जहां सुमति तहं सम्पति नाना…

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मंजुला और श्याम ने अलमारी खोली। उसमें चांदी के सिक्के, चांदी का लोटा, चांदी की प्लेट, कुछ गिन्नियां रखी थीं। कुछ कपड़े आदि भी रखे थे। श्याम ने कहा, बस यह चांदी-सोने का सामान मुझे दे दो। बाकी जो कुछ है, वह तुम ले लो। मोहन ने कहा, ठीक है भैया आपको जो अच्छा लग रहा है, वह आप ले लीजिये।

बदल गई ‘बचपन’ की दुनिया

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वक्त के साथ दुनिया बदलती ही है क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसीलिए विकास के साथ जीवन के प्रति हमारी प्राथमिकताएं, सोच, रहन-सहन और आदतें भी बदल जाती हैं। लेकिन; इन बदली हुई प्राथमिकताओं में कई बार हम उन आदतों व चीजों से अनजाने ही दूर होते जाते हैं जो कभी हमारी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं। मसलन वे खेल जिनके साथ हम बड़े हुए हैं। पुराने समय के खेल-खिलौनों की जगह अब मोबाइल, वीडियो गेम, कम्प्यूटर ने ले ली है। कहना गलत न होगा कि आज के बच्चों का बचपन और उनके खेल-खिलौने वक्त के साथ पूरी तरह बदल चुके हैं।

कला पर बोझ बनता स्टारडम

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जब कोई निर्देशक कोई फिल्म बनाता है तो उसके मस्तिष्क में फिल्म की पूरी ब्लू प्रिंट तैयार होती है। पर्दे पर दिखने के पहले वह निर्देशक की आंखों में उतर चुकी होती है। ऐसे में स्टारडम के बल पर सुपर स्टार्स का फिल्म में हेरफेर करना पूर्णत: अनुचित है। निर्देशकों को अपनी सोच के हिसाब से फिल्म बनाने की छूट मिलना कथा से लेकर उसकी परिणीति तक के लिए अत्यंत आवश्यक है।

स्पेशल इफेक्ट भी हो और कहानी भी

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फिल्मे ‘आदिपुरुष’ स्पेशल इफेक्ट के सहारे चाहे जितने ‘ब्रह्मास्त्र’ चला लें परंतु अगर कहानी में दम नहीं होगा या उसे तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाएगा तो दर्शकों का प्यार पाना सम्भव नहीं हो पाएगा। हिंदी सिनेमा का दर्शक अभी भी कहानी का भूखा है, केवल स्पेशल इफेक्ट का नहीं।

फिर वो ही ‘खासियत’ लायीं है…

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भारतीय फिल्में फिर एक बार भारतीयता का चोला ओढ़ कर हमारे सामने प्रस्तुत हो रही हैं। भारतीय इतिहास को बिना तोेड़े-मरोड़े दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की चुनौती अब भारतीय सिनेमा बनाने वालों को स्वीकार करना होगा।

तेईसवीं शताब्दी में एक दिन

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Happy Man in Bed
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उठो आज ऑफिस नहीं जाना है क्या? माधुरी रमन को झिंझोड़ कर उठा रही थी। अब तक वह उसे तीन बार उठा चुकी थी पर हर बार रमन चादर में मुंह घुसा कर सो जाता था।

चांद छूती महिलाएं

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महिलाएं आसमान छू रही हैं यह बात भी अब बहुत फीकी लगने लगी हैं क्योंकि आसमान को पार कर महिलाओं ने चांद को भी छू लिया है। महिलाएं दूज को जिस चांद की आरती उतारती थीं आज उन्होंने उस पर यान भेजकर यह सिद्ध कर दिया है कि वे केवल घर-गृहस्थी, धरती या आकाश ही नहीं चांद को भी नापने को तैयार हैं।

धागों से जुड़ता भारत

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भारतीय कला विविध रूपों में प्रतिबिम्बित होती है। कभी चित्रों के रूप में कैनवास पर, कभी शिल्पों के रूप में दीवारों पर तो कभी कढ़ाई के रूप में कपड़ों पर। जितने राज्य उससे भी अधिक कढ़ाई के तरीके। परंतु इतनी विविधता में एकता यह झलकती है कि कश्मीर की कशीदाकारी दक्षिण के लोग पसंद करते हैं और उत्तर प्रदेश की बनारसी महाराष्ट्र की दुल्हनों को लुभाती है। ये धागे भारत को जोड़ते हैं।

Dark web इइंटरनेट की अंधियारी गलियां

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जिन गलियों की जानकारी न हो उनमें घूमना वैसे ही भयावह होता है और अगर वो गलियां अंधियारी हो तो भय का बढ़ना निश्चित है। डार्क वेब इंटरनेट की ऐसी ही अंधियारी गलियारों में लगा बाजार है, जहां डाटा से लेकर हथियारों और कई गैरकानूनी वस्तुओं की खरीद-बिक्री होती है।

एआई ये दाग अच्छे हैं!

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तकनीक के कुछ लाभ हैं तो हानि भी कम नहीं है। डायनामाइट जैसे विस्फोटक का आविष्कार हुआ था पहाड़ में सुरंगें बनाने जैसे उपयोगी काम के लिए, लेकिन इस आविष्कार ने संहार का रास्ता भी खोला। कम्प्यूटर-इंटरनेट से लेकर ऐसी अनेक खोज हैं जो हमारी सहायता के लिए अस्तित्व में आईं, लेकिन उससे हुई हानि हमेशा चर्चा में रहे हैं। यही सब कुछ चैट जीपीटी के संदर्भ में भी सामने आ रहा है।

वरदान न बने अभिशाप

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तकनीक या विज्ञान जितनी प्रगति कर रहा है उतना ही यह प्रश्न सुरसा की तरह मुंह फैला रहा है कि इसे वरदान कहें या अभिशाप? हालांकि मशीनी युग में भी मानवीय संवेदनाएं ही इसका सही उत्तर देंगी कि मानव के लिए क्या सही है और क्या गलत।

भारत की मनमोहक लोक चित्रकलाएं

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घर के आंगन में रोज बनाई जाने वाली रंगोली से लेकर दीवारों पर आयोजन विशेष के आधार पर बनाए जाने वाले चित्रों तक, सब कुछ भारतीय लोककला का जीवंत प्रमाण है। आज भारत की ये लोककलाएं पूरे विश्व में अपनी विशेष पहचान के लिए जानी जाती हैं। मधुबनी हो, वार्ली हो या ईसर-गवरी के चित्र हों, सभी देखने वालों का मन मोह लेती हैं।

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