नायक को नायक ही रहने दो – कोई नाम न दो
क्या ये कह देना भर काफी है कि कमर्शियल सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन है, स्कूली शिक्षा बाँटना नहीं! और यदि येे काफी है तो फिर क्या ऐसा मनोरंजन देकर, विद्यालयों में दी जा रही शिक्षा को भी अनावश्यक सिद्ध नहीं किया जा रहा ?