आर्थिक विषमता संविधान के खिलाफ है। यह कैसे दूर होगी इसका चिंतन करना चाहिए। देश में सामान्य सुविधाओं से बिना भी लोग रहने को मजबूर हैं, जहां उन्हें साफ पानी और शौचालय तक की सुविधा नहीं मिल पाती है। इसके खिलाफ राजनीतिक दलों को सवाल उठाना चाहिए। सिग्नल पर भीख मांगने वाले बच्चों को लेकर भी लोगों को सवाल करने चाहिए कि पढ़ने की उम्र में वे आखिर भीख क्यों मांग रहे हैं? लेकिन इन तमाम सवालों का एक ही जवाब होगा कि यहां संविधान का अमल नहीं हुआ है।
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Tags: #संविधानदिवास #दिनविशेषhindi vivekhindi vivek magazineselectivespecialsubjective

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Comments 1

  1. इंसान says:
    4 years ago

    देश की न्यायपालिका में दशकों कार्य करते न्यायाधीशों तथा अन्य कर्मचारियों ने क्या कभी प्रश्न किया है कि स्वतंत्रता के पश्चात १८६० के और फिर इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा १८६१ और १९४७ के बीच पारित अधिनियमों के अंतर्गत हम किस संविधान का अनुसरण करते रहे हैं?

    Reply

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