नायक को नायक ही रहने दो – कोई नाम न दो

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क्या ये कह देना भर काफी है कि कमर्शियल सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन है, स्कूली शिक्षा बाँटना नहीं! और यदि येे काफी है तो फिर क्या ऐसा मनोरंजन देकर, विद्यालयों में दी जा रही  शिक्षा को भी अनावश्यक सिद्ध नहीं किया जा रहा ?

बख्तर में जावेद अख्तर

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     डॉ. हेडगेवारजी ने कांग्रेस के सभी गतिविधियों में भाग लिया था।गणतंत्र दिवस के दौरान सभी संघ कार्यालयों पर तिरंगा लगाया जाता है।गत कुछ वर्षों से गणतंत्र दिवस पर संघ का संचलन होता है और उस समय संघ अधिकारियों का भाषण भी होता है।अख्तर साहेब को बख्तर से बाहर आकर और गजल के शब्द ढूंढने के कष्ट से थोड़ा बाहर आकर इन विषयों पर अभ्यास करना चाहिए।

तेरे बज्म में आनेसे ऐ साकी….

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‘उर्दू गजल’ के चाहनेवाले दिन-ब-दिन बढते ही रहे हैं; और यह बडी खुशी की बात है । इस में पुरानी फिल्मों के संगीत का बडा योगदान रहा है। संगीतकार मदनमोहन, नौशाद, सी. रामचंद्र जैसे कई महान संगीतकारों ने इस विषय में अपनी छाप छोडी है । जगजितसिंग, अनुप जलोटा, तलत…

  लोकगीतों और संगीत का हिंदी फिल्मों पर प्रभाव

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  अपना इतिहास अपने लोक गीतो में सुरक्षित है, वर्ना नया मार्क्सिस्ट इतिहास तो हमें मुग़लों और अंग्रेजों के शासन के अलावा कुछ बताता ही नहीं। राजस्थान के लोक गीत न होते तो मेवाड़ के राणाओं की गाथा और जौहर के किस्से तो मिथक ही कहलाते। आल्हा उदल की कहानी…

दिल ही तो है….    

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 शायरी के शब्दों के पीछे भी गहरा मतलब छिपा रहता है इसलिए तो वह शायरी या कविता कहलाती है। वह गहरा अर्थ समझने पर ही पाठक को असली आनंद आता है। पुराने गीत अच्छी शायरी हुआ करती उर्दू शायरी में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या आजकल कम नहीं है ।…

दर्द-ए-मलिका मीना कुमारी

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इत्तेफाकन् मैं आपके कंपार्टमेंट में चला आया; आपके पांव देखे; बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे.. पाकीजा फिल्म में राजकुमार का यह संवाद याद आता है? पाकीजा याने शुद्ध, पवित्र! एक नर्तकी के जीवन में एक ऐसा गबरू जवान आता है, जो उससे ‘रूहानी’ मुहब्बत…

मिसाल-ए- कलाकार – कादर खान

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सन 1973 में राजेश खन्ना के साथ फ़िल्म 'दाग' से अपने फ़िल्मी करियर की शुरआत करने वाले फ़िल्मी दुनिया के हरदिल अज़ीज़ सितारे,  रहे श्री कादर खान का पिछले दिनों हुआ निधन भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री के एक अपूर्णनीय क्षति है। लगभग तीन सौ फ़िल्मों में काम करने वाले कादर खान…

फैशन का गृहप्रवेश, माध्यम फिल्में

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फिल्में, यद्यपि आती जाती रहती हैं फिर भी समाज से फैशन का रिश्ता कायम रहता है। समाज उसमें भी कुछ नया ढूंढ़ने की कोशिश करता है। फैशन को बढ़ाने में फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है।

धीमी हो बदलाव की गति

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कुछ ही सालों के दौरान फिल्मों में जिस तरह तेजी से बदलाव आया यदि इसी तरह बदलाव आता रहा तो 2050 तक फ़िल्में कैसी होंगी? सकारात्मकता की ओर हम फिर लौटेंगे या नकारात्मकता अधिक बढ़ेगी? नई नई तकनीक हमें कहां ले जाएगी? हो सकता है कुछ सालों में ही हम चांद पर फिल्माई गई फिल्म देखें।

चटपटा नाश्ता

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गर्मियों के दिन हैं। बच्चों की छुट्टियां चल रही हैं। उन्हें शाम को भूख लग जाती है। कई बार शाम को मेहमान भी आ जाते हैं। हमेशा वही पोहा, उपमा, इडली, समोसा, वडा किसी को नहीं सुहाता। क्यों ना ऐसा चटपटा नाश्ता बनाया जाए जो नया हो बच्चों के साथ-साथ बड़ों को पसंद आए।

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