उत्सवों के रंग में रंगा गोवा
गोवा की विभिन्न जातियों, जनजातियों और धर्म की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही गोवा की कुल कला और संस्कृति का प्रतीक है। यहां के उत्सव, संगीत, नाटक, शिल्पकला, चित्रकला, हस्तकला इनका ग्राफ लेने कि यह एक कोशिश है।
गोवा की विभिन्न जातियों, जनजातियों और धर्म की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही गोवा की कुल कला और संस्कृति का प्रतीक है। यहां के उत्सव, संगीत, नाटक, शिल्पकला, चित्रकला, हस्तकला इनका ग्राफ लेने कि यह एक कोशिश है।
भक्ति की ज्ञानमय चेतना मानव के जीवन को प्रकाशमान करती है। इसके साथ-साथ उसके पाप भी जला कर राख करती है। इसी भक्ति की दिव्य ज्योति से सद्गुरु जीवनमुक्त महाराज ने पुर्तगालियों के विरुद्ध धर्मक्रांति का मानो होमकुंड जगाया।
साहित्य में अब पाठकों की रुचि नहीं रही यह मानकर अच्छा साहित्य लिखा जाना बंद नहीं हो जाना चाहिए। पाठकों की रुचि और उनके दिशादर्शन का ध्यान रखकर साहित्य का निर्माण करना साहित्यकारों का दायित्व है और साहित्यकारों की रचनाओं को उचित प्रतिसाद देना पाठकों का।
अगर कोई पूछे कि मंदिर किसके लिए प्रसिद्ध है तो उत्तर होगा भगवान के लिए परंतु भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जो केवल भगवान के लिए नही अपितु कुछ अलग ही कारणों से प्रसिद्ध हैं। कुछ मंदिरों के तो भगवान भी बंदर या मोटरसाइकल हैं। ऐसे अजब-गजब मंदिरों की जानकारी दे रहा है यह लेख।
मंदिर हमारी सामाजिक-धार्मिक आस्था के केंद्र रहे हैं। सनातन संस्कृति में मंदिर से कई क्रिया-कलाप संपादित होते रहे हैं। बीते दशक में मंदिरों का विश्लेषण किया जाए, तो यह कहने में दिक्कत नहीं है कि मंदिर से हमारी अर्थव्यवस्था को भी बहुत लाभ मिल रहा है।
धार्मिक पर्यटन का एक पहलू यदि धार्मिक और आध्यात्मिक सरोकार हैं तो दूसरा पहलू धार्मिक स्थलों का आर्थिक और सामाजिक विकास भी है। भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, पर्यटन उद्योग भारत के कुल कार्यबल का लगभग 6 प्रतिशत रोजगार देता है।
भारतीय संस्कृति में शक्ति के साथ आचरण की सम्पन्नता पर भी विशेष जोर दिया जाता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में अनुपम एवं बेजोड़ है। वर्तमान भारत सम्पूर्ण विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार है तथा विश्वगुरु बनने की राह पर है।
आधुनिक होते शहर अपनी जड़ों से कट जाते हैं लेकिन नवी मुंबई शहर ने अपनी पुरातन संस्कृति को बचाए रखा है। इसे बचाए रखने में आम लोगों एवं प्रशासन, दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बह्मगिरि के मंदिर हों या सभी गांवों के गांवदेवी मंदिर, सभी अपनी अनुपम छटा के साथ स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं।
अयोध्या के वाह्य स्वरूप में तो बहुत परिवर्तन आये, जीवन शैली भी बदली किन्तु चिंतन के पिण्ड में अयोध्या सुरक्षित और श्रद्धेय रही । जो रामजन्म भूमि की मुक्ति के सतत संघर्ष और देश वासियों के मन में उठती उन हिलोरों से स्पष्ट है जिसमें कमसेकम जीवन में एक बार अयोध्या यात्रा की इच्छा बसी होती है । इसी आंतरिक चेतना शक्ति से रामलला बाबरी ढांचे में प्रगट हुये और फिर वहाँ मंदिर का मार्ग प्रशस्त हुआ । भव्य मंदिर का शिलान्यास हुआ और पूरे संसार का ध्यान एक बार पुनः अयोध्या की ओर आकर्षित हुआ । इसके बाद अयोध्या आने वाले श्रृद्धालुओं और जिज्ञासुओं की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई । यह भी बहुत स्पष्ट है कि जन्मभूमि मंदिर निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद अयोध्या आने वालों की संख्या असीम होगी । और इसके लिये अयोध्या तैयारी कर रही है । यह तैयारी दोनों ओर बहुत तीव्र है । मंदिर निर्माण की दिशा में भी और आगन्तुकों के "स्वागत" के लिये भी ।
विरोधियों की मानसिकता देखिए कि वे गीता प्रेस के सम्मान को स्वातंत्र्यवीर सावरकर और नाथूराम गोडसे से जोड़कर एक यशस्वी प्रकाशन के संबंध में भ्रम और विवाद खड़ा करना चाहते हैं। ओछे राजनीतिक स्वार्थ के चलते स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रति चिढ़ ने नेताओं को इतना अंधा कर दिया है कि उन्हें इस महान क्रांतिकारी के संबंध में न तो महात्मा गांधी के विचार स्मरण रहते हैं और न ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विचार एवं कार्य। वितंडा खड़ा करने में आनंद लेनेवालों को समझना होगा कि तथ्यों के घालमेल से सच नहीं बदल जाएगा। सच यही है कि गीता प्रेस के प्रति प्रत्येक भारतीय के मन में अगाध श्रद्धा है। गीता प्रेस ने अपनी अब तक की अपनी यात्रा में भारतीय संस्कृति की महान सेवा की है।
महात्मा गांधी श्रीमद् भगवतगीता को अपनी मां मानते थे, ऐसे में उस श्रीमद् भगवतगीता के नाम पर स्थापित प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देना बहुत ही सटीक निर्णय है। सोचिए जिस संस्थान का उद्देश्य यह हो कि भगवान की सेवा में कभी भी किसी तरह का विघ्न न आए और समाज के अंतिम व्यक्ति तक धर्म की पुस्तकें पहुँचें। उसका बेजा विरोध करना संकीर्ण मानसिकता की देन है। राजनीति करने के कई दूसरे मुद्दे हो सकते है, लेकिन गीता प्रेस पर उंगली उठाकर एक बार फिर कांग्रेसियों ने भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति का अपमान किया है।
शिवाजी सदा मां भवानी की पूजा करते थे और अपनी मां के द्वारा मिली शिक्षा का निर्वहन करते रहे। शिवाजी की तलवार का नाम भी भवानी ही था। जीजाबाई ने शिवाजी को बचपन से ही महाभारत एवं रामायण की ऐसी कहानियां सुनाई जिनसे उन्हें अपने धर्म और अपने कर्म का ज्ञान हुआ । जीजाबाई ने अपने पुत्र शिवाजी को ऐेसे संस्कार दिए कि उन्होंने हिन्दवी साम्राज्य को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। माता जीजाबाई के कारण ही शिवाजी को “छत्रपति शिवाजी महाराज” बने।